नारी को स्वभाव से कोमल, अबला, भीरू, पराढ़श्रित माना गया है पर वास्तव में ये संस्कार उसे कलियुगी समाज द्वारा प्रदत्त हैं। निरन्तर इसी स्थिति में रहने के कारण उसने इसी स्वरूप को स्वीकार कर लिया है।
उदाहरण स्वरूप रोम में कैदियों को एक ऐसे बन्द कमरे में रखा जाता था जहाँ रोशनी भी नहीं पहुँचती थी जब उन्हें रिहा किया जाता तो वे पागलों की तरह दौड़ते थे और कहते थे, हमें रोशनी नामंजूर है। और भगवान से प्रार्थना करते थे, हम अन्धेरें में ही रहना चाहते हैं, ताकि हमारी आँखों की रोशनी बनी रह सके। यही स्थिति नारी के साथ हुई।
इतिहास पर नज़र डालने पर हम पाते हैं कि प्राचीनकाल में नारी की स्थिति काफी उच्च, श्रेष्ठ थी। वह देवी थी, शक्ति थी, पूज्या थी, पुरुष से भी अधिक सम्मान उसे प्राप्त था। राधे-कृष्ण, सीता-राम इसी परम्परा के स्वरूप हैं। वह युग लिंग के आधार पर भेद करने वाला नहीं, परन्तु आत्मिक स्थिति का युग था।
अतः उस समय नारी का कोमलांगी अथवा अबला नहीं लेकिन शक्ति स्वरूप प्रकट हुआ, इसी कारण आज भी पुरुष शक्ति प्राप्त करने लिये दुर्गा, काली, अम्बा की पूजा करते हैं। जो नारी का ही आध्यात्मिक रूप से सशक्त स्वरूप है लेकिन मध्यकाल तक आते आते स्थितियों में परिवर्तन होने लगा। देव संस्कृति धीरे-धीरे हिन्दू संस्कृति का रूप लेने लगी।
आत्मिक स्तर गिरा और उसका स्थान दैहिक स्मृतियाँ लेने लगीं। नारी की शारीरिक संरचना कोमल होने के कारण उसका समाज में स्थान बदलने लगा। वह नारी जो पूज्य थी अब उसे भोग्या के रूप में देखा जाने लगा। अतः अब असुरक्षा एवं अनिश्चितता की भावनायें उसमें उत्पन्न होने लगी। वह आत्मनिर्भर की बजाए, पराधीन स्थिति में चली गई।
कई धर्म पण्डितों ने उसे नारी नर्प का द्वार या ताड़न की अधिकारी घोषित कर दिया। जिससे वह अपने आत्म सम्मान को खोने लगी। धीरे-धीरे लड़की को परिवार के लिये बोझ समझा। उसे अशिक्षित रखकर, भेदभाव पूर्ण व्यवहार कर प्रताड़ित किया जाने लगा। मुस्लिम शासन के दौरान प्रारम्भ हुई पर्दा प्रथा ने उसे घर की चार दीवारी में कैद कर दिया। परिवारों में दिन रात काम में जुटी रहने वाली दासी के अलावा उसे कोई सम्मान नहीं प्राप्त था।
इस प्रकार सतीप्रथा से पुरुष के अहम् में और वृद्धि हुई। कुछ समाज सुधारकों ने स्त्रियों की दशा में सुधार लाने का प्रयत्न किया परन्तु कुछ कुरीतियों को दूर करने के अलावा वे उसे कोई विशेष स्थान नहीं दिला सके। नारी ने भी अपने इस कटु सत्य को स्वीकार कर लिया।
इन्हीं परिस्थितियों में सन् 1937 में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय की स्थापना हुई। परमपिता शिव परमात्मा जो सबके परम रक्षक व उद्धारकर्ता, दुःखहर्ता हैं उन्होंने प्रजापिता ब्रह्मा के माध्यम से नारी को अपनी मौलिक शक्तियाँ पहचानने का आह्वान किया। उसे पुनः स्मृति दिलाई तुम अबला नहीं शक्ति हो, देवी हो उठो!
अब अपने स्वरूप को पहचानो। तुम्हें स्वयं के साथ-साथ मानव जाति का भी कल्याण करना है। इससे उसका मनोढ़बल बढ़ने लगा और उसमें शक्ति स्वरूप के संस्कार जागृत होने लगे। फलस्वरूप विश्व में भी नारी शक्ति को पहढ़चान मिलने लगी। नारी शिक्षा को महत्व मिलने से वह अपने अधिढ़कारों के प्रति अधिक जागरूक हो गई।
विश्व में नारी पुनः उच्च स्थान प्राप्त करने की ओर अग्रसर है परन्तु आज भी भारत में तथा विश्व के कई पिछड़े देशों में वह शोषित है। अतः आवश्यकता है आज परमपिता शिव परमात्मा का यह आध्यात्मिक उद्घोष प्रत्येक नारी तक पहुँचाने की ताकि वह अपनी सुषुप्त शक्तियों को जागृत कर सके। शिव शक्ति बनढ़कर दिव्यगुणों का श्रृंगार कर पुनः नारी से श्रीलक्ष्मी जैसा पद की प्राप्ति कर सके।
ऐसा तभी सम्भव है जब वह अपना श्रेष्ठ स्वमान जागृत करेगी। अपने स्त्री स्वरूप में ही नहीं, आत्मिक स्वरूप में स्थित होगी क्योंकि आत्मा न मेल है, न फीमेल। उसमें दोनों ही संस्कार समाहित हैं। अतः जैसी स्मृति वैसी स्थिति के आधार पर सहज ही दैवी संस्कार उसमें प्रगट होने लगेंगे। फिर पुरुष स्वतः ही उसे बराबरी का तो क्या अपने से भी अधिक उच्च स्थान देंगे जैसा कि प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय ने सिद्ध कर दिखाया है।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।