तुम हो प्रेम की भरपूर गंगा

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आज समाज में बंधुत्व और एकाता के अभाव के कारण सर्वत्र स्वार्थ और आपाधापी मची हुई है। मनुष्य धोखा देकर कुटिलता से अपना काम बना लेना चाहता है। एक-दूसरे के प्रति एक प्रकार का अविश्वास-सा छाया हुआ है। तनिक-सी बात में मन में कोध उत्पन्न हो उठता है, सन्तोष एवं शान्ति के दर्शन तक नहीं होते और झूठी अकड़ में धन, बल एवं प्रभुतव का अभिमान करते हुए ईर्ष्या-द्वेष की आग में जलते रहते हैं और दूसरों पर दोषारोपण करने में तनिक भी नहीं चूकते।

यदि उस आन्तरिक कुटिलता का परित्याग करके एकता और बन्धुतव के सरल विमल भावों को बढ़ायें और सर्वत्र सर्व में आत्मा के दर्शन करें तो समाज में, घर-घर में, पान्त-पान्त में पेम, मृदुता और सहानुभूति की मंजुल धारा प्रवाहित हो उठेगी। हृदय की पवित्रता और मानवीय पेम जैसी सद्भावनाएँ ही मनुष्य के स्तर को ऊंtचा उठाती हैं। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति जीवन रूपी यात्रा में सबसे प्रेम का सम्बन्ध रखता हुआ अपनी यात्रा को सुखपूर्वक पूरी करता है।

प्रेम जीवन का सौरभ है

प्रेम जीवन का वह सौरभ है, जो सारे सम्बन्धों को मधुमय बना देता है। प्रेम ही हमारे जीवन का सौन्दर्य है, माधुर्य है। प्रेम प्रभु की बहुमूल्य देन है, संसार का नियमित रूप से चलना इसी पेम पर ही निर्भर है। पारस्परिक सच्ची मित्रता के रूप में हम प्रेम का ही तो आदान-प्रदान करते हैं। प्रेम ही ऐसी वस्तु है जिससे सुख का अनुभव होता है। विश्व की एकता के सामने सबसे प्रेम ही हमारा आदर्श है। प्रेम से ही हम देवत्व की ओर अग्रसर होते हैं। इसलिए भावविभोर होकर किसी ने कहा है कि God is love.

प्रेम की मात्रा क्यों घटती है?

मनुष्य के पाणीमात्र से प्रेम करना चाहए, लेकिन वह वास्तविक प्रेम उसी से कर सकता है जिसमें किसी तरह की कोई बुराई या खामी हो। अत कोई ऐसी चीज़्ज़ जरूर होनी चाहिए जो सर्वथा निर्दोष एवं पवित्र हो। लेकिन मनुष्य किसी पकार का दोष अनुभव करता है तो प्रेम की मात्रा कम हो जाती है। इसके प्रधान कारण हैं

निन्दा-चुगली करने से अपने से विद्या, बुद्धि, धन आदि में ऊँची स्थिति वालों की अथवा किसी की भी निन्दा तथा दूसरों की चुगली करना मनुष्य का एक विकार है। ऐसा करने से द्वोष विरोध बढ़ता है। ऐसा कार्य करो जिससे द्वेष नहीं, प्रेम बढ़े। जो व्यक्ति सदा दूसरों की निन्दा करता है, वह चुपचाप अपने बड़प्पन का ढोंग करता है।

निन्दा तो स्वयं मनुष्य की अपनी कमज़ोरी का परिचायक दोष है। दूसरों की खराबियाँ निकालते हमारा अन्तकरण कालिमा से भर जाता है। हमें सर्वत्र बुराई-ही-बुराई दृष्टिगोचर होती है। हमारे सद्गुणों का ह्रास होने लगता है और मन कुपवृत्तियों, घृणित भावों से भर जाता है। यदि हम संसार में पारस्परिक मेल और मधुर सम्बन्ध कायम रखना चाहते हैं तो निन्दा-चुगली करने की प्रवृत्ति को त्याग दें।

वैर की भावना से – वैर एक अग्नि है, जो अन्दर-ही-अन्दर मनुष्य को जलाती रहती है। दूसरों के प्रति वैरभाव रखने से मानस-क्षेत्र में उत्तेजना और असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। हम जिन व्यक्तियों को शत्रु मानते हुए घृणा करते हैं, उन्हें याद कर अपने ऊपर हावी कर लेते हैं। मन में उन व्यक्तियों या शत्रुओं के प्रति गुप्त भय बना रहता है।

