वर्तमान समय के विश्वविद्यालयों,
विद्यालयों तथा अन्य भिन्न-भिन्न प्रकार के शिक्षण संस्थानों और कला केन्द्रा में अनेकों कलाएं उभरती हुई पीढ़ी को खासतौर से सिखाई जा रही हैं। आज से बीस-पच्चीस वर्ष पहले का बच्चा जहां भाषा,
गणित और विज्ञान के कुछ सरल से नियम सीखते-सीखते पढ़ाई के दर्जे पार करता जाता था आज उसके स्थान पर चित्रकला, संगीत कला, नृत्य कला,
तैराकी तथा अन्य-अन्य प्रकार की कलाओं से सम्बन्धित पुस्तकों से उसकी अलमारियां पटी रहती हैं।
ये बच्चे उच्च शिक्षा से विभूषित होकर जब विद्यालयों से बाहर निकलते हैं तो विभिन्न कलाओं में पथम स्थान पाप्त होने के चमकते प्रमाण पत्र इनके हाथों में होते हैं। अब इन्हें कर्मक्षेत्र पर उतरना होता है, जहां अक्षरों की पढ़ाई समाप्त होकर व्यवहार की पढ़ाई पारम्भ हो जाती है।
व्यवहार की इस पढ़ाई में पास होने के लिए उसे कुछ अन्य कलाओं की आवश्यकता होती है जैसे किसी की बात को धैर्यपूर्वक सुनने की कला, सुनने के बाद समा लेने या अवसरानुकूल प्रतिकिया करने की कला, कठिन परिस्थिति के समय साहस से उसे सुलझाने की कला, बिगड़ती बात और बिगड़ते सम्बन्धों को बनाने की कला, प्रतिकूल स्वभाव के व्यक्ति से सामंजस्य स्थापित करने की कला आदि-आदि।
चूंकि ये व्यवहारिक कलायें पढ़ने-पढ़ाने का केई सत्र शिक्षा संस्थानों में नहीं होता, इसलिए अधिकतर विद्यार्थी उनसे अछूते ही रहते हैं। संयुक्त और मूल्य प्रधान परिवारों में जो आदर्श सहज ही मन में उतर जाते थे, एकल और आधुनिक परिवारों में बच्चे को उनके अभाव में पलना पड़ता है।
मां-बाप होड़ की दौड़ में शामिल हो उसे अधिक-से-अधिक खर्च करके डिग्रियां दिलवा देते हैं परन्तु जहां आवश्यकता ही व्यवहार कला की हो वहां दूसरी डिग्रियां सुन्दर पेम में सजी शोपीस मात्र रह जाती हैं, जो जीवन का खोखलापन नहीं भर पाती। एक कन्या की बात सुनाते हैं कि वह पाककला में मास्टर डिग्री लिए हुए थी, पाक कला की सभी पुस्तकें पास रखकर भोजन पकाने लगी परन्तु अनुभवहीन होने के कारण सफल न हो सकी।
किसी ने सत्य ही कहा है कि केवल तैराकी की पुस्तकें पढ़कर कोई तैरना नहीं सीख जाता। संसार रूपी सागर में भी परिस्थितियों के तूफानों को पार करने के लिए केवल अक्षर ज्ञान नहीं वरन् अनुभव और आत्मा का बल चाहिए। आज आवश्यकता है जीवन जीने की कला सीखने की। जीवन-कला में अन्य सभी कलाओं का समावेश है ही।
डांवांडोल करने वाली परिस्थितियों में एकरस रहने की कला,
कालसम भयंकर बात होने पर भी निर्भयता की कला, झूठ के काफिले के समक्ष सत्य पर अटल रहने की कला,
मदान्ध के समक्ष नम्रता की कला और अत्याचारी निर्दयी के समक्ष अहिंसा के औचित्य की कला आदि सभी का समावेश जीवन-कला में होता है।
जीवन में आने वाली परिस्थितियां पर्दे पर चलने वाले कठपुतली के खेल की तरह बनावटी होती हैं। मनस्वी व्यक्ति के कर्त्तव्य की धारा को वे लम्बे समय तक अवरुद्ध नहीं कर पाती। भारतीय कला और संस्कृति का इतिहास इस अकाट्य सत्य को कदम-कदम पर प्रत्यक्ष करता है।
त्याग द्वारा भाग्य बनाने, तप द्वारा राज्य पाने और सेवा द्वारा त्रिविध तापों का नाश करने का सन्देश देने वाली भारतीय संस्कृति अगणित आततायियों द्वारा हिलाने और उखाड़ने के पयासों के बावजूद, मूल्यों को दामन में समेटे आज भी प्रकाश स्तम्भ बनी हुई है। क्या है इसके मूल में? वास्तव में इसकी मूल उन मूल्यों पर खड़ी है जो स्वयं निराकार परमात्मा शिव ने प्रजापिता ब्रह्मा के मुख कमल से सृष्टि के आदिकाल में पस्थापित किए।
इन्हीं मूल्यों की धरणा कर देवताओं का 2500 साल तक अटल-अखण्ड राज्य चला। इन्हीं मूल्यों की विरासत को गायन और पूजन के रूप में सम्भाले हुए आज भी हम अपने अस्तित्व को बनाए हुए हैं। इन मूल्यों की बदौलत देव जीवन सुसस्ंकृत और कलात्मक बना। आज हम सभी से एक ही भूल हुई है जिसके कारण इतनी उंची संस्कृति में विकृति आई है और वह भूल यह हुई है कि हम आन्तरिक गुणों और शक्तियों को भूल बाहरी चकाचौंध में खो रहे हैं।
आज हम भय के साये में जी रहे हैं, निराशा और मायूसी से भरे मन में कपटजाल बिछे रहते हैं। क्या ही अच्छा हो कि हमारा ‘मन इच्छा मात्रम् अविद्या’ की स्थिति में आ जाए तो हम भी पूर्वजों की गुण-पूंजी में धनी हो सकते हैं। एक बुढ़िया की कहानी सुनाते हैं कि वह बहुत तपस्वी और सन्तोष धन से विभूषित थी। उसके बगीचे के आम शरारती बच्चे तोड़ लेते थे।
एक बार एक साधु ने उसे वरदान दिया कि जो भी आम तोड़ेगा वह पेड़ से चिपक जायेगा। बुढ़िया का पेड़ निरापद हो गया। जब उम्र पूरी होने लगी तो यमराज उसे लेने आया पर आम तोड़ने के बहाने से बुढ़िया ने उसे भी पेड़ से चिपका दिया। शाश्वत जीवन का वरदान पाकर ही बुढ़िया ने उसे मुक्त किया।
अमर भव का वरदान पाप्त यह बुढ़िया और कोई नहीं भारतीय संस्कृति ही है, जिसका जन्म, पालन और संरक्षण स्वयं निराकार परमात्मा के हाथों में सुरक्षित है। उत्साह के साथ जीवन डगर पर बढने की पेरणा पग-पग पर समेटे हुए यह संस्कृति पुनसम्पूर्ण स्वरूप में अपनी छटा बिखेरने वाली है।
अन्य संस्कृतियां इसमें समाकर इसे सागर का आकार देने वाली हैं। भारत के हृदय-स्थल में सुरक्षित हो यह संस्कृति आने वाले 2500 वर्षों
के लिए देवों के उन्नत भाल को सुरभित करती रहेगी।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।