सबके जो पिता हैं उनके नाम, रूप और कर्त्तव्य कौन-से हैं?

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शिवरात्रि के महत्त्वपूर्ण अवसर पर एक विचित्र बात हमें याद हो आती है। बात यह है कि भारत में स्थान-स्थान पर ‘शिवलिंग’ नाम से जो प्रतिमायें बनी हुई हैं उन्हें यहां आने वाले विदेशी भी देखते हैं और यहाँ के बहुत-से लोग तो उसकी पूजा भी करते हैं। परन्तु, वे इस प्रतिमा के न्यारे रूप को देखकर और इसके ‘त्रिभुवनेश्वर’, ‘मुक्तेश्वर’, ‘पापकटेश्वर’ आदि-आदि नाम सुनकर यह नहीं सोचते कि यह विचित्र प्रतिमा किसका स्मरण-चिह्न है। एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट है –

देहली में अगर आप एक बस में यात्रा करेंगे तो आप देखेंगे कि बस का कन्डक्टर स्टाप आने पर उच्च स्वर में यों कहता है  – किंग एडवर्ड पाक...! तिलक ब्रिज...! राजघाट अथवा गांधी समाधि....! ‘एडवर्ड पाक’ का नाम सुनते ही सब यात्री समझ जाते हैं कि इंग्लैण्ड के सम्राट, एडवर्ड का यहाँ पर बुत होगा अथवा यह बाग एडवर्ड की स्मृति में बनाया गया होगा। ‘तिलक ब्रिज’ यह नाम सुनते ही मन में यह स्मरण हो आता है कि तिलक जी गीता-प्रेमी थे, उन्होंने गीता पर एक विद्वतापूर्ण टीका लिखी और देश की स्वतत्रता के संग्राम में विशेष भाग लिया। इसी प्रकार, राजघाट या गॉंधी समाधि का नाम सुनते ही मनुष्य का मन यह कह ता है कि गांधी जी स्वतंत्रता-संग्राम के एक अग्रगण्य सेनानी थे जिन्हें ‘बापूजी’ के नाम से भी लोग पुकारते थे और जिन्हें आज लोग ‘राष्ट्रपिता’ की उपाधि देते हैं।

अब इन उदाहरणों को ध्यान में रखते हुए सोचिए कि आज जब कोई विदेशी अथवा भारतीय किसी मन्दिर में शिवलिंग की प्रतिमा देखता है तब भला उसके मन में कौन-सा दिव्य इतिहास याद हो आता है? क्या वे जानते हैं कि शिव जी ने भारत को दुःख एवं अशान्ति से स्वतत्रता दिलाई जिसके कारण (सबका कल्याण किया) उन्हें लोग ‘शिव’ नाम से याद करते हैं? विचार करने पर आप इसी निर्णय पर पहुचेंगे कि लोगों की स्मृति-पट पर शिवलिंग के बारे में कोई भी स्पष्ट कहानी अथवा ऐतिहासिक वार्ता अंकित नहीं है। जब लोग सरदार पटेल, शिवाजी, महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक आदि-आदि के बुत देखते हैं तो वे उन्हें प्रसिद्ध ऐतिहासिक व्यक्ति मानते हैं और वे झट उनकी आकृति से उनके बुत को भी पहचान जाते हैं और उनके कर्त्तव्य भी उन्हें याद हो आते हैं, परन्तु शिवलिंग की तो कोई दैहिक आकृति है नहीं और ही प्राप्त इतिहास में उसका कुछ उल्लेख है, इसलिए लोग शिव के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं जानते। आप देखिए कि टूरिस्ट गाईड जब यात्रियों को देहली में राजघाट और कुतुबमनार और आगरा में ताजमहल आदि-आदि स्थानों पर ले जाते हैं तो वे उनसे सम्बन्धित व्यक्तियों का रुचिकर इतिहास यात्रियों को बताते हैं। अब यदि वे यह जानते होते कि शिवलिंग किस परम माननीय की प्रतिमा अथवा दिव्य स्टेच्यू (Angel) है और उसको ‘अमरनाथ’, ‘सोमनाथ’, ‘मुक्तेश्वर’ आदि-आदि नाम क्यों दिये गये हैं तो वे अन्य सभी स्मरण-स्थल अथवा स्मारकों से पहले तो देशी एवं विदेशी यात्रियों को शिव-समाधि अर्थात् शिवलिंग के निकट ले जाते और उसका मधुर एवं महत्त्वपूर्ण परिचय देते। लेकिन शिव का तो परिचय देने वाला कोई भी टूरिस्ट गाईड नहीं है। शिव की प्रतिमा पहले-पहले किसने स्थापित की, शिवरात्रि का उत्सव क्यों मनाया जाता है, शिव के विशेष क्या कर्तव्य हैं? इन बातों पर तो कोई भी विवेक-संगत प्रकाश नहीं डालता, तभी तो आज शिवरात्रि का त्योहार बहुत थोड़े-से लोग मनाते हैं।

