विश्व में सुसम्वादिता, सामंजस्य एवं सद्भावना बनाये रखने के लिये.....

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हम देखते हैं कि आज विश्व में मनुष्य का केवल प्रकृति ही से तालमेल भंग नहीं हो चुका और केवल पाकृतिक पर्यावरण ही प्रदूषित नहीं हो चुका बल्कि मनुष्य-समाज में भी प्रदूषण बढ़ता गया है। आज विभिन्न धर्मावलम्बियों, सम्पदायों, जातियों, भाषा-भाषियों इत्यादि में भी पारस्परिक मेलजोल और सद्भावना में कमी आयी है।

पिछले दिनों मजहब के आधार पर भारत में जो हत्याएं हुई हैं तथा संसार में अन्य स्थानों पर भी रंग-भेद, देश-भेद या धर्म-भेद के आधार पर जो घृणा, द्वेष इत्यादि का वातावरण बना हुआ है, उससे स्पष्ट है कि देशों, धर्मों, जातियों इत्यादि में भी तालमेल, मेल-मिलाप या आपसी सामन्जस्य बिगड़ता जा रहा है। आज यह अनबन इतना भयावह रूप लेती जा रही है कि कानून और शान्ति बनाये रखना भी कठिन हो गया है और समाज के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए ज़रूरी हो गया है कि फिर से आपसी स्नेह-सम्बन्धों को बढ़ाया जाये।

समाज में सामंजस्य या संवादिता के कई पहलू हैं। परन्तु सबसे पहले मानव जीवन से सम्बन्धित पहलू पर चर्चा करना आवश्यक महसूस होता है क्योंकि यदि ये ठीक हो जाये तो बाकी सभी पहलू एकता, सहयोग और संगठन के बल से ठीक किये जा सकते हैं।

यदि इस दृष्टि से विचार करें तो मानव-समाज की इकाई तो परिवार ही है। मनुष्य के जीवन की नींव तो बचपन में पड़ जाती है और आप सभी मानेंगे कि उस नींव के डालने में तो महिला वर्ग का बहुत महत्त्वपूर्ण रोल है। आप देखेंगे कि परिवार में तथा विश्व में तालमेल अथवा अनुरूपता के लिये मुख्यत सद्गुणों या मूल्यों का होना ज़रूरी है। पहले इन मूल्यों की चर्चा परिवार के संदर्भ में कर लें तो अच्छा रहेगा।

प्यार, स्नेह या सौहार्द प्यार के बिना तो जीवन ही बेकार है। जैसे गन्ने में रस हो तो वह मात्र छिलका है, वैसे ही प्यार के बिना जीवन भी नीरस है। अब यदि कोई बचपन में ही अपने छोटे या बड़े बहन-भाइयों तथा अड़ौसी-पड़ौसियों के साथ प्यार से जीना सीख जाये और मन-मुटाव, लडाई-झगड़ा इत्यादि करे तो आगे चलकर उसके जीवन में पाय यह गुण उसे व्यवहार में आयेगा।

यदि बचपन में ही उसने ईर्ष्या-द्वेष, छीना-झपटी, रोब-आंतक और जिद्द से काम निकालने की आदत डाल ली या उसे ज़रूरत से ज़्यादा लाड़-प्यार की आदत पड़ गयी तो वह आगे चलकर भी समाज में अपनी इन्हीं आदतों के बल पर जीयेगा और एक समस्या बन जायेगा। अत आवश्यकता इस बात की है कि माता से उसे प्यार मिले परन्तु उसे उचित मार्ग-दर्शन भी साथ मिले जिससे कि वे दूसरों के साथ भी मेल-मिलाप से, सहभागी होकर जीवन जी सके।

न्याय, ईमानदारी और संवेदनशीलता हार्मनी के लिये दूसरा आवश्यक गुण है न्याय। यदि कोई किसी के साथ जानबूझ कर अन्याय करता रहेगा तो पीड़ित व्यक्ति आखिर बगावत कर बैठेगा, कानून हाथ में उठा लेगा और अनुशासन या मर्यादा तोड़ डालेगा। वह बड़े-छोटे के लिहाज या मान-सम्मान को तोड़ देगा।

यदि लोग उस विषय में कहेंगे कि वह अनुशासन भंग करता है या बड़ों का सम्मान नहीं करता है तो वास्तव में वह कहना सही नहीं होगा क्योंकि ग़लती केवल उसकी नहीं है, अन्याय करने वालों की भी है। अत यदि घर की चारदीवारी में न्याय हो, सभी बच्चों के साथ एक जैसा व्यवहार हो, पक्षपात हो, एक बच्चे की सदा पशंसा और दूसरे का सदा तिरस्कार का वातावरण हो और सभी को एक-दूसरों के हितों तथा अधिकारों के पति ईमानदारी सिखाई जाये तो आगे चलकर यही व्यक्ति समाज में दूसरे के अधिकार नहीं छीनेंगे।

वे ईमानदारी से व्यवहार करेंगे। दूसरों की चीज़ को ह़ड़पने की बात कभी सोचेंगे भी नहीं। बल्कि वे दूसरों की आवश्यकताओं के प्रति भी संवदेनशील होंगे और इसलिये समाज में उच्छृंखलता, संघर्ष और बंटवारे का रगड़ा-झगड़ा नहीं होगा या कम होगा। इसमें महिलाओं का तो पाथमिक रोल है।