शत्रु भाव हमारी भूख बंद कर देता है, नींद भंग हो जाती है, परिणामत हमारा स्वास्थ्य और प्रसन्नता सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं। अत वैर भाव त्याग कर पाणीमात्र के प्रति पेम सहानुभूति दिखलाईए।

स्वार्थ भाव रहने से जब मनुष्य कर्म करता है ता यही सोचता है कि इससे मुझे क्या मिलेगा। स्वार्थ भाव से ही एक-दूसरे से किसी प्रकार का सुख लेने की चाह रखता है। लेकिन किसी कारण से स्वार्थ में थोड़ी-सी भी कमी आई कि वह पारिवारिक जनों को भी पराये मान बैठता है, लड़ने-झगड़ने को उतारू हो जाता है। जीवन के प्रत्येक व्यवहार में स्वार्थवश अनैतिकता घुस गई है।

जब तक मनुष्य संसार में कुछ लेने की आशा रखता है, तब तक वह कभी सुखी नहीं हो सकता क्योंकि संसार अनित्य और क्षणभंगुर है। इस रहस्य को समझ कर जो व्यक्ति किसी से कुछ नहीं चाहता, सबकी सेवा करता रहता है, उसके बदले में कुछ नहीं लेता, वह सदैव प्रसन्न रहता है, सभी उससे पेम करते हैं। हमारी सारी किया स्वार्थरहित हो, किसी भी प्रकार का अहंकार, स्वार्थ, आसक्ति हो।

तिरस्कार या अपमान से  दूसरे में दोष दिखने के कारण सदा उसके प्रति तुच्छा भावनावश तिरस्कार करते हैं। वास्तव में तुम्हारी द्वेष बुद्धि उसके मन में भी तुम्हारे प्रति द्वेष पैदा कर देती है। इस प्रकार तुम द्वेष का बड़ा दुरुह जाल बुन लेते हो और उसमें फँसकर सदा दुःखी रहते हो। अभिमान एक झूठा नशा है, जिसके मद से किसी की कटु आलोचना करना, रूखे तथा कठोर शब्दों के द्वारा पीड़ा पहुँचाना, व्यंग तथा कटाक्ष करना यथार्थ नहीं है।

ऐसे विचार या भाव मानव जीवन की शान्ति और आनन्द को नष्ट कर देते हैं, इनसे विवेक शक्ति नष्ट हो जाती है, विचार का सन्तुलन मिट जाता है। मनुष्य अपना हित सोचने में सर्वपथा असमर्थ होकर अपने ही हाथों अपने लिये कब्र खोदने में लग जाता है। किसी को दूसरे की तुना कर अभिमान नहीं करना चाहिए। कंस बड़ा अभिमानी राजा था, उसका अभिमान स्वयं श्रीकृष्ण ने खण्डित किया था।

इस प्रकार के अनेकों बड़े-बड़े अभिमानी राजाओं और शक्ति के मद में चूर रहने वालों का गर्व चूर-चूर हुआ है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह मनुष्य की गिरावट का सूचक है।

प्रेम की मात्रा कैसे बढ़ाएँ

आज तक जो भी पूरता, घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, निराशा, कटुता, पतिशोध की भावना और परनिन्दा के विचार मनुष्य के हृदय में रहे हैं, सबको धो-बहा कर हृदय को प्रेम और सहानुभूति से भरपूर करें क्योंकि यही परमात्मा हमसे चाहते हैं।

ऐसे श्रेष्ठतम् लक्ष्य की ओर अग्रसर होने के लिए आवश्यक धारणाएँ

विश्व-बंधुत्व की भावना बढ़ाएँ मानव जीवन का सही अर्थ – सबमें आत्म-भाव सबमें प्रेम । ऐसे व्यक्ति का सम्पूर्ण मानव जगत परिवार होता है। वह दूसरों का दुःख देखकर दुःखी और सुख देखकर सुखी होता है।

आतयता की भावना रखने से किसी भी व्यक्ति में अपने से अधिक कोई भी अच्छी बात या विशेषता देखकर मन प्रफुल्लित होगा, दूसरों की उन्नति में बाधक नहीं लेकिन सहायक बनेंगे। ऐसे व्यक्ति की बुद्धि सदा सन्तुलित सम रहती है, वह अपना जीवन लोक-हितकारी कार्यों में लगाता है।

