युवा और आत्म-विश्वास

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युवाओं में  आत्म-विश्वास एक ऐसा शक्ति का स्त्रोत है जो ऊँचे-से-ऊँचे पर्वतों को पार करवा सकता है, समुद्र की गहराइयों  का आनन्द दिलवा सकता है, आकाश की ऊँचाइयों में पंछी समान बना सकता है, मानव को देव-तुल्य बना सकता है।

कहा जाता है कि रामदूत हनुमान जो स्वयं युवा शक्ति से असीम बल सम्पन्न थे। लेकिन समय पर वे अपनी शक्तियों को भूल जाते थे। जब कोई उनके बल की स्मृति दिलाता तो पुन उनमें आत्म-विश्वास उत्पन्न होता था और वे शक्ति सम्पन्न बन कठिन-से-कठिन कार्य को सहज रूप में सम्पन्न कर लेते थे।

असीम सागर को पार करने का साहस जब कोई नहीं कर सका तो जामवंत् के उत्साह दिलाने पर हनुमान में आत्म-विश्वास उत्पन्न हुआ और वे एक छलाँग लगा कर सागर पार चले गये तथा माया की लंका को जला डाला। यदि आप गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो पायेंगे कि आज का युवा अपना आत्म विश्वास खोता जा रहा है तथा हीनत्व की भावना से पीड़ित हैं।

सर्वशक्तिवान परमात्मा शिव की संतान युवा अमोघ शक्ति की भण्डार हैं। प्रत्येक युवा नर-नारी में असीम शक्ति विद्यमान है। लेकिन वे आत्म-विश्वास को खो बैठे हैं और दीन-हीन तथा असह्य बन गये हैं। यह केवल कोरी कल्पना नहीं है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि मानव मन की अधिकांश शक्तियाँ सुषुप्तावस्था में रहती हैं। यदि उन शक्तियों को जागृत कर उनका सदुपयोग किया जाये तो मनुष्य सहज ही महान कार्य कर सकता है।

ऐसी आत्म-शक्ति वाले युवा के लिए कुछ भी असम्भव नहीं रह जाता। हठयोगी जिस शक्ति की जागृति कठोर साधना द्वारा करता है। राजयोग सहज ही आत्म-विश्वास पैदा कर उस अमोघ शक्ति को जागृत कर लेता है। ऐसे दृष्टान्त पाये गये हैं कि किसी व्यक्ति को भ्रम हो गया कि मुझे साँप ने काट लिया है और उसे ज़हर आने लगा। वैज्ञानिक मानते हैं कि सर्पदंश, हैजे आदि में अधिकांश मृत्यु, हृदय की गति के रुक जाने से होती है।

रोगी को विश्वास हो जाता है कि अब वह नहीं बचेगा और फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो जाती है। इसके विपरीत असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्ति को केवल आत्म विश्वास के कारण पूर्ण निरोगी होते पाया गया है। पूर्ण आत्म-विश्वास से आत्मा की सारी सुषुप्त शक्तियाँ जागृत हो जाती हैं और वे सहज ही चमत्कारिक कार्य कर दिखाती हैं। 

महान सेनापति नेपालियन ने तो इसे कियान्वित करके भी दिखा दिया। जब उसके सैनिक पर्वत को पार करने का साहस खो बैठे तो उसने कहा था कि पर्वत है ही नहीं। वह चल पड़ा और सचमुच उसके सैनिक सहज ही उस पार पहुँच गये।

महान आत्माओं के साथ रहकर आध्यात्मिक साधना करना और माया से युद्ध करना सहज होता है। उनसे आत्म-विश्वास की किरणें विकीर्ण होती रहती हैं। जो दूसरों को भी अनुपाणित करती रहती हैं। स्थूल युद्ध में भी सेनापति का आत्म-विश्वास सेना को पेरणा पदान करता है। एक प्रसंग है कि सिन्धु नदी के उस पार सिक्खों और अफगानों में निर्णायक युद्ध हो रहा था।

रणजीत सिंह अपनी सेना के साथ इस पार अटक गये थे। नदी की तेज धारा में उतरने का साहस बड़े-बड़े योद्धा नहीं कर रहे थे। इस बाधा ने रणजीत सिंह के आत्म विश्वास को उद्वेलित किया। वे बोल उठे – जाके मन में झटक है, सोई अटक रहा और सिन्धु की तेज धारा में अपना घोड़ा दौड़ा दिया। कुछ ही समय में सारी सेना उस पार पहुँच गई और विजय माला उनके गले का हार बनी।

