आत्म-अनुशासन व प्रशासन

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आज संसार में चारों ओर अनुशासहीनता के नज़ारे दिखाई देते हैं। विद्यार्थी अपने अध्यापक की आज्ञाओं का पालन नहीं करते, लड़के-लड़कियाँ अपने माँ-बाप की अवहेलना करते हैं। जनता शासकों की बातें नहीं मानती तो दफ्तरों में कर्मचारी अधिकारियों से बेपरवाह रहते हैं। सड़कों पर देखो, चाहे गलियों में, बाज़ारों में देखो, चाहे बसों, गाड़ियों में, आज मनुष्य ने अनुशासन के महत्त्व को गौण कर दिया है। परन्तु यह अनुशासन संयम मनुष्य में पुन कैसे सकता है, प्रस्तुत चर्चा में हम इस बात का विश्लेषण करेंगे।

यदि माँ-बाप अपने परिवार के शासक हैं, नेता देश के शासक हैं, अधिकारी विभिन्न विभागों के शासक हैं प्रधानाचार्य विद्यालयों के शासक हैं, परन्तु सबसे पहला शासक मनुष्य स्वयं का है। यह देह एक बहुत बड़ी फैक्ट्ररी है, इसका संचालन करने वाली आत्मा है। अब देखें यह आत्मा स्वयं पर कितना संचालन करती है। इस बड़ी फैक्ट्ररी में मन बुद्धि मुख्य अधिकारी है और बाकी सभी कर्मेइन्द्रियाँ कार्यकर्त्ता हैं।

आज हम स्वयं पर या दूसरों पर ध्यान दें, क्या हमारा मन और बुद्धि अधिकार में है या आज संचालक आत्मा अपने मन-बुद्धि के अधीन हो चुकी है। पूरे 24 घण्टे की दिनचर्या पर ध्यान देने से यह स्पष्ट है कि मनुष्य अधिक समय मन का गुलाम है। वो मनुष्य जो सदा स्वतंत्रता पेमी है, अपनी कर्मेन्द्रियों का गुलाम है। उसे मन जिधर चाहे खींच ले जाता है। वह सदा ही अपने बुरे संस्कारों के अधीन रहता है कभी आँखें उसे धोखा देती हैं, कभी मुख।

तब जबकि आत्मा का अपनी कर्मेइन्द्रियों ज्ञानेन्द्रियों पर ही अधिकार नहीं है तो भला वह दूसरे पर शासन कैसे करेगी? यही हालत आज हर शासक प्रशासक की है। उनकी बात उनकी कर्मेन्द्रिय ही नहीं मानती, तब भला अन्य उसकी बातें कैसे मानेंगे।

अत इस विश्व-विधान में यह अटल नियम है कि जो मनुष्य स्वयं पर राज्य करना जानता है, वही मनुष्य विश्व पर राज्य कर सकता है। यदि कोई शासक स्वयं को नियंत्रण करने में सफल नहीं है तो वह राष्ट्र या विश्व को नियंत्रण करने में भी सफल नहीं होगा।

अत स्वयं के जीवन को, परिवार को, दफ्तर, फैक्ट्ररी या राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए आत्म-संयम की आवश्यकता है। पहले हमारा मन अनुशासति हो अर्थात् उसमें ईश्वरीय आज्ञाओं के विरुद्ध संकल्पों का प्रवाह चलता रहे।

फिर हमारी आँखें अनुशासित हों, वह दूसरों को आत्मिक दृष्टि से देखें। फिर हमारा मुख्य अनुशासित हो, मुख पत्थर फैंके, फिर हमारी जिह्वा संयमित हो, वह खाने को देख लपलप करे, इस प्रकार आत्म-संयम से ही जीवन सुखी बनता है।

परन्तु यह आत्म-अनुशासन जागृत कैसे हो? आज हर आत्मा इतनी स्वछन्द हो चुकी है कि उसे संयमित करना पहाड़ को तोड़ने जैसा है। चाहते भी मन भागता है। इसके लिए आवश्यकता है आत्म-ज्ञान की और आत्मिक-स्वरूप के अभ्यास की। मैं एक पवित्र शान्त स्वरूप आत्मा हूं, यह देह मेरा मन्दिर है, मैं इससे भिन्न हूँ – इस अनुभूति की तथा अभ्यास की आवश्यकता है। इस अभ्यास से कर्मेन्द्रियाँ शीतल, मन शान्त संस्कार दिव्य होने लगते हैं और आत्मा का इन सब पर नियंत्रण हो जाता है।

अब तो मनुष्य ने स्वयं (आत्मा) की इस मन-बुद्धि कर्मेन्द्रियों से इतना मिला दिया है कि सबका एकीकाकर हो गया है। आत्मा जोकि संचालक है, स्वयं को कर्मेन्द्रियों से अलग नहीं समझती, तब भला उसका इन पर नियंत्रण हो भी कैसे?

हमारे अनुशासन में हमारे कार्यकर्त्ता तब ही सकते हैं जबकि उन्हें हमारे पति पूर्ण स्नेह सत्कार हो। जब वे हमें महान आत्मा समझते हों, जब उनमें हमारे पति समर्पण भाव हो। यदि ऐसा नहीं है और हम शक्ति पयोग करके दूसरों को अपने अधिकार में लाना चाहें तो यह क्षणिक है, यह सफल पयोग नहीं है।

हमारे प्रति स्नेह दूसरों का सत्कार तब ही जागृत होता है जब हम स्वयं संयमित होते हैं, जब हमारे जीवन में नम्रता होती है, जब अहंकार का दूषित हथियार हम प्रयोग नहीं करते, जब कोध की विषैली पुंकरों में हम भस्मीभूत नहीं होते, जब हम स्वयं समय को महत्त्व देते हैं।

यदि कोई अधिकारी कोध का पयोग करता हो, तब निसन्देह कर्मचारी उससे डरेंगे और शान्त भी रहेंगे, परन्तु मन लगा कर वे काम नहीं करेंगे। अधिकारी अहंकार के कारण भले ही वे दिखावे रूप से उसका सम्मान करें, परन्तु पीछे उसकी ग्लानि अवश्य करेंगे। अगर अधिकारी ही समय पर कार्यालय नहीं पहुँचते तो भला कार्यकर्त्ता क्यों पहुँचेंगे?

इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हा कि जितना किसी मनुष्य का स्वयं पर नियंत्रण होगा, उतना ही दूसरे भी अनुशासन में चलेंगे। अगर घर में माँ-बाप का व्यवहार चरित्र ही दोषपूर्ण होगा तो उनके शब्दों में इतनी शक्ति ही कहाँ होगी जो बच्चे उनकी बातें सुनकर चरित्रवान बनें। अत यह स्पष्ट है कि आत्म-अनुशासन, आत्मिक-स्वरूप में स्थित होने से ही आता है।

जितना-जितना आत्मा के सत्य स्वरूप का ज्ञान हाता जायेगा अभ्यास द्वारा हम उसमें स्थित होते जायेंगे, मनोबल सन्तुलन उतना ही बढ़ता जायेगा और हम ठीक निर्णय ले सकेंगे और सफल प्रशासक बन जायेंगे।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है। 

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