क्रोध मनुष्य की निर्बलता का सूचक है

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क्रो अत्यन्त भयंकर मानसिक विकार है। आज घर-घर में इतना लड़ाई-झगड़ा, द्वेष, घृणा और तनावग्रस्त वातावरण दिखाई पड़ता है, इसका मूल कारण यह क्रो ही है। व्यक्ति का क्रो समाज में फैलता है, समाज का राष्ट्र में, और राष्ट्र का सारे संसार में। विश्व युद्धों का कारण क्रो ही है। क्रो का ज्वालामुखी फटते ही मीलों तक सर्वनाश का ताण्डव होने लगता है।

बाल्मीकि रामायण में लिखा है कि क्रो पाणों को लेने वाला शत्रु है, क्रो मित्र के रूप में आने वाला शत्रु है। क्रो अत्यन्त तीक्ष्ण तलवार के समान है। क्रो सत्यानाश की ओर ले जाने वाली राह है। इसलिए समझदार व्यक्ति क्रो नहीं करते। वास्तव में क्रो मानव-वृत्तियों में सबसे अधिक निकम्मा है। इससे कुछ भी बनता नहीं है, बिगड़ता ही अधिक है। जिस पर किया जाता है, उसकी अपेक्षा करने वाले को कोध से अधिक हानि पहुँचती है।

क्रो को जीतना एक बहुत कठिन कार्य है, लेकिन है महान कार्य। कल्याणकारी परमात्मा शिव ने विशेष हमें इस शुभभावना और दिव्यगुणों की धारणा करते हुए क्रोध-मुक्त जीवन बनाने का गंभीर इशारा दिया है, इसलिए किसी भी कीममत पर इस क्रो रूपी महाशत्रु से स्वयं को मुक्त करेन में ही हमारा कल्याण है।

क्रो का उद्गम कहाँ है?

क्रो को जन्म देने वाला देह-अभिमान है। देह-अभिमान से अहंभाव जागृत होता है और अहंभाव से कोध आता है। किसी विचारक ने कहा है कि क्रो का पारम्भ है मूर्खता से और अन्त पश्चाताप में। गीता पवचन में संत विनोबा जी ने इसकी सुन्दर व्याख्या की है – पानी ऊपर से स़ाफ दिखता है, परन्तु उसमें पत्थर डालिये, तुरन्त ही अन्दर की गन्दगी ऊपर तैर आयेगी।

वैसी ही दशा हमारे मन की है। मन अन्तसरोवर में नीचे घुटने भर गंदगी जमा रहती है। बाहरी वस्तु से उसका स्पर्श होते ही वह दिखाई देने लगती हे। हम कहते हैं, उसे गुस्सा गया। तो क्या यह गुस्सा कहीं बाहर से गया? वह तो अन्दर ही था! मन में यदि होता तो वह बाहर दिखाई ही देता’’। 

वस्तुत क्रो के संस्कार मन में ठसाठस भरे पड़े हैं। जब मनुष्य के आराम में बाधा पड़ती है, सुखोपभोग में कोई अड़चन जाती है, बच्चों के जिद्द करने से, हमारी इच्छा के विपरीत कुछ हो जाने से मनुष्य का क्रो भड़क उठता है।

क्या क्रो करना अनिवार्य है?

कई समझते हैं क्रो के बिना काम नहीं चल सकता। बाल-बच्चों को सुधारने के लिए क्रो करना ही पड़ता है। वे कहते हैं – आज के जमाने में सीधे अंगुली से घी नहीं निकलता। परन्तु उन्हें समझना चाहिए कि क्रो से तो बच्चे बिगड़ते ही हैं, सुधरते तो वे सत्संग या श्रेष्ठ ज्ञान से ही हैं। कई समझते हैं, अनुशासन के लिए क्रो करना आवश्यक है।

क्रो के बिना नौकर ढीठ हो जायेंगे, दफ़्तरों का काम ठीक नहीं चलेगा, लड़के बड़ों का आदर नहीं करेंगे। शिक्षक कहता है – बच्चे, मेरी प्यार से बात मानते ही नहीं, इसलिए मुझे क्रो करना ही पड़ता है। वास्तव में पेम और स्नेह से संसार में जो कार्य होता है वह क्रो से नहीं होता, क्योंकि क्रो करने वाले से मनुष्य का मन हट जाता है, सम्बन्धों में कड़वाहट आती है। इसलिए क्रो से छुटाकारा पाना ही उचित है।

