शिवरात्रि ही सभी त्योहारों का माता-पिता है - कैसे?

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कहते हैं कि भारत में हर आये दिन एक-न-एक त्योहार तो होता ही है। तथापि इन त्योहारों में से शिवरात्रि, होली, रक्षाबन्धन, जन्माष्टमी, नवरात्रि, दशहरा और दीपावली ही मुख्य त्योहार हैं। इनके अतिरिक्त संगम अथवा कुम्भ का मेला, बसन्त का मेला और पुरुषोत्तम मास आदि भी मनाये जाते हैं।

आज इन त्योहारों को जिस अर्थ में और जिस रीति से मनाया जाता है, उससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि ये साप्रदायिक त्योहार हैं अर्थात् कोई त्योहार शैव लोगों का, कोई वैष्णवों का तो कोई शाक्त सप्रदाय वालों का है। ऐसा लगता है कि ये त्योहार भिन्न-भिन्न देवताओं या देवियों अथवा भिन्न-भिन्न ऐतिहासिक वृत्तान्तों की याद में मनाये जाते हैं। परन्तु वास्तविकता यह है कि सभी त्योहार शिवरात्रि से निकले हैं और ये सभी किसी-न-किसी तरह परमात्मा शिव के अवतरण काल अर्थात् संगमयुग (कलियुग के अन्त और सतयुग के आदि के संधिकाल) से सम्बन्धित हैं। अतः जैसे परमात्मा सभी आत्माओं से महान् हैं और सभी के माता-पिता हैं तथा सभी को सुख और सद्गति देने वाले हैं, वैसे ही शिवरात्रि भी सभी त्योहारों तथा उत्सवों की माता-पिता है और यदि इसके रहस्य को जानकर इसे यथार्थ रीति से मनाया जाये तो सारे संसार का कल्याण हो सकता है। शायद हमारी इन पंक्तियों को पढ़कर कोई सोचे कि यों ही शिवरात्रि के त्योहार को बढ़ावा दिया जा रहा है। परन्तु वास्तव में यों ही बढ़ावा नहीं दिया जा रहा है बल्कि यह बात सही है, समझने-योग्य है और बहुत ही महत्त्वपूर्ण, रुचिकर तथा कल्याणकारी है। अतः हम संक्षेप में इस विषय को स्पष्ट करेंगे कि शिवरात्रि सभी त्योहारों की माता-पिता कैसे है और सभी त्योहारों का सम्बन्ध शिव के अवतरण काल (संगमयुग) से कैसे है।

शिव कौन हैं और शिवरात्रि किसका स्मरणोत्सव है?

शिव और शिवरात्रि के साथ अन्य त्योहारों का सम्बन्ध स्पष्ट करने के लिए पहले तो यह जानना जरूरी है कि शिव कौन हैं और शिवरात्रि का क्या महात्म्य है। इस विषय में पहले तो यह ज्ञान होना चाहिए कि यहाँ ‘शिव’ शब्द शंकर का पर्यायवाचक नहीं है बल्कि शंकर तो ब्रह्मा और विष्णु की तरह एक देवता हैं परन्तु शिव शुद्ध ज्योतिस्वरूप हैं और अकाय (शरीर-रहित) हैं, जिनकी प्रतिमा भारत में शिवलिंग (लिंग = चिह्न) के रूप में स्थान-स्थान पर मिलती है। शिव तीनों देवताओं के भी रचयिता हैं और इन द्वारा सृष्टि की स्थापना, पालना तथा विनाश करने वाले ‘त्रयम्बकेश्वर’ अथवा ‘त्रिमूर्ति’ हैं, और इन्हें ही ‘विनाश’ तथा ‘महाकालेश्वर’ आदि नामों से भी याद किया जाता है। शिव किसी एक धर्म या सप्रदाय के पूज्य देव नहीं हैं बल्कि ये सभी अमर आत्माओं के परमपिता अमरनाथ हैं। मक्का में इन्हीं का स्मरण चिह्न ‘संगे-असवद’ नाम से मिलता है। कुछ काल पहले यहूदी लोग कोई शपथ लेते समय इसी आकार का एक पत्थर हाथ में लेते थे, शायद वे इसे जिहोवा अर्थात् परमात्मा का स्मरण-चिह्न मानते रहे होंगे और उसे सामने मानकर शपथ लेते होंगे। खोज करने वालों का कहना है कि कुछ समय पूर्व तक लगभग सभी धर्मों के लोगों के यहाँ शिव का स्मरण-चिह्न था जिससे यह प्रतीत होता है कि वे परमात्मा को, इसी तरह का, एक चेतन ज्योति-रूप मानते थे और उसे ‘शिव’ से मिलते-जुलते नाम ‘शिवाजिया’ (फ्रीजिया अथवा फ़ीजी में) ‘शिऊन’ (बेबीलोन में), सिब्रु अथवा शिवु (अमेरीका और पेरुविया में) आदि-आदि नामों से परमात्मा को मानते थे। रोम में शिवलिंग को ‘प्रियपस’ कहते हैं और इटली में गिरजाघर में अभी तक शिवलिंग की प्रतिमा है। भारत में तो अमरनाथ से लेकर रामेश्वर तक शिव की यादगारें हैं ही जो कि यह सत्यता प्रमाणित करती हैं कि शिव श्रीराम के भी पूज्य (रामेश्वर) हैं और श्रीकृष्ण के भी ईश्वर (गोपेश्वर) हैं। स्वयं अद्वैत मत के प्रवर्तक शंकराचार्य ने भी शिवलिंग के स्थापित किये और आज भी चारों पीा के शंकराचार्य शिवलिंग अर्थात् परमात्मा शिव के चिह्न की पूजा करते हैं। अतः यह बात सुनिश्चित कर लेने पर कि शिव तीनों देवों के भी रचयिता, सर्व आत्माओं के परमपिता, सबके परम मान्य परमात्मा ही हैं जिन्हें कि कल्याणकारी होने के कारण गुणवाचक ‘शिव’ नाम से याद किया जाता है, हम अब शिवरात्रि के विषय में कुछ रहस्योद्घाटन करेंगे।