परमात्मा शिव का परिचय क्यों ज़रूरी है?

शिव की महिमा में लोग गीत गाते हुए कहते हैं - ‘तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो, तुम्हीं हो बन्धु सखा तुम्हीं हो.....।’ प्रश्न ता है कि उस एक के साथ हमारे सभी सम्बन्ध कैसे हैं? फिर, भक्त लोग कहते हैं - ‘ॐ नम शिवाय।’ इससे स्पष्ट है कि शिव कोई सामान्य रूप से हमारा पिता नहीं है बल्कि वह सबका परमपूज्य है। यदि कोई छोटा बच्चा अपने पिताजी के साथ शिव मन्दिर के निकट से गुजरे और बच्चा शिवलिंग की ओर इशारा करते हुए पूछे - ‘पिताजी, यह क्या है?’ तो पिताजी जवाब देंगे- ‘यह भगवान् की प्रतिमा है इसके आगे माथा टेको।’ परन्तु जिस भगवान् को ‘त्वमेव माताश्चपिता....’ कहते हैं, उसकी जीवन-कहानी को जानना, यह कैसी विचित्र बात है! लौकिक माता-पिता का तो परिचय सबको होता है, परन्तु जिस पिता के नाम ही हैं - ‘मुक्तेश्वर’, ‘पापकटेश्वर’, ‘त्रिभुवनेश्वर’..... उस पिता को जानना, यह कितनी बड़ी भूल है!

आज मनुष्य का जीवन खोखला क्यों है?

मनुष्य बाजार में जाता है तो देखता है कि किसी जगह पर यह साईन बोर्ड लगा है - ‘श्यामलाल आर्किटेक्ट’। दूसरी दुकान पर लिखा है - ‘मनमहन डेन्टिस्ट’ (दाँतों का डॉक्टर)। तीसरी दुकान पर लिखा है - ‘इलेक्ट्रीशियन’ तो वह इन-इन व्यवसाय वालों को याद रखता है ताकि अगर दाँतों में कभी दर्द हो तो वह उस डॉक्टर के पास जाकर इलाज करायेगा। जब मकान का नक्शा बनवाना होगा तो उस आर्किटेक्ट के पास जाकर नक्शा बनवा आयेगा और अगर बिजली-सम्बन्धी कोई कार्य कराना होगा तो उस इलेक्ट्रीशियन के पास पहुचेगा। परन्तु, जैसे उन-उन व्यक्तियों के वह-वह व्यवसायिक नाम हैं, वैसे शिव के तो ऐसे अनेक कर्त्तव्यवाचक नाम हैं जिनसे सिद्ध होता है कि शिव दुःखहर्ता, सुखकर्ता, पापों से मुक्त करने वाले, मनुष्य का कल्याण करने वाले, अमृत पिलाने और काल कंटक तथा संकट दूर करने वाले हैं। तब भला मनुष्य शिव के इन नामों रूपी साइन बोर्डों की ओर क्यों नहीं ध्यान देता? वह परमात्मा शिव के कर्त्तव्यवाचक नामों को जानते हुए भी उसके पास क्यों नहीं पहुंच पाता? जबकि आज वह दुःखी है और सुख चाहता है तो वह परमपिता शिव से सुख क्यों नहीं प्राप्त करता? शिव के बारे में उक्ति प्रसिद्ध है कि ‘शिव के भण्डारे भरपूर, काल कंटक दूर’ तब मनुष्य अपने काल-कंटक दूर करने और भण्डारे भरपूर करने का यह उपाय क्यों नहीं करता? यदि उसे यह परिचय होता तो आज रौनक ही कुछ और होती। यदि उन्होंने उस कल्याणकारी परमपिता का हाथ पकड़ा होता तो आज भारत की यह दशा थोड़े ही होती? स्पष्ट है कि उसे यह ज्ञान ही नहीं है कि ‘परमात्मा शिव कहाँ हैं और उनके पास कैसे पहुंचना है?’ अतः स्पष्ट है कि मनुष्य को परमात्मा शिव का परिचय प्राप्त करने की आवश्यकता है ताकि उसके दुःखों का अन्त हो और उसे सम्पूर्ण सुखों की प्राप्ति हो।

‘शिव’ नाम किसका है और शिवलिंग किसकी प्रतिमा है?

