आओ क्रोध मुक्त बनें

0

हम सभी आध्यात्मिक पथिकों का सबसे ऊँचा ध्येय यही होना चाहिए कि हम अपने व्यवहार में सद्गुणों का विकास करे। सद्गुणों की वृद्धि से ही जीवन निस्वार्थ, पेममय और पवित्र तथा सुन्दर होता है। लेकिन इसके लिए हमें विवेकपूर्वक निष्पक्ष भाव से अपने बाहर-भीतर के स्व्रूप का सच्चा और स्पष्ट चित्र आँखों के सामने लाना ज़रूरी है।

यह तस्वार हमारे कर्म और भावनानुसार भद्दी भी हो सकती है तथा सुन्दर भी; परन्तु होगी वह सर्वथा असली। सच बात तो यह है कि मनुष्य अपनी भद्दी और भयंकर तस्वीर देखना नहीं चाहता, उससे डरता है। इसलिए वह उसे ज्ञरसक छिपाये रखना चाहता है, परन्तु कब तक छिपा सकता है? एक-एक दिन तो उसका कुरूप, कालिमाओं से युक्त चित्र उसके सामने आयेगा ही। फिर जब वह चित्र सामने आयेगा तब उसमें सुधार होना अत्यन्त कठिन होगा।

इसलिए, जो मनुष्य अपने जीवन मार्ग में आगे ही बढ़ने की इच्छा रखता है, उसे शीघ्राति-शीघ्र अपने उस चित्र को देखकर क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि दोषों का पता लगा लेना चाहिए, तभी उसे दोषों से विनिर्मुक्त करके सुन्दर बनाया जा सकेगा।

उस कठिनतम साधना के लिए सदा इस भावना को दृढ़ रखें कि मैं सब स्थानों में, सदा सबकुछ करने में निश्चिन्त रूप से समर्थ हूँ। इस बात को दृढ़ करने से स्वत गुप्त शक्तियाँ विकसित होती हैं। तब उसके समक्ष उत्साह का प्रयास झलकने लगता है और उसकी आकृति पर एक प्रकार की ओज की चमक जाती है।

क्रोध अत्यन्त भयंकर मानसिक रोग

जब कोई कामना पूरी नहीं होती, उस पर चोट लगती है, हमारी इच्छा के विरुद्ध कुछ होता है, तब मन में एक जलती हुई वृत्ति उत्पन्न होती है, उसका नाम है ‘क्रोध’। कोध शरीर तथा मन के सौन्दर्य-माधुर्य को नष्ट कर देता है। क्रोधी का मुख तथा सारे अंग विकृत हो जाते हैं, जैसेकि उसका मुख्य तमतमा जाता है, आँखें लाल हो जाती हैं, भौंहें चढ़ जाती हैं,

श्वांस तेज़ी से चलने लगती है, शरीर काँपने लगता है, होंठ चलने लगते हैं, शरीर का रोम-रोम उत्तेजना से भर उठता है और इतनी मूर्खता छा जाती है कि क्रोधी मनुष्य आवेश में भविष्य को भूलकर कोई भी अनर्थ कर बैठता है।

मुख से अनर्गल निकलने वाले कुत्सित, अश्लील शब्द उसके शरीर पर वैसा ही प्रभाव डालते हैं। उसकी जबान तलवार से भी तेज़ होती है, उसके वचन दूसरों पर पत्थर बरसने की तरह लगते हैं। क्रोधी के शब्द मनुष्य के हृदय में छेद कर देते हैं और उसे भी दुःखी कर देते हैं। दबा हुआ क्रोध तो घृणा और द्वेष का रूप पकड़ लेता है और मौका मिलते ही ज्वालामुखी की तरह फट पड़ता है।

बीमारियाँ तो कोध से जाने कितनी पैदा होती हैं। चिन्ता, मिर्गी, बेहोशी, स्नायुदौर्बल्य, उच्च रक्तचाप, पागलपन आदि जाने क्या-क्या नुकसान होता है क्रोध के कारण!

