महिला समाज का स्तम्भ

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किसी भी भवन के निर्माण में कुछ बातों को ज़रूर ध्यान में रखा जाता है। आप सोचते होंगे कि मैंने भवन की बात क्यों शुरू की। इसका कारण यही है कि समाज के निर्माण का कार्य भी एक तरह से भवन निर्माण की तरह है। कहते भी हैं Character Building of a value based happy society तो मैं यह कह रही थी कि भवन निर्माण में कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है। उनमें से कुछ-एक तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं।

इनमें से एक तो विशेष बात यह है कि नींव पक्की होनी चाहिए और धरनी अच्छी होनी चाहिए। अगर रेत पर मकान बना दिया गया तो कभी भी तूफान या हल्का-सा भूकम्प या छोटी-मोटी बाढ़ या मूसलाधार बारिश होगी तो भवन गिर जायेगा। रहने वाले भी मरेंगे और सब नुकसान होगा। पैसा भी और मेहनत भी गई, सुरक्षा भी गई, जिन्दगी भी चली गई।

इसलिए नींव में रोड़ी ठोक-पीट कर मरम्मत की जाती है। दूसरा होते हैं उसमें स्तम्भ, अगर स्तम्भ गहरे, मजबूत हुए, अगर उनमें सीमेंट बहुत कम और रेत बहुत ज़्यादा  डाल दी, उनकी सिंचाई नहीं की, उनमें मोटा सरिया डाल मजबूत नहीं किया तो बिल्डिंग किस पर टिकेगी? सारे भवन को थामेगा कौन?

तीसरे, अगर बीम मजबूत हुई, बनाने में, भरने में और मैटिरियल में किसी भी पकार की कमजोरी हुई या उन्हें पक्का होने से पहले छोड़ दिया तो सदा खतरा बना रहेगा। चौथा, अगर धरनी में पानी काफी नजदीक हुआ और उसकी रोकथाम के लिए कोई आवश्यक पबन्ध किया गया तो सदा सीलन आयेगी। सुन्दर बिल्डिंग बनाने पर भी सीलन सदा मन को खराब करती रहेगी।

मच्छर, दीमक सदा परेशान करेंगे। और बातों को छोड़ दीजिये क्योंकि आज हम भवन निर्माण का सेमिनार नहीं कर रहे हैं लेकिन आपने देखा होगा कि आज के विषय में महिला को स्तम्भ कहा गया है, गोया आधार माना गया है। मकान को खड़ा रखने का शक्ति स्तम्भ कहा गया है। वास्तव में महिला सुख-शान्ति वाले समाज में केवल स्तम्भ ही नहीं हैं बल्कि निर्माता भी हैं। माता निर्माता तो होती ही है।

वास्तव में निर्माता एक स्तम्भ को माना जाये तो महिलायें उस निर्माण के कार्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। वे उसकी नींव पक्की करती हैं। उसकी धरनी को तैयार करती हैं, उसके बीम अर्थात् शहतीरों को मजबूत बनाने में सहयोगी बनती हैं। परन्तु खेद की बात यह है कि सुख-शान्ति वाले समाज के निर्माण में माताओं को पिछले 2000 वर्षों में इतिहास में महत्त्व ही नहीं दिया गया।

उसे केवल गृहणी कह दिया गया अर्थात् वो घर को संभालने वाली, घर में रहने वाली है। वो घर को, घर बनाने वाली है ऐसा नहीं माना गया। पहले भवन निर्माण करने वाले आर्चीटैक्ट भी पुरुष होते थे अब तो महिलायें भी बहुत सारी आर्चीटैक्ट हैं और इंजीनियर्स भी हैं। जैसे अब उस बात को समझा गया है वैसे ही इस बात को भी समझने की ज़रूरत है कि माता ही घर की निर्माता है। वो घर को स्वर्ग बना सकती है।

अगर माताओं को इस पकार की शिक्षा नहीं होगी तो भी अपनी भूमिका यह नहीं समझेंगी। पुरुष वर्ग भी उन्हें यह मौका नहीं देगा तो घर नर्प बन जायेगा। आज घर में कलह-क्लेश क्यों है? भाई-भाई आपस में क्यों लड़ रहे हैं? क्यांकि उसको ऐसा अवसर ही नहीं दिया जाता। उसमें ऐसे गुण और ऐसी चेतना भी नहीं है कि घर को स्वर्ग बना सके और वो नहीं बना सकती क्योंकि उसे ऐसी शिक्षा मिली ही नहीं है।

वो भोजन बनाना, कपड़े सिलाई करना, चीजों को ठीक-ठिकाने लगा देना, झाडू-पोंछा कर देना, मुक्का-सोटा मार कर कपड़े धो देना यह तो सीखती हैं परन्तु घर को स्वर्ग बनाना नहीं सीखतीं। आज तो उनसे यह काम भी छूटता जा रहा है।

