आज हम सब ये चाहते हैं कि हम परिवार में आपस में मिल-जुल कर रहें, प्यार से रहें, लेकिन देखने में ये आता है कि घर बनने की बजाय टूटते जा रहे हैं। बच्चे भी बड़े होकर जुदा हो जाना चाहते हैं । घर के वातावरण को केवल गृहस्थ आश्रम कहते हैं लेकिन आज घर एक सराए जैसा लगता है गृहस्थ आश्रम नहीं लगता। इसका एक कारण ये है कि समायोजन की कमी है। हम एक-दो से एडजस्ट नहीं कर पाते हैं।
आज हर एक समझता है कि आप एडजस्ट कीजिए लेकिन ये कोई नहीं चाहता कि मुझे एडजस्ट होने के लिए कहें, ये आज की सबसे बड़ी समस्या है। दूसरा, हर मनुष्य अपनी सहुलियत को देखता है कि मुझे किसमें सहुलियत है लेकिन दूसरे की सहुलियत की तरफ ध्यान नहीं देता– यही परिवारों के टूटने के कारण बन रहे हैं और तीसरा, हर पाणी अपनी आवश्यकता तो पूरी कराना चाहता है लेकिन दूसरे की आवश्यकताओं को नजरअन्दाज करना चाहता है।
आप स्वयं सोचिये कि जब इस पकार की दशा आयेगी तो परिवार टूटेंगे ही, जुड़ेंगे तो नहीं न। इसके साथ दूसरी बात आती है कि हर मनुष्य आज अपनी समस्याओं को पाथमिकता देता है, दूसरे की समस्याओं को सुनता तक नहीं और साथ-साथ अपनी इच्छा या पसन्द पूरी कराना चाहता है।
कई बार ऐसा लगता है कि दूसरे की बात भी ठीक है लेकिन ईर्ष्या व अभिमान के वश हम उसकी बात को नहीं मानना चाहते हैं, उसको नीचा दिखाना चाहते हैं। जब ऐसा वातावरण हो तो आप समझ सकते हैं कि उस वातावरण का क्या परिणाम होगा। वास्तविक रूप से वातावरण नाराजगी का बनेगा और उसके साथ ही अनबन।
साथ-साथ बैठे हैं लेकिन बातचीत नहीं हो रही है क्योंकि छोटी-छोटी बातों में झगड़ा होता रहता है जिस कारण मन भरा होता है और मन भरा होने के कारण कोई-न-कोई ऐसी बात निकलती है जो वातावरण को खराब कर देती है और फिर तनाव का-सा वातावरण बन जाता है। अब इसका हल क्या है?
इसका हल हमें अपने से ही प्ररम्भ करना होगा। दूसरों की बात अगर मानने योग्य है तो उस बात को भी मान्यता देनी चाहिए। जैसे कई बार पतंग उड़ाने के लिए उसे ढील देनी पड़ती है और कई बार उसे खींचना पड़ता है तो पतंग बहुत अच्छी उड़ती है।
जहाँ हमें ढील देनी होती है अगर वहाँ हम खींचने लग जायें और जहां खींचना होता है वहां हम ढील देने लग जायें तो वातावरण का बेलेन्स समाप्त हो जाता है। इसलिए अगर हमें दूसरों की बात ठीक लगे तो उसको मान्यता दे देनी चाहिए और अगर आप ये समझ्ते हैं कि आपकी बात ठीक है तो उस बात का औचित्य बता दीजिये कि मैंने जो बात कही वह ठीक है। फिर भी आपकी बात अगर कोई नहीं मानता है तो थोड़ा साक्षी बन जाओ क्योंकि मुझे घर को बनाना है, तोड़ना नहीं है।
इस वातावरण को संजोना है, इसे बिखेरना नहीं है। अब पश्न ये उठता है कि हम समायोजन क्यों करें?