क्या क्रोध के बिना काम नहीं चल सकता?

कई कहते हैं कि बाल-बच्चों को सुधारने के लिए या दफ्तरों से कर्मचारियों से काम ठीक कराने के लिए क्रोध करना ही पड़ता है। क्रोध के बिना तो वे ढीठ हो जायेंगे। वे कहते हैं – आज के ज़माने में सीधी अंगुली से घी नहीं निकलता। परन्तु उनको समझना चाहिए कि क्रोध से तो बच्चे या कर्मचारी बिगड़ते ही हैं, सुधरते तो सत्संग और श्रेष्ठ विद्या से ही हैं।

वास्तव में पेम और स्नेह से संसार में जो कार्य होता है वह क्रोध या मार से नहीं होता, क्योंकि क्रोध करने वाले से मनुष्य का मन हट जाता है, खट्टा हो जाता है और आतंक के कारण भयभीत होने से उनकी बुद्धि काम नहीं करती। कई समझते हैं कि अगर किसी ने कोई गलत काम कर दिया तो उस पर क्रोध करना ही पड़ता है।

लेकिन क्रोध करके उसे गालियाँ देने से या मारने-पीटने से कोई लाभ नहीं होता, उससे उसकी यह आदत बदलेगी तो नहीं। जो काम बिगड़ गया है, चिल्लाने से वह ठीक होने वाला नहीं है। हाँ, आपकी वह शक्ति अवश्य व्यर्थ हो जायेगी। जिसके बल से आप कोई अच्छा काम कर सकते थे।

अत क्रोध के बिना भी आप अपना कारोबार चला सकते हैं। वास्तव में, क्रोध तो सारे तन-मन को जलाने वाली, भाग्य को दग्ध करने वाली, पुण्यों को भस्म करने वाली और दिव्य पुरुषार्थ को राख करने वाली एक अग्नि-सी है, इसे बुझाना ही होगा।

क्रोध मुक्ति अभियान सफल बनाने हेतु कुछेक श्रेष्ठतम धारणाएँ

1. आत्म-दर्शी ही सच्चा आत्म-ज्ञानी है विकारों का खेल तो तभी तक चलता है जब तक हम अपने को देह मानते हैं, क्योंकि विकारों की उत्पत्ति देहभान से ही होती है। देहदर्शी होने से कोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि के आने की संभावना होती है, लेकिन आत्मस्वरूप की खोज करते ही पासा एकदम पलट जाता है। आत्म-दर्शी अथाम् जिसका आत्मा के आनन्द-स्वरूप में विश्वास है, वह भोग पदार्थों की ओर ताकत भी नहीं और त्याग प्रधान जीवन बिताता है और इससे सदा पसन्न रहता है। जब साधक का देह-अभिमान सर्वथा गल जाता है तो उसका हृदय विशुद्ध पेम में भरा रहता है। तब उसका समान भाव से पेम रहता है, पेम में विषमता नहीं होती, अत वह सबका पिय बन जाता है। उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति में सहज ही दूसरों का हित निहित रहता है, इसलिए सभी उनसे प्यार करते हैं।

2. विनम्रता ही महानता है जब तक मनुष्य में अहं रहता है तब तक मनुष्य नाना पकार के छल-द्वन्द्व करता रहता है। एक-एक वस्तु का अहंकार हमारी नस-नस में घुसा बैठा रहता है। मौका मिला नहीं कि वह फुफकार कर बाहर आया नहीं।

अहंकार का त्याग एक बहुत कठिन काम है, लेकिन है यह महान कार्य। अहंकाकर और अभिमान को त्याग कर मनुष्य अपने को इतना नम्र बना ले, जैसे रास्ते का रोड़ा, कंकड़, पत्थर चाहे तो उसे दो लात लगा दो, चाहे जो आकर ठोकर मार दे, वह निर्विकार भाव से सब सहन कर ले। संसार के महापुरुषों में सदा ही सरलता, अभिमान शून्यता और विनम्रता पाई जाती है।