आप जानते होंगे कि शिव को ‘स्वयंभू’ भी कहते हैं, क्योंकि शिव को किसी ने जन्म नहीं दिया बल्कि वह अनादि हैं। उनकी स्मृति में ‘त्वमेव माताश्च पिता त्वमेव....’ आदि-आदि शब्दों से यह स्पष्ट है कि वे ही सर्व-आत्माओं के माता-पिता हैं, उनके कोई माता-पिता या जन्म देने वाले नहीं हैं। शिव ‘त्रिभुवनेश्वर’ हैं, तीनों लोकों के मालिक हैं, उनसे कोई बड़ा भी नहीं है जो उनका नामकरण करे। अतः जो जन्म नहीं लेता, जिनके माता-पिता भी नहीं हैं उनका नाम मनुष्यों की तरह व्यक्तिवाचक अथवा संज्ञावाचक तो हो नहीं सकता। हम मनुष्यों का नाम तो दैहिक जन्म लेने पर हमारे माता-पिता या हमारे बुजुर्ग रखते हैं परन्तु शिव की प्रतिमा से स्पष्ट है कि शिव की तो कोई देह ही नहीं है, कोई उनका दैहिक जन्म होता है, तभी तो वे ‘स्वयंभू’ कहलाते हैं। अतः यह ‘शिव’ नाम कर्त्तव्य-वाचक है। इसे हम एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करेंगे।

‘महाराजा’ शब्द पर विचार कीजिए। यह शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयोग होता है जो किसी देश का शासक हो अर्थात् जिसके अधीन कोई प्रजा हो और कोई देश या भूमि हो। स्पष्ट है कि यह शब्द कर्तव्यवाचक है अथवा यह एक उपाधि है। इसी प्रकार ‘शिव’ शब्द भी कर्त्तव्य-बोध कराता है। जो जगत् का कल्याण करता है, उसी का यह दिव्य अथवा पारमार्थिक नाम ‘शिव’ है।