आप देखिये कि आज सम्बन्ध है तो हम सब सामाजिक पाणी कहलाते हैं क्योंकि मनुष्य भी इस संसार में अकेला वास नहीं कर सकता। कप़ड़ा चाहिए, खाना चाहिए तो मुझे किसी–न-किसी के साथ सम्बन्ध जोड़ना पड़ेगा। घर से नहीं जोडूंगी तो भी दुकानदार के पास तो जायेंगे ही। अगर मेरी नेचर में कोध होगा तो मैं उससे झगड़ा करके आ जाऊंगी।
क्योंकि संस्कारों को तो हमने बदला नहीं है। इसलिए सम्बन्धों को निभाना ज़रूरी है क्योंकि सम्बन्ध तो मनुष्य को जोड़कर रखने ही पड़ते हैं जो समय पर काम आते हैं। मान लीजिए कि हम किसी से सम्बन्धों को तोड़ देते हैं, लेकिन किसी और से सम्बन्ध जोड़ते ही हैं क्योंकि सम्बन्धों के बिना तो हम नहीं रहेंगे। उनसे भी तो हमें एडजस्ट करना ही पड़ेगा। दो मनुष्य इस संसार में एक जैसे नहीं हैं।
आप देखिये कि हम सबमें एक के फीचर्स दूसरे से नहीं मिलते। जुड़वां बच्चे होंगे तो उनमें भी ये पता चल जायेगा कि ये बड़ा है और ये छोटा है। हमारी जो काया है ये हमारे संस्कारों के आधार पर होती है। जब शादी में पण्डित जी भी पति-पत्नी के गुणों को मिलाते हैं तो कहते हैं कि इतने गुण मिलते हैं और इतने नहीं मिलते। कितना भी आस-पास हों फिर भी थोड़ा बहुत अन्तर रह ही जाता है।
क्योंकि जो हिसाब-किताब कर्मों के हैं, कोई कष्ट रोग होना होगा तो हम क्या कर सकते हैं। कम-से-कम वातावरण को हम खराब न होने दें। सम्बन्धों को तोड़ने न दें इस आस पर कि एक दिन सामन्जस्य हो जायेगा। अगर तोड़ लिया तो फिर मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इसलिये हमेशा न्यारे और प्यारे रहो।
आज की दुनिया ऐसी है कि काम सब करो लेकिन ज़रा न्यारे रहो। होता ये है कि जब हम किसी के लिए कुछ करते हैं तो करने के बाद हम उससे कुछ चाहते हैं परन्तु जब वह चीज़ हमें मिलती नहीं है तो हमारी अवस्था बहुत खराब हो जाती है। अगर मैं समझता हूं कि जो मैं कर रहा हूं अपने आस-पास के वातावरण को श्रेष्ठ बनाने के लिए या अपने सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए कर रहा हूं तो किसी पकार की समस्या उत्पन्न नहीं हो सकती।
अब जो मैं कर रहा हूं उसका फल मुझे अवश्य मिलेगा। अगर कोई पाणी फल नहीं देता तो हमेशा प्रणी के द्वारा तो फल प्रप्त नहीं होता। ये मेरे कर्मों का फल है जो आज किसी प्रणी द्वारा प्रप्त नहीं हो रहा तो ये मत समझिये कि ये हमारे वर्तमान कर्म का ही फल है। आपने अच्छा किया और उन्होंने आपसे बुरा किया ये भी हो सकता है कि आपने किसी समय उसका बुरा किया हुआ हो वो बुरा बीज जो आपने बोया हुआ था लेकिन जब आप अच्छा कर रहे थे तो उस समय वो बोया हुआ बीज फूटने का समय आ गया।
आपने अच्छा किया लेकिन आपको मिला बुरा। उस समय आप कहते हो कि ये अच्छा करने का फल मिला है मुझे लेकिन आपके अच्छे कर्म का फल तो नहीं मिला आपका अच्छा किया हुआ तो जमा हो गया लेकिन जो आपका पहले का बुरा किया हुआ था उसका ही ये फल है जो आज चुक्तू हो गया और कई बार ये अक्समात् हो जाता है और कई बार हम गलती में आ जाते हैं कि अच्छा जो मनुष्य होता है वो दुःख उठाता है और बुरा जो होता है वो फला-फूला जाता है। ये बिल्कुल गलत बात है।