कहा गया है

रोड़ा हो रहे बाटका, तजि आप अभिमान।

ऐसा साधू जो भया, तेहि मिले भगवान।।

3. क्षमावान ही बुद्धिमान है आपसे यदि किसी के प्रति कोई अपराध बन पड़ तो क्षमा माँग लेना आपका कर्त्तव्य है। दूसरे ने यदि आपके पति कोई अपराध किया है तो उसे भी आप क्षमा कर दें। प्रभु हमारे जाने कितने अपराध क्षमा करते हैं और हम मामूली-से-मामूली अपराध को क्षमा नहीं करते। आज बहुत-से लोग क्षमावान होने के कारण क्रोध की आग में जल रहे हैं।

केवल वही लोग जो अपने असहनशीलता के स्वभाव को छोड़ कर क्षमा को अपनाते हैं, समझ सकते हैं कि प्रतिशोध की भावना कितनी बुरी और क्षमा की प्रवृत्ति कितनी अच्छी। जो मनुष्य प्रतिशोध की भावनाओं को छोड़ कर क्षमा-वृत्ति को अपनाता है वह अंधकार से पकाश की ओर आता है। क्षमाशील व्यक्ति के क्षमा करते रहने पर भी यदि कोई उसके प्रति दुष्टता का बर्ताव करता ही चला जाता है तो वह दुष्टता उसके करने वाले को ही खा डालती है।

जो तोको कांटा बुवै, ताहि वुबै तू फूल।

तुमको फूलको फूल है, वाकी है तिरसूल।।

4. प्रसंग से दूर हटने वाला ही विवेकवान है कोध का प्रसंग उपस्थित होने पर आप उत्तेजित हो उठते हैं, दूसरे को कुद्ध होते देख आप शान्त नहीं रह पाते, तो सबसे अच्छी तरकीब यह है कि आप मैदान छोड़कर कहीं भाग जाइये, एकान्त में चले जाइये। ऐसे तो मैदान से भागना बुरी बात है, परन्तु क्रोध के मैदान से भगने में कोई बुरी बात नहीं है। यहाँ तो मैदान छोड़कर भागने से आप मैदान जीतते हैं।

उत्तेजना के क्षणों में उस स्थान से हट जाना, अन्यत्र चले जाना, क्रोध को रोकने का उत्तम उपाय है। अहंकार पर ठेस लगने से, इच्छा के विरुद्ध कुछ होने से, स्वार्थ में बाधा पड़ने से हमारा क्रोध उठता है। सामने रहने से क्रोधाग्नि में घी पड़ता है, हमारी भी जबान बे-लगाम दौड़ने के लिए खुजला उठती है। ऐसे मौके पर मौके से टल जाना ही श्रेयस्कर है। रहेगा बाँस, बजेगी बाँसुरी।

5. शान्तचित्त रहने वाला ही बहादुर है भगवान पर पूर्ण विश्वास हो जाने पर चित्त सर्वथा शान्त और सुखमय हो जाता है क्योंकि शान्ति प्रभु की अमूल्य देन की पाप्ति होती है। ऐसा प्रभु-पेमी उस दिव्य शान्ति का साक्षात् स्वरूप होता है। उसकी वाणी से गहन शान्ति अनुभव होती है। उसके साथ सम्भाषण, उसका चिन्तन तथा उसके निकट गमन करने से दूसरे के अन्दर शान्ति के परमाणु आते हैं, उसका स्पर्श पाकर अशान्त हृदय में भी शान्ति का संचार होता है।