चलो, वो बात तो एक तरफ रखो, घर में खुशी, सुख या स्वर्गमय जीवन तो तभी बनेगा जब उसमें रहने वाले देवी-देवता होंगे। स्वर्ग में असुर तो रहते नहीं, देवी-देवता ही रहते हैं इसलिये अगर हम यह चाहते हैं कि घर-घर में खुशी हो, सुख-शान्ति हो तो हमें यह भी समझना चाहिए कि इसका भाव यह है कि आज घर स्वर्गमय नहीं है और वो तभी होगा जब यहाँ रहने वाले देवी-देवता होंगे अर्थात् उनमें दैवी लक्षण होंगे।

उनकी दृष्टि-वृत्ति, रहन-सहन, खानपान सात्त्विक होगा। जीवन कमल-पुष्प के सामन होगा क्योंकि कमल-पुष्प पर ही देवी-देवतओं को खड़ा या बैठा हुआ दिखाया जाता है। अत ऐसे समाज के पुनर्निर्माण का भाव यह है कि कलियुग के बजाय सतयुग लाना। जीवन को कमल-पुष्प समान पवित्र बनाना। ऐसे भवन में नारी का स्थान स्तम्भ के समान है।

वास्तव में इस महिलाओं की चर्चा में पुरुष भी काफी संख्या में होने चाहिएँ ताकि वे इस बात को समझें। महिलाओं  को ऐसी शिक्षा लेने में सहयोगी बनें और घर को स्वर्ग बनाने में उनका साथ दें तब जो स्वर्ग बनेगा। उसमें वो भी तो खुश, स्वस्थ, सुखी और पवित्र हेंगे और जब घर ऐसा स्वर्ग बनेगा तभी तो सतयुगी समाज बनेगा अथवा मूल्यनिष्ठ समाज का निर्माण होगा।

आज यह समझा जाता है कि समाज में जो वैज्ञानिक कान्ति हुई है वो सर्व श्रेष्ठ है। अब इस बात की आवश्यकता सहसूस की जा रही हे कि सामाजिक कान्ति ऐसी हो जिसमें गरीबी का अन्त हो और लोगों को स्वास्थ्य की सुविधा उपलब्ध हो। रोटी, कपड़ा और मकान - इससे सुखी होगा इंसान। लोगों के सामने यह लक्ष्य है। यह सोचना तो अच्छी बात है। मनुष्य का कर्त्तव्य है कि जो इन चीज़ों से वंचित है उनका कुछ भला किया जाये।

परन्तु पश्न यह उठता है कि आज रोटी, कपड़ा और मकान सबको उपलब्ध क्यों नहीं। यह तो हर एक मनुष्य का जन्म-सिद्ध अधिकार है। इससे कुछ लोग वंचित क्यों हैं? किसने उनको वंचित किया हुआ है? तो आप देखेंगे कि या तो उन लोगों में सद्व्यवहार की कमी है, उदारता की कमी है या करुणा की कमी है। जिसके लिये बैंक में कई पीढ़ियों के लिये साधन इकठ्ठे हैं वे अपने कर्मचारियों को, गरीब मजदूरों को उनका हक नहीं देते, उनका ख्याल नहीं करते, उनके लिये पबन्ध नहीं करते।

दूसरा, स्वयं कर्मचारियों और मजदूरों का भी इसमें दोष है कि उनमें से बहुत सारे लोग भाग्यवादी बन कर जीवन के दिन काट देते हैं। तो यह सब मिटे कैसे? इसके लिए नैतिक जागृति लाने की ज़रूरत है। आध्यात्मिक ज्ञान-पवाह की ज़रूरत है। कोई उनमें चेतना लाये कि भाई-भाई को क्यों लूट रहा है और वंचित कर रहा है। और दूसरा वर्ग भी भाग्य के सहारे बैठ कर क्यों आगे बढ़ने का परिश्रम नहीं करता?

वे मैले-कुचैले बने रहने की वृत्ति को क्यों नहीं छोड़ते? गरीब होने पर भी दर्जन बच्चे पैदा करता है और घर होने पर भी उन्हें फुटपाथ पर सुलाता है। उनकी शिक्षा कि लिए पैसे होने पर भी कचरे के ढेरों में से कागज, कपड़े, बोतलें, डिब्बे चुनवाता है, तो यह जागृति कौन लायेगा?

कितने समाज सेवक हुए हैं, धर्म पवर्तक भी हुए हैं, राजनैतिक नेता भी हुए हैं, हड़ताल और पिकेटिंग भी हुए हैं पर फिर भी यह गरीब लोग गरीबी की जंजीरें फेंकने की बजाय, शराब, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू और जुए के दास बने हुए हैं - यह कैसे समाप्त होगा?

