संस्कार परिवर्तन से संसार परिवर्तन

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एक देश में जेब कतरों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। प्रशासन द्वारा बहुत सख्ती बरती जाने पर भी उसमें कोई कमी नहीं हो रही थी। आखिर समस्या से निपटने के लिए, जेबकतरों के लिए फाँसी की कड़ी सजा का पावधान कर दिया गया। जब प्रथम अपराधी को सरेआम फाँसी दी जानी थी तो लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। उन्हें फाँसी को देखने की अनुमति इसलिए दी गई थी कि वे भय और दहशत से इस विकर्म को करने से बचेंगे। परन्तु जब भीड़ वापस लौट रही थी तो उसमें से आधे लोगों की जेबों पर हाथ साफ हो चुका था।

घटना एक बहुत बड़े सत्य का दिग्दर्शन करा रही है और वह सत्य है कि दबाव, भय, जुर्माना, मृत्युदण्ड आदि, मानव या मानव समूह को बुराई से अच्छाई की ओर ले जाने का सफल तरीका नहीं है। मानव के संस्कारों और कर्मों के परिष्कार का तरीका इससे भिन्न है। वह तरीका क्या है?

गलत संस्कारों का निर्माण जिस रीति से होता है, उनका संहार भी उसी रीति से होता है। हम जिस रस्सी के सहारे कुएँ में उतरते हैं, हमें बाहर भी वही रस्सी निकालती है। बुरे संस्कारों का निर्माण गलत संग, गन्दे खान-पान, अश्लील पठन-पाठन और अनैतिक वातावरण में होता है। इन्हें श्रेष्ठ बनाने के लिए श्रेष्ठ संग, सात्विक खान-पान, मूल्य आधारित आध्यात्मिक पठन-पाठन और नैतिक वातावरण की आवश्यकता है।

अपने चारों ओर हम जो भी कुछ देखते हैं उसको देखते ही हमारे मन में विचार उठते हैं, ये विचार कैसे हैं? इनसे हमें अपने संस्कारों के पकार का ज्ञान होता है। मान लीजिए, रास्ते जाती एक सुन्दर कन्या पर हमारी नजर पड़ी और विचार चला कि यह तो देवी जैसी सुन्दर है, मन्दिर की देवियों से मिलती-जुलती है, तो समझ लीजिए कि संस्कार अति उत्तम पकार के हैं, परन्तु इसके विपरीत यदि दैहिक आकर्षण का विचार चला तो समझ लीजिए कि विचार, काम-वासना से रंगे हुए और पतित हैं।

इसी पकार, किसी ने आपका मनचाहा कार्य नहीं किया और आपके मन में नफरत का गुबार उसके प्रति उमड़ने लगा तो समझिए कि आप अहंकार के वश हैं। परन्तु आपके मन में विचार आया कि कार्य तो होते ही रहते हैं पर मैं अपने स्नेह के संस्कार को क्यों खोउँ, तो समझिए कि आप सन्तुलित मन स्थिति के हैं। रोज के जीवन के आपसी व्यवहार, सम्बन्ध और जिम्मेवारियाँ निभाने में, हर किया के प्रति सकारात्मक पतिकिया, इस बात का प्रतीक है कि हमारे संस्कार उत्तम हैं।

संस्कार आत्मा की एक अति सूक्ष्म शक्ति है जो सदा इसमें गुप्त रूप में समाहित रहती ही है। मूल संस्कार आत्मा के पवित्र होते हैं। परन्तु समय और वातावरण के पभाव से इसमें अपवित्र संस्कार भी भर जाते हैं। संस्कारों का निर्माण संकल्पों से होता है और संकल्पों से कर्म बनते हैं। कर्म जैसा होगा वैसे पुन संस्कार बनेंगे। इस प्रकार संस्कार-संकल्प-कर्म-संस्कार का अनवरत चक्कर चलता रहता है।