ऐसे शान्तचित्त और संतुलित मन वाले, क्रोधी के सामने अक्रोध अर्थात् शान्तभाव धारण करते हैं। मौन धारण करते हैं और मौन में ही शान्ति का निवास है। वास्तव में, उत्तेजना के क्षणों में जो शान्त रहते हैं वो महान हैं, वन्दनीय हैं। परमपिता परमात्मा शिव कहते हैं – हे वत्सो, जैसे मैं पेम का सागर हूँ, आप भी पेम स्वरूप और मधुर स्वभाव वाले बनो।

आप किसी से भी क्रोध से मत बोलो क्योंकि ऐसा करने वाला मुझ सद्गुरू परमात्मा का निन्दक कहलाता है और उसे स्वर्ग में ठौर नहीं मिलती। अब शान्ति को धारण करो और दूसरों को भी शान्ति देने का कर्त्तव्य करो तो उनकी शुभाशीश से आपको भी स्वर्ग में सम्पूर्ण तथा स्थायी सुख-शान्ति मिलेगी।

6. स्वार्थ त्यागी ही भाग्यवान है क्रोध से छुटकारा पाने के लिए हमें इन सभी इच्छाओं पर काबू करना पड़ेगा, उसके लिए हमें स्वार्थ-त्याग करना होगा, हानि चाहे जैसी हो जाये, चेहरे पर शिकन भी नहीं लानी होगी। स्वार्थ में बाधा पड़ते ही हम गरम हो उठते हैं कि मार-पीट, खून-खराबा की डिग्री तक जा पहुँचते हैं। उनसे अच्छे वे हैं जो गरम तो पड़ते  हैं पर उनका क्रोध वाणी तक ही सीमित रहता है उनसे भी अच्छे वे हैं जो वाणी में भी क्रोध की छाया नहीं आने देते।

परन्तु हृदय में तो उनके क्रोध रह ही जाता है। सबसे अच्छे हैं वो, जो हृदय में भी क्रोध को निकाल बाहर करते हैं। उत्तेजना के कैसे भी विषम-से-विषम क्षण उपस्थित हों, उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती, हृदय में भी क्षोभ की हल्की-सी भी लहर नहीं उठती। सचमुच ऐसे महान स्थिति वाले ही भाग्यवान कहलाते हैं।

7. शीतल योगी ही शीलवान है मैं शीतल योगी हूँ इस धारणा को पक्का करके जीवन में अनुभव करें। शीतल योगी पर क्रोध का ज़रा-सा भी प्रभाव नहीं पड़ सकता। उसके अन्तकरण में तो सदा शान्ति और आनन्द का साम्राज्य छाया रहता है। जब उसके श्वास-प्रश्वास से शीतलता निकलने लगती है और अहंकार का प्रत्येक स्पन्दन शान्त हो जाता है, तब उसकी अन्तरात्मा में शीतलता का दिव्य प्रकाश फैलता है, जिससे क्रोध का अन्धकार भाग जाता है।

उससे सदा सुहावनी शीतल तरंगें सर्वत्र शीतलता एवं सरसता का संचार करती रहती हैं। जैसे बरसते हुए मेघ जिधर से निकलते हैं उधर की धरा को तर कर देते हैं, इसी प्रकार शीतल योगी भी शीतलता की वर्षा से पाणी और प्रकृति को तर कर देता है जिससे क्रोधाग्नि पूर्णत बुझ जाती है। वास्तव में, शीतलता जीवन का वह सौरभ है जो सारे सम्बन्धों को मधुमय बना देता है।

लोग ऐसे शीतल योगी के चेहरे पर दीप्ति देखते और आश्चर्य करते तथा उनके मुख से निकलने वाली नवीन एवं अनोखी वाणी द्वारा प्रभावित होते हैं।

तो आईये, हम सभी मिलकर इस क्रोध मुक्ति अभियान को सफल बनाने हेतु विभिन्न युक्तियों को अपना कर क्रोध जैसी अहितकर मनोवृत्ति से मुक्ति पाएँ।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है। 

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top