ऐसे भी अनेकानेक दृष्टांत मिलते हैं जब विजय के पति संशयग्रस्त सेनापति ने जीत को हार में परिणित कर दिया। भक्ति मार्ग में अज्ञानतावश कुछ लोग हीनता की भावना, नम्रता का द्योतक समझते हैं। वे प्रतिदिन मन्दिरों में जाकर पार्थना करते हैं मैं पतित खल, कामी। इस तरह परमात्मा को भी चुनौति देते हैं कि मुझ अधम का उद्धार करो तो जानूँ। वे अपने को तुच्छ, पतित, विकारी कहने में आनन्द का अनुभव करते हैं।

फलस्वरूप आज मनुष्य तुच्छ, पतित और विकारी बन गये हैं। हम जैसा अपने को कहते हैं वैसा ही समझने लगते हैं और फिर वैसा ही बन जाते हैं। अपने को पतित, विकारी कहते रहना नम्रता नहीं, हीनता का परिचायक है। क्या आपने कभी सुना है कि किसी पखर बुद्धि बालक ने कहा हो कि मैं कक्षा का सबसे मन्द बुद्धि विद्यार्थी हूँ? 

आध्यात्मिक उन्नति के लिये यह आवश्यक है कि हम अपने में तथा अपनी शक्तियों में विश्वास रखें और साहस तथा दृढ़तापूर्वक उच्चतम लक्ष्य की ओर बढ़ते चलें।

आत्म विश्वास डींग हाँकना नहीं है। वस्तुत झूठी आत्म-प्रशंसा वही करता है जिसके भीतर हीनता की भावना रहती है, भीतर की रिक्तता को बाहर की प्रशंसा से भरने या दयनीय प्रत्यन कर वह केवल हँसी का पात्र बनता है, आत्म निन्दा और आत्म श्लाघा एक ही सिक्के दो पहलू हैं और मानव मन की गहराई में विद्यमान हीनता की भावना के द्योतक हैं।

आत्म-विश्वास से भरा साधक इन दोनों पहलुओं से ऊपर उठा रहेगा। अपनी अमोघ शक्तियों को पहचान कर जितना वह स्वमान में रहता है उतना दुनिया उसका सम्मान करती है। जो सम्मान को चाहता है, सम्मान उससे दूर रहता है और जो सम्मान की उपेक्षा करता है, सम्मान उसके पीछे-पीछे घूमता है।

हीनता से ग्रस्त मनुष्यों ने दुनिया में जितना पाप किया है उतना किसी ने भी नहीं किया है। ऐसे मनुष्य भीतर से घोर अभावग्रस्त रहते हैं और उसकी पूर्ति बाहर से बनकर करते हैं। ईर्ष्या, द्वेष और परनिन्दा के मूल में यही भावना पाई जाती है।

अधिकांश अपराधी, हीनता की भावना से पीड़ित रहते हैं। लंगड़ा तैमूर लंग लाखों मनुष्यों का वध कराकर खोपड़ियों का ढेर लगाने में पैशाचिक आनन्द लेता था। हृदयहीन कूरता और पाश्विकता में अपना सानी नहीं रखने वाला चँगेज खाँ मिर्गी का रोगी था।

कहते हैं कि एक भिखारी अपने घर के टीले पर बैठ कर जीवन भर भीख माँगता रहा। कठिनाई से वह जीर्ण-शीर्ण वस्त्र पहन रूखा-सूखा खा पाता था। उसके मरने पर दान के पैसे से ही कफन का पबन्ध हो सका। लेकिन बाद में वह टीला खोदा गया तो उसके भीतर लाखों की स्वर्ण राशि मिली। अतुल सम्पदा के ऊपर बैठकर वह अभागा जीवन भर भीख माँगता रहा, लेकिन क्या यही दशा मानव मन की नहीं है?

मनुष्य के अन्दर अनन्त शक्तियाँ हैं लेकिन वह अपने को निर्बल समझ दीन बना हुआ है, उसे विश्वास भी नहीं होता कि वह इतनी आन्तरिक सम्पदा का स्वामी है, यदि इस अज्ञानता के पर्दे को हटाकर मनुष्य सच्चा आत्म विश्वास जागृत करे तो वह क्षण भर में भिखारी से सम्राट बन सकता है और हनुमान की तरह एक छलांग में इस विषय सागर से पार जा सकता है।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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