क्रो माया का सबसे बड़ा अभिशाप है

जब मनुष्य पर क्रो का भूत सवार होता है तो उसका चेहरा लाल हो जाता है, भौहें तन जाती हैं, आँखें लाल हो उठती हैं, नाक लाल हो जाती है, साँस तेजी से चलने लगती है, जुबान बेलगाम हो जाती है। बुद्धि का दिवाला निकल जाता है। यह क्रो तो सारे तन-मन को जलाने वाली, भाग्य को दग्ध करने वाली, पुण्यों को भस्म करने वाली और दिव्य पुरुषार्थ को राख करने वाली एक अग्नि-सी है जोकि मनुष्य की मन-बुद्धि में प्रज्वलित होकर उसे अशान्त करती है। क्रो से तो जाने कितनी बीमारियाँ पैदा होती हैं। क्रो पहले तो मनुष्य के रक्त को विषैला और स्वभाव को चिड़चिड़ा बना डालता है, पाचन-किया को शिथिल कर देता है, बहुत देर तक शरीर थरथराता-कांपता रहता है।

क्रोधी का क्रो कुकृत्यों द्वारा व्यक्त होता है

जब क्रोधावेश से क्रोधी का एड़ी से चोटी तक शरीर क्रो से जल उठता है, तब वह मार-पीट, खून, कत्ल तक कर बैठता है। कभी-कभी तो उसका दौरा इतना तेज हो जाता है कि हाथ में छुरा लेकर खून करता है, पिस्तौल हो तो क्रो के पात्र को गोली से उड़ा देता है।

जेल में जाकर कैदियों से बात कीजिए आपको पता चलेगा कि उनमें बहुत-से ऐसे हैं जो केवल क्रो में आने के कारण कोई ऐसा काम कर बैठे हैं, जिसके कारण उन्हें जेल जाना पड़ा। क्रो के आवेश में मनुष्य ऐसा काम कर बैठता है जिससे उसे जीवन भर पछताना ही पड़ता है। कभी-कभी तो क्रो काला पानी और फाँसी पर चढ़ने तक के लिए विवश कर देता है।

क्रो की अभिव्यक्ति कटु वाणी से भी होती है

क्रोधी जब क्रो के हाथ का खिलौना बन बैठता है तब वह अपना विवेक खो बैठता है, उसे क्या बोलना चाहिए, इसका भान नहीं रहता। जिससे उसकी कटु वाणी से ज़हर ही उगलता है। वास्तव में क्रोधी मनुष्य की जुबान तलवार से भी तेज होती है। उसके वचन दूसरों को पत्थर की तरह लगते हैं। उसके शब्द मनुष्य के हृदय में छेद कर देते हैं और उसे दुःखी कर देते हैं।

अत दुःखी मनुष्य के हृदय के भीतर से निकलने वाली आह क्रोधी को भी जला देती है, उसे भी दुःखी करती है। इसलिए क्रोधी जब आवेश में आकर बात करता है तो कहता भी है कि – मेरे सीने में आग लगी हुई है। परमात्मा भी कहते हैं यदि तुम कटु वाणी द्वारा कड़वे वचन रूपी पत्थर मारोगे तो मरते समय तुम्हें भी ऐसी पीड़ा होगी। इसलिए कटु वाणी की बजाय मीठी वाणी बोलने में ही लाभ है।

क्रोधी के मन में प्रतिशोध की भावना रहती है

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि क्रो एक प्रकार की मानसिक एवं स्नायविक दुर्बलता का प्रतीक है। क्रो के समय विचार करने की शक्ति कुण्ठित हो जाती है। क्रो एक ऐसा मानसिक ज्वर है जो मन की समस्त शक्तियों को भस्म कर डालता है। क्रो से मन में भयंकर उद्वेग, थरथराहट, कम्पन, जलन, दूषित मनस्थिति उत्पन्न होती है, जिससे अन्तकरण की शान्ति भंग हो जाती है।

क्रो से मानसिक तनाव उत्पन्न हो जाता है जिससे सुन्दर तथा आकर्षक व्यक्ति भी भयंकर लगने लगता है। यदि क्रो मन की गहराईयों में पहुँच कर जम जाए तो वह प्रतिशोध अर्थात् बदले की भावना से वैरभाव संजोए रखता है जिससे कि दूसरों के उत्तम गुण, भलाई, पेम आदि सब भूल जाते हैं और दूसरे को सज़ा देने, नुकसान पहुँचाने आदि की बुरी भावना निरन्तर गम को सताया करती है।

क्रो से आपकी शुभभावनाएँ, दया, पेम, सत्य, न्याय, विवेक आदि नष्ट होती है। यदि हम इन सभी बातों को सोचें-विचारें तो हम प्रतिशोध के दुर्विचार को ही त्याग देंगे।

