परस्पर स्नेह बढ़ाने वाले मुख्य कारक

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 समय पर सहायता करना या सहयोग देना

अगर किसी को किसी अवसर पर हमारी सहायता और सहयोग की आवश्यकता हो और, विशेष कर, उस समय हमारी मदद के बिना उसका काम रूकता या खराब होता हो, तब यदि हम उसकी सहायता करें, तब उसका स्नेह जुटेगा और वह दुआ भी देगा तथा एहसान भी मानेगा इसके विपरीत, यदि उस समय हम उससे बहाने बनाने लगें, पीठ मोड़ लें या उसे असहाय छोड़ दें तब तो उसमें बदले की भावना या वैर भावना आना संभव है।

अत पारिवारिक जीवन में यदि एक-दूसरे के निकट-संबंधी होकर भी आड़े समय में भी एक-दूसरे को सहयोग नहीं देते और अपनी जान छ़ुड़ाने की कोशिश करते हैं तो स्नेह कैसे रहेगा? यह तो स्वार्थपरता और अमानुषिकता का प्रतीक है। यदि हम किसी को किसी भी प्रकार का स्थूल सहयोग किन्हीं कारणों से नहीं दे सकते तो कम-से-कम मानसिक तौर पर सहानुभूति तो प्रगट कर ही सकते हैं।

अगर हमारे पास धन, समय, शारीरिक सामर्थ्य, साधनों का अभाव है या हम नये कर्म-बन्धन बनाने के भाव से कुछ भी नहीं करना चाहते, तब भी राय तो दे सकते हैं। अन्य जिससे सहायता मिल सकती हो, उसकी ओर तो इशारा कर सकते हैं। विशेषकर यदि तन द्वारा किसी की विपत्ति-व्याधि-विघ्न दूर हो सकते हों तो हम शरीर द्वारा यदा-कदा थोड़ी बहुत सेवा तो कर सकते हैं? इसमें तो पुण्य-लाभ है।

किसी के गुण-कर्तव्य की उचित सराहना और उचित पोत्साहन

घर-परिवार में जिस सदस्य में जो विशेषतायें हैं और उन खूबियों के कारण वे जो विशेष कार्य करते हैं, उन योग्यताओं के बारे में हम सभी को उचित मात्रा में कुछ मित्र-जनों के सामने वर्णन कर देना चाहिये।

वर्ना वह व्यक्ति सोचेगा कि या तो हम शब्दों के इतने कंजूस हैं कि किसी के गुण देखकर हम कभी उनका ज़िक तक भी नहीं करते, या हम में उनके पति ईर्ष्या है कि हम उनकी योग्यताओं का इसलिये वर्णन नहीं करते कि लोग उनकी ओर अधिक झुकने लगें और या हम में मनुष्य के गुण-कर्म-कला की पहचान ही नहीं है और, इसलिये हम उनके मूल्य को ही नहीं जानते-पहचानते इससे तो स्नेह कम ही होगा।

वह व्यक्ति सोचेगा कि हमारा उससे प्यार ही नहीं है। और सचमुच प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हम उसकी इतनी अवहेलना क्यों करते हैं कि उसके किसी भी गुण के कद्रदान (योग्यता को महत्व की बात कहने वाले) नहीं हैं। यदि हमारा सच्चा प्यार है तो हमारे मुख से कभी तो उचित अवसर पर उचित महत्व-वर्णन के शब्द निकलने चाहिए।

इसी प्रकार, घर-परिवार में किसी का जन्म-दिन है तो ‘जन्म-दिन मुबारिक’ या उसका मुख मीठा कराने का कर्तव्य भी निभाना चाहिये। किसी कनिष्ठ भ्राता या छोटे बच्चे ने किसी पतिस्पर्धा में कुछ जीता है या परीक्षा में अच्छी श्रेणी प्रप्त की है तो उसे भी किसी प्रकार से उसकी सफलता की बधाई देनी चाहिये।