संस्कार परिष्कार तब होगा जब विचार परिष्कार होगा। विचारों को श्रेष्ठ बनाने के लिए सही ज्ञान चाहिए। सत्य ज्ञान से सत्य विचार बनते हैं। जब हम ज्ञान कहते हैं तो उसमें हमारी मान्यताएँ, परम्पराएँ आदि सभी का समावेश हो जाता है क्योंकि मान्यताएँ जीवन को पभावित करती हैं।  मान्यताओं,धारणाओं, परम्पराओं से जीवन मूल्य जुड़े रहते हैं। 

मूल्यों का कवच ही वह स्थाई उपाय है जो आज की अनियत्रित हिंसा, पापाचार, दुराचार, हत्या, बलात्कार, रिश्वत, धोखा, फैशन, वासना आदि दुष्कार्यों से तथा विकारों की अग्नि से बचा सकता है। हर संस्कृति के आदिम मूल्य बहुत उँचे हैं और दैवी संस्कृति, जोकि सभी संस्कृतियों की जनक है, उसके मूल्यों का वर्णन तो अतुलनीय है।

विशुद्ध दैवी धारणाओं का ज्ञान, जो समय के अन्तराल में पाय लोप-सा हो चुका है, उसे स्वयं पिता परमात्मा, धरा पर अवतरित होकर पुनर्जीवित कर रहे हैं। हमें पुन अपनी उँचाइयों और महानताओं की स्मृति दिला रहे हैं। यह महान स्मृति ही महान विचारों, संस्कारों का निर्माण करती है।

परमात्मा पिता ने बताया है कि हमारे पूर्वज देवी-देवताऍं 16 कला सम्पूर्ण थे। उनका जीवन व्यवहार मांसल कियाओं पर नहीं वरन् आत्म दृष्टि-वृत्ति और स्मृति पर आधारित था। हर नारी देवी तुल्य और नर नारायण तुल्य था।  वहाँ नारी का स्थान अत्यन्त उच्च और सम्मानजनक था।

हिंसा, वासना, चोरी, झूठ का नामोनिशान तक था। मानव-मानव के बीच प्यार का तो वर्णन ही क्या, सभी पशु-पाणी भी अहिंसक थे। संकल्प में भी दुःख का लेन-देन नहीं होता था। सभी के संस्कार, विचार, व्यवहार अत्यन्त सुखदाई और पवित्र थे। ऐसे उच्च मूल्यों पर आधारित जीवन, हमारे पूर्वजों का था और अब पुन उन्हीं उच्च मूल्यों की स्थापना का समय पहुँचा है।

हमें तो सिर्प परमात्मा पिता द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण मात्र करना है। कई बार युवा भाई-बहनें यह पश्न उठाते हैं कि हम तो ऐसे बन जाएँगे परन्तु दूसरे नहीं बनते हैं तो हम क्या उपाय करें? इसके लिए परमात्मा शिव कहते हैं कि आप दूसरों के संस्कारों को देख कर कोध करो दुःखी होवो वरन् अपने को सुधारने का संकल्प लो।

जैसे एक गरीब को देख कर हम खुद गरीब बनने का संकल्प करके उसकी गरीबी दूर करने पर विचार करते हें। इसी प्रकार कामी-कोधी को देखकर हम उनके प्रभाव में क्यों आएँ? हम समझें कि यह दिव्यगुणों की सम्पदा में गरीब है, हमें इसे भी ज्ञान-दान करना है और उसको देखकर यह पेरणा लें कि हमें इस की तरह से जीवन व्यवहार में गुणों की गरीबी नहीं दिखानी है।

इस प्रकार जब हममें से प्रत्येक इस चारित्रिक परिष्कार की दृढ़ता को धारण करेगा तो श्रेष्ठ संसार का निर्माण होगा। याद रखें, यह पहल मुझ से ही होगी  और इसकी पूर्णता भी मेरी दृढ़ता से ही होगी।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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