अभी तक किसी भी धर्म की स्थापना या नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए जिन्होंने कार्य किया है अर्थात् जिन्होंने भी धर्म ध्वज को फहराया है वे प्राय पुरुष ही थे। धर्म दर्शन और नैतिकता के इतिहास में कभी भी किसी नारी को आगे आकर यह कार्य करने का सुअवसर नहीं मिला उसके परिणाम आपके सामने हैं।
धर्म पिताओं ने नैतिकता पर उपदेश तो किये नैतिक सिद्धांतों की ऊँची-ऊँची बातें तो बताईं उन्होंने अपने जीवन से भी कईयों को प्रेरित किया लेकिन उनकी मेहनत का फल ज़्यादा समय तक नहीं चला, उसके परिणाम चिरस्थायी नहीं हुए। इसका नतीजा यह है कि आज बहुत से लोग पूछते हैं कि बड़े-बड़े धर्मात्माओं ने, महानात्माओं ने या सन्तों ने अच्छे-अच्छे उपदेश दिये परन्तु उसका परिणाम क्या हुआ।
संसार में बुराई तो बढ़ती ही आई है समाज का सुधार तो हुआ नहीं। अपने-अपने अनुसार हरेक ने कोशिश तो अच्छी की समाज की मुखालिफित का सामना भी किया विरोध भी सहन किया परन्तु फिर भी धीरे-धीरे कलियुग ही आता गया। कोई सत्य धर्म सतयुग या नैतिकता पर आधारित समाज की स्थापना नहीं हुई बल्कि घोर कलियुग आ गया और आज आप देख रहे हैं कि बुराई पनप रही है उसका बोलबाला है धर्म का झंडा, नैतिकता का झंडा आज किसी के हाथ में नहीं है आप सोचते होंगे कि पुरुष नैतिकता की स्थापना का कार्य करें या महिलायें यह कार्य करें इसमें अंतर क्या पड़ता है।
इसमें महान अंतर की एक बात तो यह है कि माताओं में पालना का संस्कार होता है पुरुष पैदा करके अपने कार्य में लग जाता है। धर्म के अथवा नैतिकता के कोमल पौधे को सींचना, पशु-पक्षियों और जीव- जन्तुओं से उसकी रक्षा करना। आस-पास के उबड़-खाबड़ को हटाना भी ज़रूरी होता है। केवल नैतिकता का उपदेश देना ही पर्याप्त नहीं है। मान लीजिए कि किसी को बहुत अच्छे शब्दों में दृष्टांत का उदाहरण देकर यह उपदेश दे दिया गया कि क्रोध नहीं करना चाहिये या बेईमानी से पैसा नहीं कमाना चाहिये परन्तु मनुष्य के संस्कारों को बदलनें में समय लगता है।
केवल कहने मात्र से ही उसके संस्कार या व्यवहार में पूर्ण परिवर्तन नहीं हो जाता यदि शक्तिशाली प्रवचन से किसी में सुधरने की उमंग पैदा हो जाये तो उसकी वो उमंग सदा नहीं बनी रहती उससे आगे के लिए उसके जीवन में स्वत ही अच्छे विचार आयें ऐसा बहुत कम होता है यदि उसके जीवन में कोई परिवर्तन आये भी तो वो थोड़ी मात्रा में कुछ ही समय के लिए आता है।
संसार के दूषित अथवा अनैतिक वातावरण में उसके मन में मैले होने के बहुत से कारण उपस्थित हो जाते हैं। अत आवश्यकता इस बात की होती है कि जैसे बच्चे को मैला होने से बचाती है अथवा उसके मिट्टी से लथपथ हो जाने पर उसको फिर साफ सुथरा करती है ऐसे ही आध्यात्मिकता में भी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है जो उसमें उमंग उत्साह भरता रहे कोई विपरीत परिस्थिति आने पर उसे बचाये अथवा उसे निराश न होने दे तो यह एक आध्यात्मिक रीति से पालना का कर्त्तव्य है जिसे करने में मातायें अधिक कुशल सिद्ध होती हैं।
इसलिए यदि वे नैतिकता के ध्वज को अपने हाथ में थाम लें अर्थात इस कार्य का बीड़ा उठायें तो मूल्यनिष्ठ समाज की स्थापना हो सकता है।