‘कल्याण’ से क्या अभिप्राय है? मनुष्य को जिस अवस्था में रोग हो, शोक हो, काल हो, हानि, संकट हो, विक्षेप उसकी उस अवस्था को ‘कल्याण की अवस्था’ कहेंगे। अतः स्पष्ट है कि जो स्वयं कल्याण स्वरूप है और कल्याण करता है वह स्वयं अवश्य ही रोग, शोक एवं दुःख-अशान्ति से सदा न्यारा होगा और शान्ति एवं आनन्द का सागर तथा सर्वशक्तिमान् होगा, तभी तो वह जगत् को सुख एवं शान्ति दे सकता होगा और उनके संकट एवं कष्टों का हरण कर सकता होगा। फिर, वह ज्ञानस्वरूप एवं परिपूर्ण भी होगा क्योंकि सब-कुछ जानने वाला ही तो कल्याण का कर्त्तव्य कर सकता है। अतः स्पष्ट है कि ‘शिव’ परमपिता परमात्मा ही का दिव्य नाम है क्योंकि परमात्मा ही ज्ञान का सागर, शान्ति का सागर, आनन्द का सागर और सर्वशक्तिवान हैं। परन्तु देखिये, यह कैसी आश्चर्य की बात है कि आज लोग कहते हैं कि परमात्मा का कोई नाम ही नहीं है। जो सबसे अधिक नामवर है, उसका नाम ही मानना - यह कैसी विडम्बना है! जिसका निशान (शिवलिंग के रूप में स्मरण-चिह्न) है, उसका रूप तो अवश्य होगा ही क्योंकि किसी वस्तु का नाम-निशान मानना तो गोया उसका अस्तित्व भी मानना है। हाँ, जिनके मन में परमात्मा की याद नहीं है, उनकी दृष्टि में तो परमात्मा का कोई नाम-निशान नहीं है क्योंकि आप देखेंगे कि व्यवहार-क्षेत्र में भी जब कुछ मित्र-सम्बन्धी किसी व्यक्ति को भुला देते हैं तो वह व्यक्ति उन्हें उलाहना देते हुए कहता है - आपकी लिस्ट में तो हमारा नाम ही नहीं है। भाव यह है कि आप तो हमारा कभी नाम ही नहीं लेते। यदि किसी का कोई स्मरण-चिह्न, फोटो आदि रखा जाये और उसे किसी भी अवसर पर बुलाया अथवा याद भी किया जाये तो वह व्यक्ति भी उपालम्भ देते हुए कहता है - अजी, आपके पास तो हमारा निशान और पता भी नहीं है। आपने तो हमारा नाम-निशान भी मिटा दिया है! इस मुहावरे को अथवा भाषा के प्रयोग को ध्यान में रखते हुए कहना होगा कि परमात्मा का नाम और रूप है तो सही, परन्तु चूंकि आज लोगों के मन में उसकी स्मृति नहीं है, उसके प्रति वह पहले-जैसी श्रद्धा नहीं है और चूंकि उन्होंने उसे भुला-सा दिया है, इसी अर्थ में कहा गया होगा कि - उसका कोई नाम नहीं है यानी नाम-लेवा नहीं है। व्यवहार में भी जब हम किसी को उलाहना देते हुए ऐसा कहते हैं कि - आपके पास तो शायद हमारा नाम और पता भी नहीं है तो हमारा भाव यही होता है कि आप हमें कभी बुलाते नहीं और हमें याद नहीं करते, पत्र इत्यादि नहीं लिखते। अतः यदि यथार्थता की दृष्टि से देखा जाये तो परमात्मा का तो सबसे ऊंचा और प्रातः स्मरणीय नाम है, परन्तु लोगों ने आज उसे भुला दिया है।

शिवलिंग वास्तव में शिव ही का तो स्मरण-चिह्न है। शिवलिंग का जो आकार है, उससे यह तो स्पष्ट है कि यह किसी देहधारी की अर्थात् किसी मनुष्य या देवता की प्रतिमा नहीं है बल्कि ज्योतिस्वरूप परमात्मा की यादगार है। क्योंकि एक परमात्मा ही हैं जिनकी कोई देह नहीं है। शिवलिंग के जो अन्य नाम - त्रिभुवनेश्वर, मुक्तेश्वर, सर्वेश्वर, गोपेश्वर, रामेश्वर, विश्वनाथ, त्रयम्बकेश्वर, त्रिमूर्ति (अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के भी रचयिता) हैं, वे किसी मनुष्य या देवता के तो हो ही नहीं सकते। परन्तु, कितने आश्चर्य की बात है कि फिर भी बहुत से लोग कहते हैं कि परमात्मा का कोई रूप नहीं है! परमात्मा का यदि कोई रूप नहीं है तो भक्त उसके दर्शनों की कामना क्यों करते हैं, लोग उसके साक्षात्कार के लिए क्यों तरसते हैं और उसके दिव्य प्रत्यक्ष के लिए ‘काशी कलवट’ खाने के लिए भी क्यों तैयार हो जाते हैं? व्यवहार-क्षेत्र में प्रायः ऐसा नहीं होता कि घर में पिताजी का फोटो लगा हो और बच्चा कहे कि ‘पता नहीं यह किस का फोटो है।’ ऐसा तो कोई अनाथ ही शायद कह सकता है। कोई बच्चा कभी यह भी नहीं कहता कि ‘मेरे पिता का कोई नाम भी नहीं और रूप भी नहीं।’ हाँ, यदि बचपन से वह पिता से बिछुड़ गया हो तब वह ऐसा कह सकता है कि मैं अपने पिता का नाम या रूप नहीं जानता। परन्तु आज कितने आश्चर्य की बात है कि मनुष्य कहते हैं कि हमारे परमपिता (परमात्मा) का कोई नाम या रूप नहीं है। किसी मनुष्य के बारे में हम तभी यह कहते हैं कि - उसका तो कोई नाम-निशान भी नहीं है - जब वह मनुष्य लापता अर्थात् गुम हो गया हो या जब हम उससे रुष्ट एवं चिड़े हुए हों। परन्तु परमात्मा के बारे में ऐसा कहना अज्ञानता और धृष्टता का प्रतीक है।

शिव का रूप वृहद् बिन्दु के समान क्यों?