साधक के लिए क्रो साक्षात् विष-तुलय है

साधना के उच्च शिखर पर पहुँचने वाले पुरुषार्थी को क्रो जैसी मन की मलीनता को निकाल फैंकना अनिवार्य है। क्रो से व्याकुलता, विपत्ति और मानसिक दिवालियेपन के अलावा कुछ नहीं मिलता। योगाभ्यास में शान्त और शिथिल मन रखने से ही आप अपनीमानसिक तथा रचनात्मक ऊर्जा की बचत कर सकते हैं। क्रो पर किसी भा कीमत पर विजय पाकर ही रहता है। मनुष्य का सच्चा गौरव इस तथ्य में है कि उसे दिव्यगुणों से सम्पन्न, सभ्य तथा सुसंस्कृत कहा जाय।

क्रोधमुक्त बनने की विभिन्न युक्तियाँ

गाली का जवाब गाली दें

यह सभी जानते हैं कि गाली से गाली बढ़ती है। रॉयल व्यक्ति कभी भी गालियों का प्रयोग नहीं करता, गाली सुनते भी चुप रहता है। इसी संदर्भ में कबीर जी कहते हैं

आवात गाली एक है, उलटत होय अनेक।

कह कबीर नहीं उलटिये, वही एक की एक।।

क्रोधाग्नि में गालियों की आहुति पड़ते ही मामला और गंभीर हो जाता है। मनुष्य और भी उटपटांग बोलने लगता है। इसे शान्त करने के लिए वाणी के संयम का अभ्यास ज़रूरी है। मुख से कोई भी बात निकालने के पहले सोचें कि बात में क्रो का अंश तो नहीं है, उससे किसी को आघात तो नहीं पहुँचेगा? वाणी सदा सच्ची, पिय, मीठी तथा हितकारी भी हो।

धीरज का पल्ला कभी छोड़ें

प्रतिपक्षी मनुष्य कुवाक्य रूपी बाण मारकर पूरी तरह बींध डाले, तब भी धीर पुरुष शान्त रहता है। शत्रु के क्रो दिलाने पर भी जो व्यक्ति क्रो कर हर्षित ही रहता है, वह धीर पुरुष शत्रु के पुण्य का भागी होता है। दूसरा चाहे जो भी कहे या करे, चाहे वो आपका मज़ाक ही क्यों उड़ाए, परन्तु आप धीरज छोड़िये। धीरज रखने पर कुछ समस्याएँ अधिक गंभीर रूप लेने लगती हैं।

मनुष्य धीरज खोते ही तनिक-सी देर में ही उचित-अनुचित, सत्य-असत्य का विवेक खो बैठता है, जिससे कोई भी कुकृत्य कर बैठता है, भले ही बाद में उसके लिए पछताना पड़े! वास्तव में, धीर पुरुष ही शान्त भाव धारण कर अशान्त, क्रोधी को शान्ति का दान देकर शान्त करने में सक्षम होता है।

क्रोधी से किनारा कर लें

अगर दूसरे को पुद्ध होते देख आप शान्त नहीं रह पाते, तो सबसे अच्छी तरकीब है कि आप क्रोधी के सामने से भाग जाईये। एकान्त में चले जाईये, क्योंकि क्रोधी व्यक्ति से क्रोधपूर्ण व्यवहार से क्रो पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता। सामने रहने से क्रोधाग्नि में घी पड़ता है। इस मौके पर मौके से टल जाना ही श्रेयस्कर है। रहेगा बाँस, बजेगी बाँसुरी! ग़लती से इस समय क्रोधी को शिक्षा देने की चेष्टा भी करें क्योंकि क्रो के समय उसमें शिक्षा ग्रहण करने की योग्यता नहीं रह पाती।

उस समय उसके हित की कही हुई बातों को भी वह उल्टी समझ कर उपेक्षा कर देता है। क्रो शान्त हो जाने पर उसे शान्ति से मीठे वचनों द्वारा जो भी शिक्षा दी जाती, उस पर वह विचार करता है, उसका असर अच्छा होता है।

क्षमा की प्रवृत्ति का विकास करें

जब हम दुनिया के पारस्परिक वैमनस्य के विषय में विचार करते हैं तो दिखाई देता है कि कितने व्यक्ति, कितने समाज, कितने पड़ोसी लगातार परस्पर प्रतिशोध की उत्कट भावना में जल रहे हैं। क्रो से क्रो बढ़ता है, वैर से वैर बढ़ता है यह तो सभी जानते हैं। वैर या क्रो की समाप्ति क्षमाभाव से ही होती है। क्रो बना रहेगा तो स्नेह, आत्मीयता, सौहार्द का समावेश कैसे संभव है!

सचमुच, ऐसे प्रतिशोध के दुर्विचार का परित्याग करके क्षमाभाव को अपनाने वाले ही महान हैं। उनका हृदय विशुद्ध पेम से भरा रहता है, सर्व के प्रति समानभाव से पेम रहता है, पेम में विषमता नहीं होती। अत वह सबका पिय बन जाता है।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है। 

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