पत्यक्ष में ऐसा दिखाई देता है लेकिन हम कर्मों की गति को पूरी तरह जानते नहीं हैं इसलिए हम ऐसा सोचते हैं। मनुष्य जो भी कर्म करता है और जब आत्मा शरीर छोड़कर चली जाती है तो उसके कर्म ही उसके साथ जाते हैं वो उसको छोड़ेंगे नहीं अर्थात् मुझे उस कर्म का दण्ड भोगना ही है चाहे किसी भी पाणी द्वारा ही भोगना पड़े।
इसलिए मैं कितना भी उसका अच्छा करूँ तब भी मुझ दण्ड भोगना ही मिलेगी। इसलिए हमें किसी को भी अपना शत्रु नहीं समझना चाहिए क्योंकि वास्तव में वह मेरा शत्रु नहीं है लेकिन मेरे कर्म ही मेरे शत्रु हैं। इसीलिए कहा जाता है कि इंसान न किसी का मित्र है न ही शत्रु है उसके अपने ही कर्म मित्र हैं और अपने ही कर्म शत्रु हैं। हम कई बार दूसरे को अपना शत्रु मानते हैं और कईयों को अपना मित्र मान लेते हैं तो हमें इस बात का ध्यान रखना है कि हमें न्यारा रहना है।
जब कोई अच्छा कर्म करो तो न्यारे हो जाओ इतने न्यारे हो जाओं कि सबके प्यारे बन जाओ। अब मान लीजिए कि आपने किसी का अच्छा किया लेकिन उसने आपका नहीं किया तो उसको बहुत खुशी होगी उसको लगेगा कि आप बहुत अच्छे हो तो चलो कम-से-कम प्यार के पात्र तो बने। एक समय फिर ऐसा आयेगा कि आपकी उसके साथ निकटता हो जायेगी।
इस पर एक उदाहरण है कमल के फूल का। कमल के फूल को ही देख लीजिए कि जल में होता है लेकिन जल से अलग है उसके साथ कमल ककड़ी भी है, कमल डोडे भी हैं कमल के साथ पूरा परिवार है लेकिन फिर भी न्यारा है। इसी पकार परमात्मा भी हम बच्चों को कहते हैं कि बच्चे, रहो भले परिवार में लेकिन अपनी हस्ती के साथ रहो।
आपके जो कर्म हैं वहीं आपको फल देंगे आप ओरों के कारण अपनी व्यक्तिगत हस्ती को मत भूलो। हम अपनी पहचान को स्वयं ही समाप्त कर देते हैं। इस जीवन को एक यात्रा समझेंगे तो यात्रा में कोई साथी ऐसा मिलता है जो किसी स्टेशन पर जल्दी ही उतर जाता है और कोई यात्री फिर ऐसा भी मिलता है जो लम्बे रास्ते तक साथ देता है और कोई वहां उतरता है जहां हम उतरते हैं कोई ऐसा होता है जो रास्ते में थोड़ा परेशान करता है कोई ऐसा भी होता है जो हमारी सहायता भी करता है।
सब यात्री भिन्न-भिन्न पकार के होते हैं और जीवन एक लम्बी यात्रा है इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन हमें ये समझ लेना चाहिए कि हम सभी यात्री हैं लेकिन हम अपने आपको सम्बन्ध में ले जाते हैं ये वास्तव में सम्बन्ध नहीं होते हैं बल्कि हमारे किए हुए कर्मों के बंधन होते हैं जो हमने बांधे हुए होते हैं। सम्बन्ध समझने से दुःख होता है।
मां का पृत्र के साथ सम्बन्ध है। मां बच्चे का पेट भरने के लिए मेहनत मजदूरी करती है तो क्या ये बंधन नहीं है, बंधी हुई है न। वो छोड़ नहीं सकती है। उसे करना ही पड़ेगा। तो कई बार हम समझते हैं कि ये हमारे सम्बन्ध हैं लेकिन ये हमारे सम्बन्ध नहीं हैं, हमारे बंधन है। तो जैसा-जैसा कर्म किया होता उसके अनुसार हर कोई फल भोगता है हम इस फिलॉसफी को भूल जाते हैं।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।