अमीरों के पत्थर-दिल कैसे पिघलेंगे? यह महान परिवर्तन तो रूहानियत ही ला सकती है। भौतिकवाद और भोगवाद ने तो नैतिकता को काफी हानि पहुँचाई है। अब यह नैतिकता का कार्य सफलता पूर्वक तभी हो सकता है जब मातायें रूहानी स्तम्भ बनें। हर घर में अगर एक महिला भी इसकी जिम्मेवारी ले तो घर-घर सुखी हो सकता है।

आमतौर से यह कहा जाता है कि महिला घर की धुरी है। वो शुरू से बच्चे को जैसी लोरी देती है वैसे ही बच्चे का भविष्य निर्माण होता है। जब माँ बच्चे को लालन-पालन देती है तब कोई तो यह सोचती है कि बच्चा बहुत ही सुन्दर है। मन में भाव उत्पन्न होता है बड़ा होकर एक्टर बनेगा। अन्य कोई माता कहती है कि यह तो कोई साधु की आत्मा है, शान्त स्वभाव का है, यह भगवान की अमानत है, यह बड़ा होकर कुल को तारेगा।

अन्य कोई कहती है कि यह तो बहुत चंचल है, हाय दुहाई मचाये रखता है, सारा घर सिर पर उठा रखता है, सबको नचाता है, यह बड़ा होकर नारेबाजी लगायेगा या कोई नेता बनेगा, पब्लिक कइट्ठी करेगा, बहुतों के दाँत खट्टे करेगा। वो माँ की भावना बच्चे को उस दिशा में मोड़ती और ढालती है। उसके निश्चय के अनुसार ही बच्चे का भविष्य निर्माण होता है।

बहुत से घरों में तो बच्चे का नाम तो राम और कृष्ण रख लिया जाता है लकिन उनके पति उनकी भावना तो ऐसी नहीं होती और उनकी पालना भी ऐसी नहीं होती। अत माँ पर बहुत आधार है, वो आधारमूर्त भी है, उद्धारमूर्त भी है। आधारमूर्त है इसलिये उसको आधार स्तम्भ कह सकते हैं। स्तम्भ ही छत्रछाया का पबन्ध करता है इसलिये उद्धारमूर्त भी होता है।

मनुष्य का जैसे भाव होता है वैसा ही उसका इष्ट देव होता है। अत यदि माताओं में रूहानियत का भाव भरा हो तो वो घर-घर को देवालय बना सकती हैं और एक सुखी और स्वस्थ समाज की स्थापना कर सकती हैं।

माताओं को सुखी परिवार का स्तम्भ क्यों मान रहे हैं क्योंकि सुख के लिये कर्म अच्छा ज़रूरी है और कर्म अच्छे होने के लिये कुछ स्वाभाविक गुण होने ज़रूरी हैं। आप देखेंगे कि माताओं में पुरुषों की तुलना में कुछ विशेषतायें है  जिन द्वारा जीवन कुछ अच्छा बनाया जा सकता है। वे पाँच विशेषतायें हैं - लज्जा अथवा संकोच, भय, समर्पण भाव, स्थायित्व, धीरज तथा करुणा। लज्ज

, संकोच अथवा लोकलाज भी मनुष्य को बुराई से थोड़ा बहुत बचाती है। डर अगर बदनामी के डर का रूप ले ले तो वो भी बुराई से बचाता है। कोई पुरुष भी अगर ज़्यादा शर्म लज्जा करता है तो लोग मजाक में कहते हैं अरे भाई तू तो नारी है पुरुष कैसे बन गया है और यह भी कहावत है वो नारी, नारी नहीं जिसमें शर्म अथवा लज्जा नहीं। जब कोई नारी किसी भद्दे काम से संकोच नहीं करती तो कहा जाता है कि तू क्या नारी है, तेरे जैसी हमने कोई और महिला नहीं देखी।

कोई अगर बिल्कुल ही निर्लज्ज और ढीठ होकर खराब शब्द बोले और गंदे हाव-भाव पकट करे तो लोग कहते हैं कि अरे भई तोबा, यह तो कुलक्षणी है। तो कहने का भाव यहीं है कि लज्जा नारी का शृंगार है, उसकी शोभा है, उसमें चरित्र का सौन्दर्य है,उसका संकोच उसे संयम और मर्यादा में रखता है। उससे वह बुरे कर्मों से बचती है। इसी पकार वो बुरे कर्मों के दुःख से भी अधिक भयभीत होती है।