सहयोग और सहानुभूति हार्मनी अथवा आपसी तालमेल तथा जुट-जुटाव के लिए एक ज़रूरी सद्गुण है सहयोग और सहानुभूति। अगर व्यक्ति सहयोग देने के बजाये दूसरों से वैर-विरोध करता है, उनके कार्य में बाधा उपस्थित करता है तो समाज में मनमुटाव और झगड़ा बढ़ेगा ही। सहयोग दो और सहयोग लो इस रीति और नीति से ही संसार चलता है। 

दूसरों के कार्य में रोड़ा अटकाने वाला, अड़ियल स्वभाव का व्यक्ति तो चलते कार्य भी बन्द करा के हड़ताल ही करायेगा। अत घर-परिवार में बाल्यकाल में ही यदि सहयोग और सहानभूति के सद्गुणों का बीजारोपण कर दिया जाये तो यह आगे चलकर फलता-फूलता है। इसमें तो माताएँ बहुत कुछ कर सकती हैं।

सेवा और सादगी दूसरों के सुख की बात सोचना एक बहुत महत्त्वपूर्ण चिन्तन है। केवल मैं सुखी होऊँ यह स्वार्थ है। दूसरें को सुख कैसे दूँ यह सेवा है, सहानुभूति है, सहयोग है। इसका अभ्यास अगर बचपन में ही आदत या स्वभाव बन जाये तो दूसरों को दुःखी देखकर कोई भी व्यक्ति हाथ-पर-हाथ रखकर बैठा नहीं रह सकता।

अगर माता बचपन में ही बच्चों में ये संस्कार भर दे कि अड़ौसी-पड़ौसी और घर-परिवार के लोगों के दुःख-दर्द को दूर करना मानव का कर्त्तव्य है वर्ना वह मानव कहलाने का अधिकारी ही नहीं है तो आगे चलकर भी यह संस्कार अपना रंग दिखायेगा और इससे परस्पर मेल-मिलाप बढ़ेगा, हार्मनी होगी। जिस समाज में लोग तंग दिल और स्वार्थी होते हैं, वे अपनी-अपनी ढपली बजाने में ही लगे रहते हैं।

वह समाज पिछड़ जाता है और उनकी स्वार्थपरता और खीचांतानी के कारण वे मैं और तुम के बंटवारे में ही पड़े रहते हैं। इसके लिये ज़रूरी है कि सेवाभाव जागृत किया जाये और जीवन में सादगी लायी जाये क्योंकि अपने जीवन में कुछ बचाने वाला ही दूसरे के लिये भी कुछ कर सकता है और प्रलोभन से छूट सकता है।

सह-अस्तित्व और सामंजस्य – परिवार में कई बार विचारों में भिन्नता होती है, संस्कारों में तो भिन्नता होती है। परन्तु परिवार में अलगाववाद को छोड़कर सामंजस्य बिठाने, एडजैस्ट करने की कोशिश होती है। अत परिवार में जलते-भुनते रहने के बजाय अगर खुशी-खुशी एक साथ मिल कर रहने, हाथ बटाने और सह-अस्तित्व का भाव बनाये रखने का अभ्यास डाला जाये तो ये भी आगे चलकर समाज में हार्मनी पैदा करने में सहायक होता है।

जीओ और जीने दो यह गुण यदि बचपन में ही पक्का हो जाये तो झगड़ा होगा ही नहीं। समाज में लोगों के विचार, आहर, आकृति, प्रकृति, सस्कार, संस्कृति, भाषा, वेशभूषा तो अलग-अलग हैं ही। इसके आधार पर नफरत करना तो निरर्थक है, यह तो रंग-बिरंगी फुलवाड़ी है, अलग-अलग क्यारियाँ हैं, अलग-अलग फूल हैं ये सोचकर सह-अस्तित्व की भावना बनी रहनी चाहिये।

अत अगर शुरू में ही यह पाठ पढ़ा दिया जाये कि एक तो यह छोटा परिवार है और विश्व एक बड़ा परिवार है। उस बड़े परिवार की सफलता के लिए ये छोटा परिवार टेनिंग सेंटर या शिक्षा स्थल है तो हार्मनी बने रहने का लक्ष्य सिद्द हो सकता है। बच्चों को समझाया जा सकता है कि समाज एक बड़ा परिवार इस दृष्टिकोण से है कि सभी ब्रह्मा और सरस्वती, एडम और ईव अथवा आदम और हव्वा के वंशज हैं।

हमारे पूर्वज एक हैं और हमारे आदि पिता और आदि माता के भी परमापिता एक परमात्मा ही हैं। अत हम सभी को मिल-जुलकर प्रम, प्यार, सहयोग और सहानुभूति से रहना चाहिये, यही सह-अस्तित्व है।

सहनशीलता और शुभभावना तथा शुभकामना घर-परिवार में भी अगर किन्हें के विचार नहीं मिलते या अगर कोई व्यक्ति उंची-नीची बात कर भी देता है तो यह समझकर कि यह हम सभी का घर है, हम सभी को यहाँ रहना है, हम सभी एक कुटुम्ब के सदस्य हैं, उसे बर्दाशत कर लिया जाता है और धीरज, गम्भीरता तथा सहनशीलता से काम लिया जाता है।

इससे सभी हंसते-खेलते आगे ब़ढ़ते हैं और एक-दूसरे को सहयोग देते हुए फिर जीवन यात्रा को तय करने में लग जाते हैं। वे एक-दूसरे के पति शुभभावना-शुभकामना बनाये रखते हैं। इसी प्रकार समाज या संसार रूपी वृहद परिवार में भी भिन्न-भिन्न रूप-रंग और वेशभूषा तथा बोलचाल वाले लोग हैं, उनकी भी किन्हीं बातों को सहने करके हमें सभी के साथ हँसते-बहलते आगे बढ़ते रहना है।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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