उसको यदि पोत्साहन देकर उसका उत्साह बढ़ाया जाता है तो वह समझता है कि वरिष्ठजनों का मुझ पर आशीर्वाद है, वही आगे भी मुझे सफलता प्रप्त कराएगा। उससे भविष्य में भी उसकी हिम्मत बढ़ती है और उसकी योग्यता में निखार आता है।

यदि हम किन्ही कारणों से किसी सदस्य के गुणों तथा योग्यताओं की चर्चा नहीं भी करते तो कम-से-कम हम अपने परिवार के किसी सदस्य की यों ही निन्दा तो किया करें। उनकी कमियों का ढिंढोरा पीटकर तो दूसरों को बताया करें।

ऐसा करने से स्नेह कम ही होगा या स्नेह की बजाय मन में घृणा तथा पीड़ा ही का अनुभव होगा। ज्ञानवान तथा योगियों या योगी बनना चाहने वालों को तो चाहिये कि वे गम्भीरता का गुण धारण करें और दूसरों की कमियों की बजाये अपनी कमियों को निकालने की ओर ध्यान दें। घर परिवार के किसी व्यक्ति में यदि कोई कमी है, तब उसे तो दूर करने या स्वयं सहयोग देकर उस कमी को पूरा करने का कर्तव्य करना चाहिये।

अधिक अपेक्षायें या माँगें रखना

जो व्यक्ति दूसरों से कई आशाएं, इच्छाएं तथा मांगें अपने मन में भरे रहता है और एक-न-एक पूरी होने पर नाराज़ भी हो जाता है, तब उससे लोग भला प्रसन्न कैसे रहेंगे और वे उससे प्यार कैसे करेंगे? उससे तो सभी दूर भागेंगे क्योंकि वे सोचेंगे कि यह कुछ मांगना चाहता है। जिसकी इच्छाएं-तृष्णाएं पूरी ही नहीं होती होंगी, ऐसे इच्छाओं की अति वाले व्यक्ति से स्नेह होना तो कठिन है।

अत यदि हम चाहते हैं कि सबका हम से स्नेह हो और हमारा भी सभी से स्नेह हो तो हमारे जीवन में ‘सादगी’ और ‘सन्तुष्टता’ होनी चाहिये तथा दूसरों से कोई अधिक फरमाइश नहीं करनी चाहिये, चाह नहीं रखनी चाहिये। इच्छाओं वाले व्यक्ति का प्यार तो वस्तुओं से होता है और उसका मतलब तो अपनी आवश्यकतायें पूरी कराने से होता है, उनका दूसरों के साथ कैसा प्यार ओर उनसे क्या मतलब? कहा गया है कि-

मतलबी यार किसके? खाया, पीया और खिसके।

इसकी बजाए यदि स्नेह रूहानी होगा अर्थात् आत्मिक नाते से होगा तो वह स्थिर रहेगा। यदि किसी के रंग-रूप के कारण, इसके बटुवे में नोटों के कारण, उसकी बड़ी कुर्सी के कारण या किसी द्वारा कुछ अस्थायी मान-सम्मान मिलने के कारण किसी व्यक्ति का स्नेह है, तब तो वह स्नेह भी अस्थायी होगा।

यदि किसी से भोग-विलास का माल मिलने के कारण कोई व्यक्ति उससे स्नेह करता, तब वह तो वास्तव में उसका स्नेह उस व्यक्ति से नहीं है बल्कि भोग-रस या विलासिता के वस्तुओं से है और इनके कारण उसका उस व्यक्ति से लगाव है जो उसे यह सब देता है। उस लगाव में तो वह उस व्यक्ति में फंस जाता है और अब तो उसका मन उस व्यक्ति या वस्तुओं से निकलना ही कठिन है। जिस आकर्षण से मनुष्य अधीन हो जाये, इसको क्या स्नेह कहेंगे।