किसी को भी जब वो दुःखमय स्थिति में देखती है और उसके कर्मों पर विचार करती है तो उसके मन में तुलनाकृत यह ज़्यादा तीव्र संकल्प उठता है कि बुरे कर्मों से बचना चाहिए। आपने कई बार देखा होगा कि हाथ जोड़ कर पभु से पार्थना करती है कि हमें सद्बुद्धि दो। हम बुराई से बचें, दुःख को देख कर तौबा करती हे। कान को हाथ लगाती है। उसमें दया का भाव पैदा होता है और दया तो धर्म का मूल है। 

कहा गया है दया धर्म का मूल है। पाप मूल अभिमान, तुलसी दया छोड़िये जब लग घट में पाण। तीसरे, उसमें समर्पण भाव होता है। पुरुष तो संन्यास कर जाते हैं, घर-बार छोड़ जाते हैं। ऐसे संन्यासी तो सारे पुरुषों में थोड़ी गिनती में होते हैं। परन्तु कन्या को तो शुरू से ही यह मालूम होता है कि आखिर इस घर से जाना है इसलिये उसके पाँव पहले से ही उठे रहते हैं। यह कोई छोटी बात नहीं है।

यदि किसी का यह स्वाभाविक गुण पभु के पति समर्पित भाव में परिवर्तित हो जाये तब उसके कहने ही क्या हैं। जब कोई पभु का हो जाता है तब पभु तो त्रिलोकी सहित उसके हो जाते हैं। भवन में स्तम्भ खड़ा रहता है, लोग मकान में नाचते, खेलते, कूदते, खाते-पीते, सोते हैं परन्तु यह बिचारा स्तम्भ ही होता है जो रात-दिन अपनी ड्यूटी पर कायम रहता है

तो ऐसा स्तम्भ जिसमें दया भी हो, समर्पण भी हो, बुराई से बच कर, मर्यादापूर्वक चलने की भावना भी हो तो अवश्य ही रूहानी तौर पर बहुत मजबूत स्तम्भ होगा जो बड़े-बड़े भवन को संभाल लेगा।  स्तम्भ तो स्थायित्व का सूचक है। वो अंगद की तरह ही हिलता नहीं। कोई इसे हिला भी नहीं सकता। आँधी, वर्षा, भूकम्प सब कठिन परिस्थितियों में वो अपने कंधे पर बोझ थामे रखते हैं। गोया अथक होता है। यह नहीं कहता कि थोड़े समय के लिये कोई और भी बोझ संभाले, मेरे कंधे थक गये हैं।

थोड़ी देर तो मुझे फी छोड़ो, कुछ बैठने तो दो, कब तब खड़ा रहूँगा। अगर वो बैठ जाये तो मकान ही बैठ जाये। अगर वो थक जाये तो छत ही  गिर जाये। इसलिये वो अथक सेवाधारी बन कर रात देखता है दिन। अपना कर्त्तव्य पालन करता रहता है। तभी मकान टिकाउढ होता है। ऐसे ही महिलायें भी अथक सेवाधारी होती हैं। सबने देखा है कि कैसे रात-दिन एक कर के वो घर को संभालती है। सबसे पहले उठती है, सब खा-पीकर इधर-उधर हो जाते हैं परन्तु वो सुबह के बाद रात, रात के बाद सुबह की तैयारी में लगी रहती है।

जीवन भर लगी रहने पर भी कभी यह नहीं कहती कि मैं थकी पड़ी हूँ। घर में कोई कैसे मूड वाला होता है, कोई कैसे, कोई तेज स्वभाव वाला होता है, कोई चुपचाप परन्तु महिला के कारण घर में स्थायित्व आता है।

घर में स्थायित्व बना रहता है। वो टूटता नहीं। माँ की ममता ऐसी चीज़ है कि दुनिया में उससे बढ़कर और कोई ऐसी चीज़ अधिक तेज और शक्तिशाली सीमेन्ट, जो घर के सदस्यों को जोड़े रखे, नहीं बना है। अत समाज का स्थायित्व नारी पर आधारित है और स्थायित्व एकता का सूचक है। एकता से मनुष्य क्या नहीं कर सकता

इस पकार सुखी और स्वथ्य परिवार की ध्वज-धारक अथवा स्तम्भ माता ही है। जो मुल्यों की स्थापना कर आदर्शमय व्यवहार से परिवार और समाज को स्वर्गमय बनाये रख सकती है। परन्तु इसके लिये नारी में इन गुणों के विकास की आवश्यकता है और विकास के लिये शिक्षा और अभ्यास की आवश्यकता है।

शिक्षा और अभ्यास कराने के लिये विद्यालयों और शिक्षकों की भी आवश्यकता है। वही कार्य यह ईश्वरीय विश्व विद्यालय कर रहा है। परिणाम में आप देख रहे हैं कि महिलायें कैसे सुखी परिवार, समाज के सृजन कार्य में लगी हुईं हैं।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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