दूसरी एक विशेषता यह है कि माताओं में सेवा और त्याग का गुण अधिक होता है त्याग तो कई महान पुरुषों ने भी किया परन्तु त्याग के साथ साथ सेवा करना भी आवश्यक है और त्याग से अभिप्राय कोई घरबार के त्याग से नहीं है बल्कि माता जैसे अपने बच्चे के लिए सब कुछ त्याग करने के लिए तैयार होती है इस प्रकार के त्याग की आवश्यकता है उसके लिए अपनी निद्रा को भी त्याग देना, उसके पालन पोषण की आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद उसे भोजन देने के बाद स्वयं स्वीकार करना ऐसे त्याग की ज़रूरत होती है।
आध्यात्मिकता में अथवा नैतिकता के पथ पर कदम-कदम पर यह त्याग करना होगा है। अपना समय, स्वास्थ्य, शक्ति सब कुछ कुर्बान करना इस प्रकार मातायें जब नैतिकता की इच्छा वाले व्यक्तियों के लिए अपने सुख को त्याग कर उनकी भलाई के लिए सर्वस्व लगा दें तभी एक मूल्यनिष्ठ समाज की स्थापना हो सकती है।
बहुत से धर्म स्थापकों ने धर्म की स्थापना के कार्य में अपनी जान भी दे दी और काफी कष्ट-कलेश सहन किये परन्तु हमारा भाव उस कुर्बानी से नहीं है जब कोई माता अपने बच्चे को यह कहती है कि मैं तुम पर वारी जाऊं तो उसके मन के अंदर से इस भाव का झरना प्रवाहित हो उठता है कि मेरा तुमसे इतना प्यार है कि तुम्हारे सुख-स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए मैं कुछ भी करने के लिनए तैयार हूं। इस मनोवृत्ति से जिसमें सेवा, त्याग और प्यार तीनों की धारा साथ-साथ बहे तभी वो दूसरे के मन को धो सकती है क्योंकि जो विकारी मनुष्य हैं उनके लिए विकारों का त्याग बहुत कठिन है।
मोह का त्याग, दैहिक आकर्षण का त्याग, पैसे के प्रलोभन का त्याग करना सहज नहीं है यह त्याग करने को काई तब तैयार होता है जब कोई उपदेश देने वाला व्यक्ति उन विकाराधीन लोगों को इतना प्यार करे और इतनी सेवा करे और उनके लिए सुख-सुविधाओं को त्याग करने के लिए इतना तत्पर हो कि गृहस्थ लोगों के विकार सहज ही उनसे दूर हो जायें। जब कोई व्यक्ति किसी के अच्छे प्रवचन को सुनता है जो सुनने वाले के मन में अच्छा होने की भावना तो प्रगट होती है परन्तु वो चाहते हुए भी बन नहीं सकता क्योंकि आत्मा निर्बल हो चुकी है।
अत विकारों के संस्कार बड़े कड़े होते हैं। वो इस बुरे विचारों से तभी मुक्त हो सकते हैं तब उन्हें निकृष्ट से श्रेष्ठ बनाने के कार्य में कोई लगा ही रहे। उनकी सेवा करता ही रहे उनको प्यार देता ही रहे। इन्हें निकम्मा, बेसमझ, मूर्ख अथवा दुष्ट समझकर छोड़ ही न दे।
समाज ही को बदलने के लिए अथाह मेहनत की ज़रूरत है और इस मेहनत को लगातार करने रहने की आवश्यकता है। अगर समाज का परिवर्तक स्वयं ही निराश हो जाए और हिम्मत हार दे तब तो गोया कि वो परिवर्तन की इच्छा वाले को मझधार में ही छोड़ने वाला होगा। भंवर में फंसे हुए व्यक्ति को निकालने के लिए कुशल तैराक की ज़रूरत है जो अपनी जान की बाजी भी लगा दे।
