प्यार – जीवन का आधार

0

एक कटु व्यक्ति, अति कोधी व्यक्ति भी कहता हुआ सुना जाता है कि भाई, मुझसे प्यार से तो बात करो। यद्यपि वह यह सोचने की कभी भी कोशिश नहीं करता कि दूसरे भी तो मुझसे यही कामना करते होंगे। परन्तु इस बात से यह सत्य तो स्पष्ट है ही कि अन्तरात्मा प्यार की प्यासी है। प्यार मिलने पर वह कराह उठती है और प्यार के पीछे वह सर्वस्व लुटा देने पर भी तैयार रहती है।

चारों ओर नज़र दौड़ा कर देखें तो संसार प्यार से ही तो चल रहा है। जहाँ इस प्यार का अभाव है, वहीं तनाव है, वहीं टकराव है, वहीं स्वार्थ है और वहीं जीवन में बिखराव है। यदि इस विश्व को प्यार के पानी से सींचा जाए तो सचमुच ही यह विश्व वीरान हो जाए। प्यार एक बहुत बड़ी निधि है, प्यार एक बहुत अनुपम औषधि है जिससे मन में उपजित अनेक रोगों का उपचार किया जा सकता है।

एक बच्चा जन्म लेते ही माँ के प्यार में पलने लगता है। ज़रा संसार की कुछ घटनाओं की ओर नज़र दौड़ाएँ, जिन बच्चों को बचपन से किसी भी कारणवश माँ-बाप के प्यार से वंचित होना पड़ता है, उनकी मनोदशा जीवनभर कैसी रहती है! प्यार की भूख बीज के रूप में सदा ही विद्यमान देखने में आती है कहीं जीवन निराशा से भरा मिलता है तो कहीं जीवन में उदासी छा जाती है और वे कहते पाये जाते हैं कि काश, उन्हें माँ का प्यार मिला होता! कितना विशुद्ध है यह मातृ-पेम!

एक रोगी, डॉक्टर के पास जाते ही यदि पेम का व्यवहार पाता है तो उसके रोग की व्याकुलता तो कम-से-कम नष्ट हो ही जाती है। एक कर्मचारी यदि अपने अधिकारी का पेमपूर्ण व्यवहार पाता है तो उसकी कार्य-क्षमता तो बढ़ ही जाती है। इस प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम देखते हैं कि पेम मनुष्य जीवन का आधार है।

एक बच्चा जब दौड़ा-दौड़ा अपने बाप की गोद में जाने को होता है तो यदि उस समय बाप की प्रतिकिया विपरीत हो तो बच्चों के मन को ठेस लगती है। हम देखते हैं कि बच्चों के विकास में माँ-बाप का प्यार मुख्य भूमिका निभाता है, परन्तु यदि यह प्यार, मोह का रूप ले लेता है तो विकास में बाधक बन सकता है, बच्चों को स्वछन्द बना सकता है। इसलिए प्यार के सत्य-स्वरूप की जानकारी परमावश्यक है।

संसार में विभिन्न कार्यों को, विभिन्न विभागों को सुचारू रूप से चलाने के लिए सनेह की शक्ति की आवश्यकता दिखाई देती है। आज मनुष्य के रोब या अहं के कारण अनेक स्थानों पर निष्किया, अकर्मठता, गैर-ज़म्मेदारी तनाव दृष्टि गोचर होता है। इसलिए हमें चाहिए कि दूसरों की छोटी-मोटी गलती को देख कर हम स्नेहपूर्ण व्यवहार को छोड़ दें, नहीं तो हमारी भावना स्वयं हमारे लिए ही कठिनाई पैदा करेगी और जिससे निपटने के लिए फिर हमें अधिक शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी।

प्यार की शक्ति से किसी भी मनुष्य को बदला जा सकता है, उसे सहयोगी बनाया जा सकता है। परन्तु हमारे प्यार का आधार स्वार्थ हो और ही हमारा प्यार दिखावे-मात्र हो और नहीं दूसरों को ऐसा लगे कि इन्हें जब हमसे काम पड़ता है तो स्नेह दिखाते हैं, नहीं तो अपने अहं में ही चूर रहते हैं। स्वार्थवश उत्पन्न स्नेह सफलता पाप्त नहीं कराता। हमारा स्नेह हमारे अनादि ईश्वरीय सम्बन्ध पर आधारित हो तो यह स्नेह हमारे लिए एक बड़ी शक्ति के रूप में सिद्ध होगा।