स्नेह तो शुद्ध मनोभाव का नाम है जो एक आत्मा का दूसरी आत्मा से है और जो ज्ञान-युक्त मर्यादा-युक्त और बन्धन-मुक्त है। वास्तव में ऐसा प्यारापन जिसमें न्यारापन भी हो, सच्चा स्नेह है। उस सच्चे से ही कुटुम्ब-परिवार स्वर्ग के समान बन सकता है।

घर का वातावरण

हमने जिन गुणों, मूल्यों या आदतों की यहां चर्चा की है, उनसे ही घर का अच्छा या बुरा वातावरण बनता है। वह वातावरण यदि आश्रम की तरह शान्ति, सादगी और रूहानियत से भरपूर हो तो वह घर आश्रम की तरह हो जाता है और उस गृहस्थ को गृहस्थ आश्रम कहते हैं। यदि वहां के सदस्यों में लौकिकता हो, देहाभिमान हो, स्थूल और राजसिक कार्य-व्यवहार का वातावरण हो तो वह गृहस्थ कहलाता है।

आश्रम शब्द उससे निकाल देना चाहिये। दोनों में क़ाफी अन्तर पड़ जाता है और उसका वहां के सदस्यों पर भी वैसा ही पभाव पड़ता है। हमारे मन की जो विचार-तरंगें होती हैं, वे व्यक्तियों और वातावरण को प्रभावित करती हैं। जिस वातावरण में परस्पर स्नेह हो, संबंधों में अलौकिकता हो, जोश और रोब होकर शान्ति और नम्रता हो, एक-दूसरे पर विश्वास हो, उस स्थान का वातावरण मनुष्य के मन में सात्त्विक विचार उत्पन्न करता है, उसके शरीर को भी विश्राम की तरह का अनुभव कराता है और देह तथा बुद्धि के विकास में सहायक होता है।

इसके विपरीत यदि वातावरण में सन्देह, मिथ्या अनुमान, जोश, रौब, लौकिकता, लगाव-झुकाव इत्यादि हो, वहां का वातावरण खुशी में कमी लाता है और नकारात्मक विचार उत्पन्न करता है। ऐसा घर-परिवार एक अस्पताल, सराय श्मशाम, दूकान, दंगल इत्यादि के जैसा वातावरण बना देता है।

जहां किस प्रकार की वार्ता हो और जिस तरह वर्णन हो, वहां का वैसा ही वार्तावर्णन (वातावरण) होता है वातावरण केवल जल-वायु या हरियाली और पुष्पावली ही से नहीं बना बल्कि मन की हरियाली और विचारों की पुष्पावली या सुगन्धी से भी बनता है।

जीव-शास्त्रा या वैज्ञानिकों ने पयोग करके देखा है कि मनुष्य की भाव-तरंगों का पौधों पर क्या पभाव पड़ता है। पयोगों से ये निष्कर्ष सामने आये कि यदि घर वाले यह सोचते हैं कि फ़लां पौधे बहुत अच्छे, सुन्दर, सुगन्धि वाले, शोभा बढ़ाने वाले और शुभ हैं तो पौधे इन विचार-तरंगों से बढ़ते हैं और यदि इसके विपरीत सोचा जाये तो वे मुर्झाना शुरू कर देते हैं और जल्दी ही नष्ट हो जाते हैं।

इस प्रकार सोचा जा सकता है कि मनुष्य के मनोभावों तथा विचार-तरंगों का वातावरण पर और वातावरण का भाव-तरंगों पर कितना पभाव पड़ता है। यहां तक कहा गया है कि पाचीन काल में ऋषि अपने आश्रमों में बैठे होते थे और उनके निकट ही शेर भी हिंसा के भाव को छोड़कर बैठ जाते या घूमते रहते थे। अत हमें चाहिये कि परिवार का हर व्यक्ति ऐसा ही सकारात्मक, शुद्ध, सात्त्विक, योग-युक्त भाव-तरंगें विनिसृत करें।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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