‘रात्रि’ शब्द का अर्थ अज्ञानान्धकार होता है, जब सभी आत्मा-विस्मृति रूपी निद्रा में सोये होते हैं, सभी की बुद्धि तमोगुण से आच्छादित होती है और विकार रूपी लुटेरे मनुष्य के सुख को लूट कर उसे नष्ट-भ्रष्ट कर रहे होते हैं, तब ऐसी रात्रि में परमपिता परमात्मा शिव जगत् के कल्याण के लिए अवतरित होते हैं। ऐसाढ़ समय कलियुग का अन्त ही होता है। कलियुग के अन्त में अवतरित होकर परमपिता परमात्मा शिव ज्ञान रूपी अमृत और योग रूपी प्रकाश द्वारा मनुष्य मात्र को सतोप्रधान एवं स्वरूप-स्थित बनाते हैं, और इस प्रकार सतयुग की शुरूआत होती है। पुराणों में भी लिखा है कि नई सृष्टि की स्थापना के लिए ज्योतिर्लिंगम् शिव ने प्रजापिता ब्रह्मा को रचा और उसके सम्मुख प्रगट हुए और उसी वृत्तान्त की याद में शिवरात्रि का त्योहार मनाया जाता है। अतः याद रहे कि परमात्मा शिव का अवतरण-काल कलियुग के अन्त और सतयुग के आरम्भ का संगम काल है। इन रहस्यों का ज्ञान होने के बाद भारत के अन्य सभी त्योहारों का भी शिवरात्रि से सम्बन्ध स्पष्ट हो जायेगा। अतः अब हम मुख्य मेलों और त्योहारों का वर्णन करते हैं -