परन्तु आज संसार में जिस ओर भी नज़र दौड़ाएँ, मनुष्य ने स्वार्थ को ही आधार बना लिया है। इस कारण आज प्यार भी नमक की तरह नमकीन हो चला है, प्यार में मिठास का अभाव होता जा रहा है और ये स्वार्थ एक बड़ी दीवार बनकर मनुष्य को एक-दूसरे से दूर करता जा रहा है। परिवारों की ओर ही दृष्टि दौड़ाएँ तो थोड़े ही समय के बाद सबका प्यार बिखरने लगता है, सभी अपनी-अपनी ढपली लेकर अपना-अपना राग अलापने लगते हैं। इसका कारण स्वार्थ है। अत यदि हम स्नेह को अविनाशी बनाना चाहते हैं तो स्वार्थ को इससे अलग कर दें।

मूलत प्यार को 3 भागों में बाँटा जा सकता है

1. विकृत प्यार जो दैहिक रूप या गुणों के आकर्षण से हो जाता है। जो आरम्भ में गहरा प्यार पतीत होता है परन्तु उस गहरे कुएँ की तरह जिसमें गिरकर मनुष्य चकनाचूर हो जाता है। जिसमें वायदे होते हैं, परन्तु जो आगे चलकर घृणा, ईर्ष्या वैमनस्य में बदल जाता है। आज अधिकतर चारों ओर यही बदलता प्यार दिखाई देता है। जिसका आधार मनुष्य-मन में उत्पन्न विकार हैं।

जो कभी भी तृप्त होने वाली अग्नि है तथा जो सच्चे प्यार को जला कर रख देती है। इसलिए इस प्यार के बाद तलाक होते हैं और फलस्वरूप जीवन में घोर अशान्ति छा जाती है। इसलिए इस प्यार को प्यार कहेंगे, जीवन का आधार बल्कि सही अर्थों में यह मार है। इस मार से मारा गया पाणी जीवन-भर सुख की श्वास नहीं ले पाता।

2. मोहवश उत्पन्न प्यार यह अपने-पन का प्यार है, जिसका आधार मोह है जो पत्येक परिवार में दिखाई देता है। परन्तु यह भी प्यार का बिगड़ा हुआ रूप है। यद्यपि आज इसे भी मनुष्य जीवन का आधार बना बैठे हैं परन्तु यह भी मनुष्य को दुःखी करता है, वियोग होने पर उदास करता है, मनुष्य चैन का अनुभव नहीं करता। इस प्यार में भी मनुष्य की एक-दूसरे से कुछ कामनाएँ होती हैं और पूर्ण होने पर अशान्ति पैदा होती है, निराशा अनुभव होती है। इसलिए मोहवश उत्पन्न प्यार भी वास्तव में प्यार नहीं बल्कि सूक्ष्म सार है।

3. अनासक्त स्नेह जो कि आत्मा का आत्मा से या आत्मा का परमात्मा से होता है, जिसमें स्वार्थ है, वासना और मोह। जिसमें मैं’ का भाव नहीं होता, सभी के पति अपनापन होता है। इस स्नेह की सीमाएँ नहीं होतीं स्नेह किसी भी कारणवश नष्ट नहीं होता।

यही स्नेह परमात्मा का भी हम आत्माओं से है जिस कारण वह प्यार का सागर जाना जाता है। इस प्यार में परमानन्द है, परमसुख है और अथाह शान्ति है।

योगियों के मन में इसी सनेह का रस पवाहित रहता है। यह स्नेह ही उनहें स्थिर-चित्त रखता है, उन्हें सबका स्नेही बनाये रखता है। आज विश्व को इसी स्नेह की आवश्यकता है। यही स्नेह मनुष्य का ही नहीं, अब सम्पूर्ण विश्व का आधार है।

ईश्वर-कृत राजयोग इसी कला का सृजन करता है। राजयोग का आधार भी यही प्यार है और इससे वृद्धि भी इसी प्यार की होती है। अत ऐसा सुखदायक सच्चा पेम सीखने के लिए राजयोगी बनो।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है। 

Tags

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top