कई लोग कहते हैं कि - परमात्मा शिव स्वयं तो निराकार हैं और सारे मण्डल में व्यापक हैं; शिवलिंग केवल उनका प्रतीक है।’’ वे कहते हैं कि - चूंकि निराकार और सर्वव्यापक परढ़मात्मा को याद करना असम्भव है, अतः निराकार परमात्मा की उपासना की सुविधा के लिए यह अशरीरी मण्डलाकार रूप बनाया जाता है। परन्तु वास्तव में उनकी यह मान्यता ग़लत है। सत्यता तो यह है कि सभी आत्मायें सूक्ष्मातिसूक्ष्म, ज्योतिस्वरूप, अणुरूप अथवा बिन्दु रूप हैं और शिव उन सभी में से परम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ हैं, परन्तु हैं वे भी ज्योति-बिन्दु रूप ही। बिन्दु मण्डलाकार तो होता ही है। ज़ीरो (Zero) अथवा बिन्दु को सदा मण्डलाकार रूप में ही अंकित किया जाता है। चूंकि बिन्दु-जितने परिढ़णाम वाली कोई प्रतिमा तो बन नहीं सकती, अतः भक्ति एवं पूजा के लिए उनकी प्रतिमा एक बड़े मण्डल के आकार वाली बनायी जाती है।

बहुत-से लोग जानते हैं कि शास्त्रों में, उपनिषदों में, आत्मा को ‘अंगुष्ठाकार’ कहा है, परमात्मा को भी अंगुष्ठ मात्र माना है। अंगुष्ठाकार अथवा मण्डलाकार बात एक ही है। बिन्दु रूप होने के कारण ही शिव-पिण्डी को अंगुष्ठाकार अथवा मण्डलाकार बनाया जाता है। शिव पुराण में शिवलिंग की स्थापना में जो विधि-विधान लिखा है, उसमें भी यही बताया गया है कि पूजा के लिए जिस शिव-प्रतिमा की स्थापना की जाये वह पूजक के अंगुष्ठ के बारह गुणा अथवा सोलह गुणा अथवा इतने गुणा हो। कहने का भाव यह है कि उसका माप अंगुष्ठ ही का कोई-न-कोई गुणा होना बताया गया है। यह विधान भी इस बात को प्रमाणित करता है कि आत्मा और परमात्मा को अंगुष्ठाकार मानने के कारण ही पूजा की सुविधा के लिए बनाये गये शिवलिंग का रूप अंगुष्ठाकार तथा अंगुष्ठ-परिमाण से ही गुणित कोई माप होता है। ग्रन्थों में शिव को जौव-जैसा अथवा ओले के आकार वाला भी कहा गया है। इससे भी सिद्ध है कि शिव का वास्तविक रूप ज्योतिमय बिन्दु के रूप सदृश्य होने के कारण ही उस की प्रतिमा इस प्रकार बनायी जाती है।

फिर, आप देखेंगे कि शिव का बिन्दु रूप होने के कारण ‘शिव’ शब्द भी बिन्दु का पर्यायवाचक हो गया है। भारत के कई प्रांतों में ज़ीरो (Zero) अथवा बिन्दु का अंक आने पर लोग ‘ज़ीरो’ कहने की बजाय ‘शिव’ उच्चारण करते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर मोहन-जोदड़ो सभ्यता के प्रांत सिन्ध में भारत के विभाजन के दिन तक भी वहाँ के आदि सनातनी व्यापारी लोग हिसाब-किताब करते समय जब लिखित रकमों को पढ़ते तो अन्य सभी अंकों को तो यथा-आधुनिक रीति से एक, दो, तीन, चार..... इस प्रकार ही पढ़ते, परन्तु जहाँ ज़ीरो का अंक जाता, वहाँ बहुत लोग ‘शिव’ ऐसा पढ़ते। अब यह तो इतिहासकारों ने भी घोषित कर ही दिया है कि मोहन-जोदड़ो सभ्यता के लोग शिव के उपासक थे। अतः उस प्रान्त के लोगों में बिन्दु को ‘शिव’ उच्चारित करने की प्राचीन प्रथा के प्रचलन से स्पष्ट विदित होता है कि वे लोग भी परमात्मा शिव को बिन्दु रूप ही मानते थे।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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