माताओं में यह विशेषता है यदि कोई बच्चा कमजोर हो तो वो हरेक से पूछती फिरती रहती है कि इसको खाया-पीया लगता नहीं है, इसके लिए क्या करूं। यदि वो रूककर अथवा हकलाकर बोलता है तो अनेकों के पास एसको ले जाकर उसकी जबान को दिखाती फिरती है कि इसका बोलना कैसे ठीक हो, वो छोड़ नहीं देती। दस वर्ष बाद भी यदि कोई उसे बताये कि फलां व्यक्ति यह रोग ठीक कर सकता है तो उसे अपने बच्चे की याद आती है कि उसका भी ईलाज कराकर देख लूं गोया कि अपने बच्चे की बेहतरी को वो अपने जीवनभर की जिम्मेवारी समझती है इस बात का उसे चिन्तन अथवा फुरना रहता है।
ऐसे ही समाज के परिवर्तन का कार्य भी एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम है। समाज को बच्चे की तरह पालना और संभालने का कार्य और उसमें सुख को प्राथमिकता देने का कार्य मातायें ही कर सकती हैं। इसलिए नैतिकता की क्रांति लाने का कार्य जब तक माताओं के हाथ में न हो तब तक मूल्यनिष्ठ समाज की स्थापना नहीं हो सकती।
महिलाओं में भी भारत की महिलाओं का विशेष गायन है। यहां की नारी मर्यादा, लोकलाज, नियम, प्रथा इत्यादि को सामने रखती है। कोई पुरुष किसी नारी के लिए सती नहीं हुआ नारियों ने ही सती किया है। हमारे इस कथन का यह भाव नहीं है कि नारी पति के मरने पर स्वयं भी पति की चिता पर चढ़ जाये यह तो आध्यात्मिकता का बिगड़ा हुआ रूप है। हर एक का जीवन अनमोल है कोई नारी अपने जीवन को यूँ ही क्यों समाप्त करे।
बल्कि आज भारत में तो कई बार ऐसे समाचार छपते हैं कि दहेज की बात को लेकर पुरूष ने ही अपनी पत्नी को आग लगा दी। जहां तक नारी का प्रश्न है वे तो मर्यादा की लकीर के अंदर ही रहने का प्रयत्न करती है इसलिए मूल्यों की स्थापना के बाद मूल्यों को बनाये रखने की उनमें विशेष कुशलता होती है। प्राय पुरूष तो यह कहते हैं कि हम व्यापार करते हैं उसमें तो गलत तरीके से पैसा कमाना ही पड़ता है कोई कहते हैं कि हम वकील हैं झूठ बोलने के बगैर तो हमारा काम ही नहीं चलता।
अन्य कहते हैं हम पुलिस कर्मचारी हैं क्रोध और डांट-डपट और डन्डा, थप्पड़ तो हमारे पेशे का पार्ट है परन्तु जब नारी देखती है कि पुरूष पुरूष को मार रहा है अथवा पाप कर रहा है तो उसके चित में ग्लानि होती है वो ऊंचे स्वर से न सही धीमे स्वर से तो मना करती है परन्तु इस पुरूषप्रधान संसार में वो ज्यादा बुलन्द आवाज नहीं उठा सकती उसकी कुछ अपनी मज़बूरियों होती है वरना अनैतिकता के वो विरूद्ध होती।
आज घर में नैतिकता का जो भी अंश बचा है उसका मुख्य श्रेय माताओं को अथवा भारत की नारियों को है। किसी भी सतसंग में वे अधिक संख्या में जाती हैं जो इस बात का संकेत है कि उनमें ही नैतिक प्रधान जीवन की अधिक चाह होती है बुराई के परिणाम से डर होता है और जीवन को अच्छे मार्ग पर लगाने की मनोकामना होती है।
इसके अतिरिक्त किसी ने ठीक कहा है कि अगर एक नारी को ज्ञान हो जाए तो उससे केवल उसका ही नहीं कम से कम एक परिवार का सुधार होता है। धार्मिक ग्रंथों में तो यहां तक कहा गया है कि यदि एक नारी तर जाए तो वो 21 कुल को तारने वाली होती है। इस दृष्टि से यदि यह जिम्मेवारी ही माताओं पर हो तो आप सोच सकते हैं कि समाज का सुधार होना निश्चित है अगर एक नारी 21 कुल को तारे और उन 21 कुल में से एक-एक नारी आगे 21 कुलों को तारे और यह प्रक्रिया होती चली जाए तो आप ही सोचिये मूल्यनिष्ठ समाज की स्थापना होगी या नहीं।
