परमपिता परमात्मा परम कलाकार है। सृष्टि में जो कुछ दृश्यमान है, वह उसी की कला की अभिव्यक्ति है। नदी, सरोवर, झील, झरने, पर्वत, वृक्ष, चन्दा, सूरज, तारागण, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि सभी उसी की तो कलाकृति हैं। इन सभी में सर्वोपरि मानव है। मानव समुदाय में भी कलाकार श्रेष्ठतम है। वह पतिभा सम्पन्न है, उसमें ईश्वर पदत्त विशेष शक्ति है, तभी तो उसे परम कलाकार का दायाँ हाथ कहा जाता है। उसकी बात मन से सुनी जाती है।
कलाकार को प्रभु ने, सौंपी शुभ सौग़ात
तभी तो सब मन मानते, कलाकार की बात।।
परम कलाकार की वाह्य कृति सभी को दृष्टि गोचर होती है किन्तु अदृश्य कला उससे बढ़कर है। उसने मानव को जो दिव्यगुण और शक्तियाँ पदान की हैं, वे और भी बढ़कर हैं। कलाकार भी इन्हीं के बल पर जादुई पभाव छोड़ता है। वह पभाव जन-मन को छूता है। उनमें उदात्त भावों का संचार करता है।
इतिहास इस बात का साक्षी है – मूर्तिकारों की मूर्तियाँ, चित्रकारों के चित्र, सन्तों की वाणियाँ, ऋषियों की ऋचाएं, कवियों की कवितायें, लेखकों के लेख, कारीगरों के विशाल भवन तथा अन्य कलाकारों की कृतियाँ हमारे मन मस्तिष्क पर सुखद प्रभाव डालकर अपनी ओर आकर्षित करती हैं।
हम उन्हें देखते रह जाते हैं। चलते-चलते पाँव अपने आप थम जाते हैं। यह सब कला का ही तो करिश्मा है और है कलाकार की साधना का प्रतिफल।
कला छोड़ती मनो पर, अपनी सुन्दर छाप।
बंध जाते हैं कला से, हम सब अपने आप।।
कलाकार में जब इतनी ताकत है तो आज के चारित्रिक पतन एवं जीवन मूल्यों के हास के समय तनावमय वातावरण में कलाकार का दायित्य और बढ़ जाता है। आज के भौतिकवाद के युग में या यूँ कहें कि उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के बढ़ने पर व्यावसायिक मानसिकता बढ़ गई है।
कुसंस्कारों में समाज आकण्ठ डूबा है और समृद्धि की तलाश में जन-जन बेचैन है। अत सभी कलाकारों की ओर आशा लगाए हुए हैं। कलाकार से अपेक्षा कर रहे हैं जिससे कि समाज को नई दृष्टि मिले और नई सृष्टि का सृजन हो।
प्रश्न उठता है कि क्या यह सम्भव है? हाँ यह सम्भव है, किन्तु पहले कलाकारों को अपनी कला के मानदण्ड निर्धारित करने होंगे। कलाकारों को तनावमुक्त होना होगा। यदि कलाकार ही तनाव में जीते रहेंगे तो कालजयी रचना कैसे कर पायेंगे।
दैहिक संस्कृति के भंवरजाल में फंसकर कैसे आत्मिक संस्कृति का सुखद सन्देश दे पायेंगे? देहभान में रहकर आत्मिक शान्ति की ओर कैसे ले जा सकेंगे? पाश्चात्य संस्कृति में डूबकर दैवी संस्कृति के कैसे दर्शन करा सकेंगे? अत ज़रूरत है आत्म बल की, आत्म चिन्तन की।
कलाकार चिन्तन करें, खुद को ले पहचान।
देहभान में फंसे हैं, या देही अभिमान।।
यहाँ मैं कहना चाहूँग। कि समाज में कला के नाम पर जो घिनौना और भौड़ा पदर्शन हो रहा है, वह चिन्तनीय है। अभी तो वह यत्र-तत्र दिखाई पड़ रहा है किन्तु ध्यान नहीं दिया गया तो घर-घर में सर्वत्र दिखाई देगा। कला जो आत्मिक सुख और पभु पाप्ति का माध्यम है उसे गंदी नाली में बहने से रोकने के लिए कलाकारों को संचेतनशील होना ही होगा।
नाची तो मीरा भी थी, पग घुँघरू बांध मीरा नाची रे। आज भी चलचित्रों में मीरा की भूमिका, भूमि के जन-जन को ही नहीं, अपितु जड़ चेतन सभी को आनन्दित कर देती है। स्पंदनशील कर देती है, ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी। गीत भी गाया गया था। वह भी आज सुनते ही राष्ट्रपेम के लिए रग-रग में चेतना जगा जाता है।
पजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय की मधुर वाणी समूह के गाये गीत आत्मनिष्ठ बनाकर योग के पथ पर आरूढ़ कर देते हैं। मानव मन को सात्विक भाव भूमि पर ले आते हैं। तमो और रजो से परे कर सतोगुण से ओतपोत कर देते हैं। मुझे कलाकारों से इतना भर कहना है –
कलाकार को चाहिए, दें भोंडापन छोड़।
सृजन करें ऐसी कला, दे प्रभु से मन जोड़।।
कलाकार का दायित्व है कि वह अपनी कला के माध्यम से स्वपेम की ओर सचेष्ट करे, यानि सतोपधान बनाए। पवित्र बनाये। तन से भी पवित्र और मन से भी पवित्र। अमृतवेला में जगकर शुभ संकल्पों के साथ, सकारात्मक सोच के साथ सद्व्यवहार करना सिखाए। लोगों को हंस बुद्धि बनाए। दिव्यचक्षु दे, तभी वह सच्ची कला होगी, तभी वह सच्चा कलाकार होगा।
वही कला है सार्थक, हंस बुद्धि हों व्यक्ति।
दिव्य चक्षु सुख का मिले, हो प्रभु से अनुरक्ति।।
इससे आगे की सीढ़ी है परमात्म-पेम की ओर जन-जन को उन्मुख करना। स्व पेम के प्रति जागृत कर देने से परमात्म पेम तो स्वत आयेगा। आत्म स्वरूप में टिकना या स्थित होना ही परमात्म पेम है। यह कलाकार का एक सुखद पड़ाव है। सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत् के शुभ संकल्प को अमृतवेला में दुहराने वाले परमात्म रचना को गले लगाने का मंत्र देने वाले कलाकार ही तो हैं। पाणी मात्र से अपनत्व रखना, उनके कष्ट निवारण करना, उनको सहयोग देना परमात्म रचना से पेम करना सिखाना कलाकार का दायित्व है। इसी में कलाकार का आत्मिक सुख निहित है।
कलाकार का दायित्व यह है कि कला एवं भावों के माध्यम से वह पेम जैसे उदात्त गुणों को जागृत कर सृष्टि में दृष्टि और वृत्ति बदलने के लिए शुभ संकल्प लें। आवश्यकता इस बात की है कि कलाकार अपनी कला से स्वयं आत्म साक्षात्कार कर परमात्म अनुभूति करे तथा अपनी कालजयी कला को सार्थक करे।
हाँ, पहले कलाकार को आत्म निष्ठ होना परमावश्यक है तभी उसकी कला परिमार्जित होगी, तभी कला परिशोधित होगी, तभी कला चरमोत्कर्ष पर पहुँचकर जन-जन को परमात्म अनुभूति करा पायेंगी। सतोपधान बना पायेगी। आचरणवान बना पायेगी। पावन बना पायेगी। यह कोई कठिन कार्य नहीं है।
प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय ने सभी कलाकारों को एक मंच पदान किया है, जहाँ वे आत्मनिष्ठ होकर दैवी संस्कृति की ओर अग्रसर हो सकेंगे, वे अपनी कला का सार्थक उपयोग कर आत्म और परमात्म सेवा कर सकेंगे।
कलाकारों का ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहत हूँ कि मानव मन को सरस व सुन्दर बनाने को कला का सृजन हुआ है। कला के माध्यम से कलाकार अपनी बात को सुन्दर ढंग से परोस सकते हैं। थोड़ा पयास यह करना है कि कला का दैहिक मनोरंजन न होकर आत्मिक मनोरंजन हो। इससे सुन्दर समाज का निर्माण कर सकेंगे।
आध्यात्मिक ज्ञान से अपने व्यक्तित्व का सुन्दर विकास कर सकेंगे। अपने गुणों और शक्तियों को बढ़ा सकेंगे। कला का और निखार कर सकेंगे। बेहतर समाज के लिए सकारात्मक सोच दे सकेंगे। होशियार कलाकार स्टॉर ऑफ होप जगा सकते हैं।
विश्व का परिवर्तन कर सकते हैं, अपनी यात्रा को मंगलमयी बनाकर मंज़िल तक पहुंचा सकते हैं। जीवन जीने की कला सिखा सकते हैं। कमलवत् रहने के लिए कह सकते हैं।
खूब रहें संसार में हम, पर हममें न संसार।
रहे कमलवत जगत् में, यह जीवन का सार।।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।