संगम अथवा कुम्भ का मेला

ऊपर हम बता आये हैं कि परमपिता परमात्मा ‘शिव’ कलियुग के अन्त और सतयुग के आदि के संगम समय अवतरित होते हैं। तब ही मनुष्यात्माओं का परमप्रिय परमात्मा से मिलन अथवा मेला होता है। उसी की याद में आज लोग संगम का मेला मनाते हैं परन्तु वास्तव में वे उसका असली स्वरूप नहीं जानते। वे कहते हैं कि जब सागर-मन्थन हुआ था तो उसमें से अमृत का कुम्भ निकला था और उसे इन्द्र का बेटा लेकर भागा था तो रास्ते में जहाँ-जहाँ अमृत छलक कर थोड़ा गिरा था, वहाँ-वहाँ कुम्भ का मेला मनाया जाता है। अब सोचने की बात है कि ‘अमृत’ जल की तरह कोई स्थूल पेय पदार्थ थोड़े ही है! अमृत तो ज्ञान ही है क्योंकि ज्ञान द्वारा मनुष्यात्मा मृत्यु अथवा काल से छूट कर अमर देवता पद को प्राप्त होती है। अतः वास्तविकता तो यह है कि ज्ञान-सागर परमात्मा शिव ने कलियुग के अन्त और सतयुग के आदि के संगम में जो ज्ञान दिया था, वही वास्तव में अमृत था। ‘सागर को गागर में बन्द करना’ - यह एक मुहावरा है। परमात्मा तो ज्ञान के सागर हैं, उनके ज्ञान का सार ही मनुष्य की बुद्धि रूपी गागर में अथवा कुम्भ में अथवा कलश में धारण हो सकता है। अतः संगमयुग पर शिव के ज्ञान-सागर का जिन आत्माओं ने मनन (मन्थन) किया, उन्होंने अपने बुद्धि रूपी कुम्भ में अमृत प्राप्त किया और परमात्मा के साथ संगम (मेला) मनाया। उस द्वारा वे सतोप्रधान हुए और उनकी धर्म, अर्थ, मुक्ति आदि की सभी शुभ कामनाएं भी पूर्ण हुई क्योंकि उन्होंने काम-क्रोधादि असुरों पर विजय प्राप्त की। अतः आज भी किसी शुभ कार्य का उद्घाटन करते समय, उसकी सफलता के लिए लोग कलश भर कर रख देते हैं। वास्तव में तो परमात्मा शिव ने प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा तथा सच्चे ब्राह्मणों द्वारा ज्ञान-कलश की स्थापना करके सतयुगी सुखमयी सृष्टि की स्थापना की थी जिसमें कि मनुष्य ‘पूर्ण-काम’ था अर्थात् उसे सब-कुछ प्राप्त था। परन्तु आज लोग जल का मटका भर कर रख देते हैं और समझते हैं कि सब कार्य सिद्ध हो जायेगा। यह भला कैसे हो सकता है? कार्य की सफलता तो ज्ञान द्वारा पवित्र एवं श्रेष्ठाचारी बनने से होगी और ज्ञान तो बुद्धि रूपी कलश में भरना होगा, कि मिट्टी के घड़े में। अतः आज यदि लोगों को ‘संगम’ का, ‘अमृत’ का, ‘कलश’ अथवा ‘कुम्भ’ का, तथा ‘सागर-मंथन’ का सही भावार्थ मालूम होता तो वे कर्म-काण्ड की बजाए ज्ञानामृत बुद्धि में धारण करते अथवा आत्मा को ज्ञान-स्नान कराते कि स्थूल नदियों में स्नान करने जाते। क्योंकि स्थूल नदियों में स्नान करने से आत्मा के पाप नहीं धुलते, ही पुण्य लाभ होता है। आत्मा तो ज्ञान द्वारा ही पावन होती है, तभी तो कहा गया है कि - ज्ञान बिना गति नहीं है। तो स्पष्ट रहे कि शिव का अवतरण-काल ही संगम है, ज्ञान-सागर शिव के ज्ञान का मनन ही सागर-मन्थन है, उससे प्राप्त ज्ञानामृत को बुद्धि रूपी कलश में धारण करने से ही सफलता मिलती है और संगमयुग में मिले ज्ञान में स्नान करने से ही आत्मा पावन होती है। और ब्राह्मणियों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने का दृढ़ संकल्प कराते हैं। अतः काम रूपी महाशत्रु से आत्म-रक्षा करने के लिए शिव बाबा सभी को ज्ञान-सूत्र अथवा योग की डोर बांधते हैं। इस ज्ञान को प्राप्त करके नर-नारी आत्मिक दृष्टि और सतोगुणी वृत्ति से व्यवहार करते हैं, अर्थात् काम-कटारी द्वारा आघात करना बन्द कर देते हैं और स्वयं को भी ‘काम’ के आक्रमण से रक्षित करते हैं। परन्तु रक्षा-बन्धन का यह आध्यात्मिक और आदिम रहस्य जानने के कारण आज यह केवल एक रस्म-मात्र बन गया है जबकि बहनें अपने भाइयों को या ब्राह्मण अपने यजमानों को मौली बाँध कर अपना कर्त्तव्य समाप्त मानते हैं, हालांकि रक्षा-बन्धन के ‘विषतोड़क पर्व’ तथा ‘पुण्य प्रदायक पर्व’ ये जो नाम हैं, इनसे ही प्ष्ट है कि यह ‘काम विकार’ रूपी विष को छोड़कर ज्ञानामृत द्वारा पुण्यात्मा बनने का पर्व है। पुनश्च, यह जो आख्यान चला आता है कि इन्द्राणी ने इन्द्र को राखी बाँधी थी और इसके फलस्वरूप इन्द्र को असुरों पर विजय प्राप्त हुई थी और स्वर्गिक राज्य मिला था यह भी इस बात को सिद्ध करता है कि यह त्योहार ब्रह्मचर्य की रक्षा अथवा मन-वचन-कर्म की पवित्रता की रक्षा का द्योतक है क्योंकि पवित्रता वा श्रेष्ठाचार द्वारा ही मनुष्य स्वर्गिक राज्य-भाग्य को प्राप्त करता है। ‘पतित-पावन’ तो एक परमात्मा शिव ही हैं जिन्हें कि ‘पापकटेश्वर’ भी कहा गया है और वही यह कर्तव्य तभी करते हैं जबकि सारी सृष्टि पतित अथवा विषय-विकारों के अधीन हो जाती है अर्थात् जब कलियुग का अन्त जाता है और सतयुगी स्वर्गिक राज्य की स्थापना करनी होती है। अतः परमपिता शिव के साथ तथा संगमयुग के साथ इस पवित्र त्योहार का सम्बन्ध भी स्पष्ट है और यह भी स्वतः प्रमाणित है कि शिवरात्रि का त्योहार इस त्योहार का माता-पिता है।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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