हमारा स्वर्ग सुहाना था

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नर-नारी, दुःख-सुख, दिन-रात, जय-पराजय की तरह ही धरती पर स्वर्ग और नर्प का अपना समय होता है। दीपावली की तरह रात्रि में करोड़ों बत्तियाँ जला लो तो भी उसे दिन नहीं कह सकते, वैसे ही नर्प के समय साधन-पसाधनों या अन्य किसी भी सुविधा की कितनी भी भरमार कर लो पर स्वर्ग का आनन्द कभी भी पाप्त नहीं हो सकता।

सतयुग-त्रेतायुग को ब्रह्मा का दिन अर्थात् स्वर्ग और द्वापर-कलियुग को ब्रह्मा की रात अर्थात् नर्प कहा जाता है। आज सभी को ज्ञात है कि इस समय कलियुग के घोर अंधकार में सभी आत्मायें विकारों के वशीभूत हो किसी-न-किसी तरह दुःखी-अशान्त हैं। पतन के जितने भी लक्षण बताये गये हैं वे साक्षात् दिखाई दे रहे हैं।

लोगों को यह भी मालूम होता जा रहा है कि ज्ञान-गुणों के सागर निराकार शिव परमात्मा, प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा सतोपधान संस्कारों का निर्माण और विकारी संस्कारों का विनाश करवाने का कार्य कर रहे हैं। अब तो स्पष्ट मालूम पड़ रहा है कि आने वाले नये वर्ष वा नयी सदी अथवा तीसरी सहस्त्राब्दी के पभात से ही सतयुग के पदचाप और तमोपधानता के विनाश के ढोल-नगाड़े सुनाई देने लगेंगे।

इब्राहिम, बुद्ध, महावीर के धर्म विभेद होने तक का टूटा-फूटा 2500 वर्षों का इतिहास तो लोग जानते ही हैं परन्तु उसके पहले के इतिहास के बारे में कोई पामाणिक साक्ष्य पाने के कारण उसे पूर्व वैदिककालीन सभ्यता, उत्तर वैदिककालीन सभ्यता या अंधकार युग कहकर उसके बारे में तरह-तरह की अटकलें लगाते-लिखते आये हैं।

जब धर्मभेद से पहले के लोगों का देवी-देवताओं के रूप में भजन-पूजन आज तक करते रहे हैं तो इससे स्पष्ट दिखाई देता है कि एक धर्म, एक मत वाले स्वर्ग में देवी-देवतायें श्रेष्ठाचारी थे कि आज के लोगों की तरह पापाचारी, नर्पवासी।

नई सदी का स्वर्णिम युग मन भावन होगा स्वर्ग, बैकुण्ठ, वहिश्त, पैराडाइज़ आदि नाम लेते ही मुख मीठा होने लगता है। कहा भी जाता है इन्द्रपस्थ में परियाँ और परीजादे रहा करते थे। जहाँ सोने-चाँदी की खानियाँ ही नहीं, हीरे-जवाहरात, मणि-माणिक्य के ढेर भी लगे रहते हैं। वहाँ के रत्नजड़ित महल-माड़ियाँ, बाग-बगीचे, हरियाली-खुशहाली से परमसुहाने लगते हैं।

जहाँ सदा युवा की तरह जीने वाले देवी-देवतायें सहज आत्मिक भाव, पारदर्शीपिंक बदन वाले सदा स्वस्थ रहते हैं। आत्माओं की सतोपधानता के कारण वहाँ के वन-उपवन, फलों-फूलों की खुशहाली, मधुर कण्ठों से गीत-संगीत, नृत्य, उछल-कूद करते हुए सुहाने पशु-पक्षी और तितलियाँ, एकरस बहती खुशबूदार सरितायें, मोम जैसी नयनाभिराम पर्वतमालायें, धरा पर चार चाँद लगा देती हैं।

सभी तन-मन-धन-जन से इतने भरपूर होते हैं कि किसी तरह की इच्छा की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। मौसम-चाँद-सितारे इतने निर्मल होते कि आधी रात भी सुपभात-सी पतीत होती है। सूर्य ऐसे अक्षांश-देशान्तर पर पहुँच जाता है कि हर समय वातानुकूलन की अनुभूति होती है। शोभनिक गायें तो जैसे दूध-घी की दरिया बहाती रहती हैं।

स्वर्णिम ऊँचे महलों में मणि-माणिक्य, हीरे-जवाहरात ऐसे ढंग से जड़े होते हैं कि एक-दूसरे को पतिबिम्बित करते हुए सतरंगी प्रकाश बिखेरते रहते हैं जिससे लाइट के कृत्रिम साधनों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। रस भरे फलों से वृक्षों की डालियाँ झुक-झुक कर मन इच्छित स्वाद के रसपान कराती हैं। विधिवत् लगे हुए वृक्ष विविध रंग-रूप, स्वाद के फलों से लदे ही रहते हैं।

जिनका फल तोड़ते ही वहाँ दूसरे फल लग जाते हैं। हरेक का जीवन सैंकड़ों पकार के वस्त्राभूषणों से सजा-धजा ही रहता है। तन-मन, जीवन इतना सुन्दर, स्वच्छ और स्वस्थ होता कि नस-नाड़ियों में बहती हुई खून की झर-झर करती धारायें भी देखी जा सकती हैं। नृत्य, संगीत, वाद्य चित्रकला जैसे विषय खेलपाल में पढ़ाये जाते हैं।

राजा-पजा, दास-दासी का पद होते हुए भी सभी परमसुखी होते हैं, क्योंकि सर्व सम्पदाओं की अखुट भरमार होती है। वैज्ञानिक पणालियाँ इतनी समुन्नत होती हैं कि संकल्पों के इशारे से ही सूक्ष्म संयंत्र बहुत से काम कर देते हैं। विचारों की गति से विमान ही नहीं चलते बल्कि वस्तुओं की तरह शुभ विचारों का आदान-प्रदान किया जा सकता है।

आत्मिक भाव का ही सुखद-पवाह सहज विकिरण होते रहने से सभी सर्वांग सम्पूर्ण और 16 कला सम्पन्न होते हैं। इच्छित जन्म-मृत्यु के अधिकारी होने के कारण उनकी सभी इन्द्रियों से कमलवत् न्यारे-प्यारेपन की भासना आती है।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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