सेवा से दुआओं की पाप्ति

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सेवा अथवा सेवाभाव परोपकारी है। इस शब्द को सुनते ही मन की स्थिति विचित्र बनने लगती है। व्यक्तिगत तथा  पारिवारिक बन्धनों से उपर उठकर मानव समाज के अन्य पाणियों के पति सहयोग देने के अपने दायित्व का अनुभव करने लगता है। उसे अन्य पाणियों की पीड़ा एवं कष्ट के सामने अपने लगाव झुकाव तुच्छ दिखाई देने लगते हैं।

हदों में फंसे व्यक्ति की मनोदशा बेहद में विचरने लगती है।उसकी विचार शक्ति में दया, करूणा के समावेश से उसके कर्म में विनम्रता पत्यक्ष दिखाई देती है। उसे अपने में सहस्त्र गुणा अधिक शक्ति का अहसास होने  लगता है। चारों ओर से सहयोग के हाथ उसकी ओर बढ़ने लगते हैं। मनुष्य जीवन की सार्थकता अनुभव होने लगती है और वह स्वत गुणगुणाने लगता है ‘अपने लिए जीआ तो क्या जीआ, जीवन उसी का है जो औरों के लिए जीए’।

निष्पक्ष एवं निस्वार्थ भाव से की गई सेवा जब किसी के हृदय को छू लेती है और उसके मन से दुआओं की बौछार लगती है, उस समय व्यक्ति यह महसूस करता है कि नाम, मान-शान के लिए की गई सेवा कितनी गौण है। सेवा की सबसे बड़ी पाप्ति है कि सेवा का सुअवसर उसे मिल गया।

सेवा करने के लिए कौन सक्षम है अथवा क्या योग्यताएं चाहिए?

मन में दूसरों के पति सच्चा प्यार रूहानी प्यार का होना सेवा करने के लिए सबसे बड़ी योग्यता है। धन का अभाव या शारीरिक दुर्बलता सच्ची सेवा के मार्ग में बाधा नहीं डालते। मन में सेवा करने का दृढ़ संकल्प होना ही काफी है। रहम भाव एवं सहयोग की भावना किसी को भी सेवा के मार्ग पर अग्रसर होने में सक्षम बना देती है।

सेवा के विभिन्न स्वरूप – सेवा का प्रत्येक स्वरूप कल्याणकारी है। रोगी का उपचार, निर्धन को आर्थिक सहयोग, अनपढ़ को अक्षर ज्ञान, कुव्यसनों से मुक्ति दिलाना, कुरीतियों एवं अन्धविश्वासों से छुटकारा दिलाना, पर्यावरण को स्वच्छ बनाने में सहयोग देना आदि सेवा के सैकड़ों स्वरूप हैं। हज़ारों-लाखों पाणी अपने सार्मथ्य अनुसार इन्हीं सेवाओं में कार्यरत हैं।

संगठन बनाकर या व्यक्तिगत रीति से, राष्ट्रीय स्तर पर या अपने ही क्षेत्र में, सरकारी सहयोग लेकर या अपने ही साधनों से, सम्पूर्ण जीवन को समर्पित करके अथवा अपने कार्य-व्यवहार से कुछ समय निकाल कर असंख्य नर-नारी दूसरों के कष्टों को कम करने अथवा दूर करने के लिए पयासरत हैं। सफलता कहीं पर कम और कहीं पर अधिक दिखाई देती है।

सेवा में सफलता एवं सेवा से सन्तुष्टता तथा पसन्नता की पाप्ति का आधार है सेवा के प्रति हमारा दृष्टिकोण एवं सेवा के पतिफल के रूप में पाप्ति के प्रति हमारी मानसिक स्थिति। क्या सेवा किसी अन्य मंज़िल तक पहुँचने का माघ्यम बना कर की जा रही है? अथवा सेवा का सम्पन्न एवं सर्वांगींण स्वरूप बनाना ही सेवा का ध्येय है।

सेवा साधन है या एक साधना है? सेवा हमें कुछ दिलाएगी, बनाएगी या मर मिटने का पाठ पक्का कराएगी? इसके साथ जुड़ा हुआ है हमारे जीवन का ध्येय। हमें इस भौतिक संसार से लेने की ही इच्छा है या देने का भी संकल्प है? हम संसार के चौराहे पर भिखारी की वेशभूषा ओढ़े हुए हैं या दाता के सिंहासन पर विराजमान हैं।

    वास्तव में सेवा से पहले आवश्यक है स्वयं की पहचान। पाँच तत्वों के भौतिक शरीर की भृकुटि के मध्य में विराजमान दिव्य पकाश स्वरूप मैं चेतन आत्मा सर्वशक्तिवान परमात्मा ज्योतिर्बिन्दु रूप शिव की अमर सन्तान हूँ। यह बात समझ में जाने पर और यह विश्वास दृढ़ हो जाने पर कि सर्व आत्माओं के रूहानी पिता परमात्मा की मैं अविनाशी सन्तान हूँ और विश्व की सर्व आत्माएँ मेरा ही बेहद का परिवार है, तब सर्व के प्रति निस्वार्थ स्नेह जागृत होता है।

देश, धर्म, रंग, भाषा-भेद की जंजीरों में बन्धे पाणी को वसुधैव कुटुम्भकम् का अर्थ समझ में आता है और वह अन्धकार से प्रकाश की ओर कदम बढ़ाता है। दैहिक पदार्थ, क्षण भंगुर पाप्तियाँ तथा अल्पकालिक सुख उसके मार्ग की दिशा को बदलने में अक्षम सिद्ध होने लगते हैं। उस समय सेवा का सच्चा स्वरूप समझ में आता है।

पारिवारिक और सामाजिक पतिबद्धताओं को पूर्ण करते हुए वह असंख्य आत्माओं की रूहानी सेवा आध्यात्मिकता के बल से नैतिक एवं चारित्रिक पुनर्निर्माण तथा श्रेष्ठ सतयुगी संसार की पुनस्&थापना के महान कार्य से वह जुड़ता है तथा अपना और अन्य आत्माओं का श्रेष्ठ भाग्य बनाना ही उसके जीवन का एक मात्र ध्येय बन जाता है। उसे कभी किसी पकार की थकावट का आभास नहीं होता क्योंकि वह दिल से सर्व की रूहानी सेवा करता है और असंख्य आत्माओं की दुआओं का पात्र बन जाता है।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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