आमतौर से यह सोचा जाता है कि झंडा किसी मजबूत हाथ को थामना चाहिये। झंडे को थामने वाला व्यक्ति आंधी, तुफान, वर्षा, विरोध सब परिस्थितियों में आगे बढ़ता चले, उसमें सहनशीलता और मन की मज़बूती वा विलपावर होनी चाहिये। झंडा किसी देश या जाति की शान होता है यदि वह गिर जाए तो वहां के लोगों के मन को धक्का लगता है और उनको लज्जा और निराशा का अनुभव होता है। उन्हें लगता है कि उनकी इज्जत ही चली गई।
झंडा क्या गिरा बल्कि देश की बदनामी हुई कि अन्य देश वाले क्या कहेंगे ये अपना झंडा ही नहीं संभाल सकते। झंडा किसी देश के गर्व का सूचक है अपने झंडे को ऊंचा देखकर उनका मस्तक ऊंचा होता है। झंडा वहां फहराया जाता है जहाँ विजय हो अगर कोई एक देश दूसरे देश को जीत लेता है तो वह वहां पर अपने देश का झंडा लहराता है।
जब अंग्रेज लोग भारत को छोड़ कर चले गये तो यहां पर अंग्रेजो का झंडा हटाकर भारत का अशोक चक्र बना तिरंगा ध्वज जगह जगह लहराया गया जो इस बात का प्रतीक रहा कि ये देश अब हमारा है ऐसे ही 15 अगस्त को झंडे को सलामी दी जाती है खुशी और विजय के उपलक्ष्य में तोपें चलाई जाती हैं तो कोई सोच सकता है कि नैतिकता का ध्वज माताओं के हाथ में कैसे दे दिया जाए मातायें तो अबला अथवा कमजोर होती हैं। झंडा और पताका तो किसी मजबूत नौजवान के हाथ में देना चाहिये परन्तु उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि अगर माता का स्वमान जाग जाये तो वो क्या नहीं कर सकती तब तो अबला नहीं शक्तिरूप हो जाती है।
बडे-बडे वीर और महावीर भी माता के पुजारी होते हैं जो लडाई पर जाने से पहले उस रक्षत्रि देवी को उनकी रक्षा करने लिए प्रार्थना करते हैं। माता दुर्गा भी होती है, काली भी है अगर वो कोई कार्य करने की बात ठान ले तो कोई उसके सामने टिक नहीं सकता। उसे असुर निकन्दनी, विघ्न विनाशनि, तार माता तारनी कहकर लोग उसका गायन करते हैं अगर कोई पुरुष मजबूत हो सकता है तो क्या जिसने इस लाल को जन्म दिया वो जन्मदात्री कमजोर होगी। शेर को जन्म देने वाली भी शेरनी होगी, बकरी नहीं।
पुरुषों के इन गलत ख्यालों ने माताओं को आगे आने ही नहीं दिया। उन्होंने धर्म का ध्वज माताओं के हाथ में नहीं दिया। पुरुषों ने रक्त भरी कान्तियां की हैं नैतिकता की धारा नहीं बहाई। 2500 वर्ष तक पुरुषों ने कोशिश कर ली परन्तु मनोरथ की सिद्धि नहीं हुई। अब एक बार तो माताओं को अवसर मिलना चाहिये। झंडे वाला आगे चलता है और बाकी सब उसके पीछे-पीछे होते हैं अब एक बार पुरुष माताओं द्वारा दी शिक्षा-दीक्षा का अनुकरण करें फिर देखिये कि मूल्यनिष्ठ समाज की पताका सारे विश्व पर फहराती है कि नहीं।
पुरुष प्रेरणा दे सकते हैं मंजिल और पथ बता सकते हैं परन्तु वहां पर पहुंचने का कार्य करने की कुशलता माताओं में है। कौशल्या को राम की माता बताया जाता है। कौशल्य का अर्थ है जो कुशलता प्रदान करे और अपने जीवन की कला में भी कुशल हो। लोग मंगल कुशल ही तो पूछते हैं क्योंकि कार्य कुशलता के बिना जीवन मंगल कुशल नहीं होता। अत जब नारी नैतिकता के कार्य में कुशल हो तो ये एक मूल्यनिष्ठ समाज की स्थापना करके सबको कुशलता और मंगल प्रदान कर सकती है। स्वर्ग का द्वार खोल सकती है।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।