वाणी से मधुरता बरसाएँ मधुर भाषण और अपनी बातचीत में सुखद प्रयोग एक ऐसी शक्ति, है, जो सेवा फलदायक है। मधुर शब्दावली आपको सदैव लोगों का प्यारा बनायेगी। व्यापार, वाणिज्य, नौकरी, सार्वजनिक सम्बन्ध, परिवार तथा इष्ट-मित्र सभी में मधुर भाषण श्रेष्ठ फल देने वाला है। मधुर बोल के साथ-साथ हित-भावना भी अवश्य होनी चाहिए।

अन्याय के प्रति सतर्प रहकर सर्वत्र मधुरता बरसाते रहिये। मीठे स्वभाव और प्यार-भरी बातों के कारण जो भी संसर्ग में आता है, उससे अत्यन्त मधुरता और आत्मीयता से वार्तालाप करता है। मधुर शब्दों के प्रयोग से दूसरा व्यक्ति आपको कठोर बात भी सहन कर जाता है। इसलिए कहा है – वशीकरन एक मंत्र है तज दे वचन कठोर।

मैत्रीभाव को बढ़ाते चलें मैत्रीभाव का अर्थ है यह मान लेना कि मेरा कोई शत्रु नहीं है, मेरी सबसे मित्रता है, मैं सबको मित्रभाव से ही देखता हूँ, मित्रता का ही व्यवहार करता हूँ। मैं सबका मित्र हूँ, सब मेरे मित्र और हितैषी हैं। दूसरों को सुख पहूंचाने का प्रयत्न करते रहोगे तो तुम्हारे वो साधना उत्तरोत्तर बढ़ते रहेंगे। तुम्हारे अन्दर दूसरों को सुख पहूंचाने की प्रवृत्ति और शक्ति भी बढ़ेगी। सबका उपकार करो, इसी भावना से अपने व्यक्तित्व को विशाल करना है।

आप किसी शत्रु को मित्र बनाना चाहते हैं तो उसके गुण देखकर उसकी सच्ची प्रशंसा कीजिये, उसके प्रति सम्मान प्रदर्शित करें तथा उसकी भलाई कीजिये। उस प्रसंग को भूल जाईये जिसके कारण आपके मन में उसके प्रति विरोधी भाव उत्पन्न हुए थे। मैत्रीभाव से ही बदला लेने की भावना, नफरत की भावना, निष्ठुरता की भावना आदि सब खत्म हो जाती है।

प्रभु-प्रेम में लीन रहें परमात्मा प्रेम के अगाध सागर हैं, वे सबके प्रेमी, सहृदय और रक्षक हैं। प्रभु हमारी स्नेहमयी माँ भी है, जिसका हृदय स्वभाव से ही अपेन बच्चों के प्रति स्नेह से भरा रहता है। उनके प्रति हमारे हृदय में भी अतुलनीय प्रेम हो, ऐसा प्रेम ही भगवान की अखण्ड और मधुर सुखदायी स्मृति कराता है, जिससे हम स्वयं को प्रेम के सागर में समाए हुए अनुभव करते हैं।

गंगा और समुद्र मिलकर एक से हो जाते हैं। किन्तु भगवान और अनन्य प्रेमी योगी आत्माओं का दिव्य मिलन इनसे भी विलक्षण और उत्कृष्ट है। इस अभ्यास को बढ़ाते रहें तो स्वत ही हमारे हृदय में सर्व के प्रति प्रेम की वृद्धि होती रहेगी।

प्रेम की गंगा बहाते चलो हे आत्मन्, तुम प्रेम सागर परमात्मा से निकली हुई प्रेम की चेतन भरपूर गंगा हो, तुम्हारे हृदय में प्रेम की धारा पति पल बिना विकल्प के उमड़ती रहे, जिससे जगत की प्रेम की प्यासी आत्माएँ प्रेमामृत का सेवन करके स्वस्थ, सबल और पाणवान बनें। तुम्हारे विलक्षण व्यक्त्ति्व की चुम्बकीय तरंगें प्रत्येक व्यक्ति् के मानस को स्पंदित, तरंगित और आनन्दित कर दें। प्रेम ऐसा रस है जो सारी नीरसता का नाश करके जीवन को रसमय बनाता है।

तुम्हारी सदा यही भावना रहे कि मेरा ऐसा विशाल हृदय हो जिसमें सारा संसार समा सके और जो इतना उदार हो कि केवल उनको प्यार करे, जो मुझे प्यार करते हैं, बल्कि उनके प्रति भी करुणाशील बना रहे जो मेरे प्रति सद्भावना नहीं रखते। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व के जनमानस को एक सूत्र में संजोकर एक-दूसरे के परस्पर निकट लाना है। सचमुच यह गीत की पंक्तियाँ मन को बहुत भाती हैं

ज्योत से ज्योत जगाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है। 

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