हम इस बार शिवरात्रि कैसे मनायें, शिव के पास कैसे पहुंचें और वरदान कैसे लें?

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वास्तव में ‘रात्रि’ शब्द हर चौबीस घण्टे में एक बार आने वाले अन्धकारमय काल-भाग का नाम नहीं है बल्कि यह शब्द यहाँ एक अलंकार के रूप में अथवा उपमा के तौर पर प्रयोग किया गया है। जब ‘रात्रि’ शब्द अलंकार के रूप में प्रयोग होता है तो यह अन्याय, अत्याचार, लूट-खसूट, मारधाड़ अथवा धर्म-भ्रष्टता एवं पतन का वाचक होता है। उदाहरण के तौर पर आपने हज़ार बार सुना होगा कि जब किसी के साथ कोई खुले आम अन्याय करता है अथवा अत्याचार या लूट-खसूट, धोखेबाज़ी, नकल या बनावट-मिलावट पर उतर आता है तो वह पीड़ित व्यक्ति कहता है - अरे भाई, तुमने तो दिन दहाड़े लूट मचा रखी है! अरे, दिन में अन्धेर! तुमने तो दिन में रात मचा रखी है; ऐसा अन्धेर तो रात्रि में भी नहीं होता जो तुमने दिन में कर रखा है!!! इस प्रकार के प्रचलित प्रयोग से सिद्ध है कि ‘रात्रि’ शब्द अन्धेर, अन्याय, अत्याचार, धोखाबाज़ी और मारधाड़ का पर्यायवाचक है, तभी तो ऐसे पाप करने वाले व्यक्ति को लोग जब भाँप लेते हैं तो कहते हैं- वाह, भाई वाह! आपने रात समझ रखी है; अभी तो दिन है, देखो तो सही क्या अन्धेर मचा रखा है....!’’

तो सारे कल्प में जब ऐसा समय जाता है जबकि मनुष्य लुटेरे, आततायी, धर्म-भ्रष्ट और निशाचर अर्थात् रात्रि के भूत-जैसे काम करने वाले, धर्म-भ्रष्ट एवं कर्म-भ्रष्ट हो जाते हैं, जब संसार में हाहाकार मच जाता है। तब चूंकि सदा जागती ज्योति परमात्मा शिव इस धरा पर मानव-मात्र का कल्याण करने के लिए अवतरित होते हैं; इसलिए इस ‘रात्रि’ को लोग बाद में ‘शिवरात्रि’ के नाम से याद करते हैं और हर वर्ष उस सर्व-महान् वृत्तान्त की स्मृति में त्योहार मनाते हैं।

कहावत भी है कि - ‘परिस्थितियाँ पुरुष को जन्म देती हैं।’ इस उक्ति के अनुसार जब संसार की परिस्थितियाँ अत्यन्त धर्म-भ्रष्टता एवं पतन के वातावारण से परिपूरित होती हैं तब पुरुषोत्तम अथवा परमात्मा शिव का अवतरण होता है। इसी उक्ति के अनुरूप ही ‘शिवरात्रि’ नाम रखा है। इसका भाव यह है कि अन्य जो धर्म-स्थापक संसार में आते हैं, उनके समय में फिर भी कुछ कम अन्धेर होता है, कुछ कम भ्रष्टता होती है, परन्तु परमात्मा शिव का अवतरण तभी होता है जब सारे संसार में घोर धर्म-संकट हो। सभी नर-नारी ‘निशाचर’ अथवा पतित बन गये हों और घोर अज्ञानान्धकार चहुँ ओर छाया हो। महान् आत्माओं का महान् ही कर्त्तव्य होता है, परमात्मा का कर्त्तव्य भी ‘परम’ अर्थात् सर्वमहान् है। अतः उनका शुभागमन तभी होता है जब सभी अशुभ हों, अमंगलमय स्थिति में हों एवं अत्यन्त पीड़ित हों।

‘कलियुग’ और ‘रात्रि’ - ये दोनों समानार्थक हैं

ऐसा समय तो कलियुग का अन्तिम चरण ही होता है। ‘कलियुग’ और ‘रात्रि’- ये दोनों समान अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। आप देखेंगे कि जैसे पापाचार एवं अन्याय-अत्याचार के प्रसंग में यह कहा जाता है कि इसने तो दिन में रात्रि बना रखी है, वैसे ही ‘कलियुग’ का प्रयोग भी अत्याचार, अन्याय, छल-कपट एवं आसुरियता के प्रकरण में होता है। उदाहरण के तौर पर जब कोई व्यक्ति अपने किसी धर्म-प्रिय मित्र से कहता है कि - देखो भाई! कैसा ज़माना गया है! आजकल तो खुलमखुल्ला दिन-दहाड़े ही रिश्वत ली जा रही है, अन्याय हो रहा है, डाके डाले जा रहे हैं और लाज लूटी जा रही है’’, तो वह कहता है - भाई, क्या आप भूल गए हैं कि यह कलियुग है? कलियुग में तो ये सब होता ही है; यह कोई सतयुग थोड़े ही है? अतः ‘रात्रि’ और ‘कलियुग’ - इन दोनों के इस प्रकार के प्रचलित प्रयोग से स्पष्ट है कि कलियुग की अन्तिम वेला में अवतरण के कारण ही ‘शिवरात्रि’ - ऐसा नाम रखा गया है। कलियुग रूपी रात्रि में ही शिव का इस पृथ्वी पर शिवलोक से आगमन अथवा अवतरण होता है। शिव के ‘दुःखहर्त्ता’, ‘सुखकर्त्ता’ अथवा ‘हर-हर’ आदि उपनाम भी तभी सार्थक सिद्ध होते हैं क्योंकि कलियुग के अन्त में जन-जन के दुःख हरकर वह सुख करता है अर्थात् सतयुग की स्थापना करता है। शिव युग-प्रवर्तक हैं, वह युग-पुरुष, नहीं-नहीं, कल्प-पुरुष हैं। रात्रि के भी मध्यकाल में, 12 बजे शिव का उत्सव मनाना यही सिद्ध करता है कि अधर्म की पराकाष्ठा के काल में अर्थात् कलियुग के अन्तिम चरण में शिव का अवतरण होता है।

शिव के अवतरण-दिवस की कोई तिथि क्यों नहीं?

विचार करने पर आप इस परिणाम पर पहुचेंगे कि अन्य जो महान् आत्माएं हैं, उनके दिव्य जन्म-दिवस प्रायः किसी तिथि से संलग्न हैं। उदाहरण के तौर पर श्रीराम के जन्म-दिन को ‘रामनवमी’ कहा जाता है क्योंकि वह चैत्र मास की नवमी तिथि को मनाया जाता है। इसी प्रकार, श्रीकृष्ण के जन्म-दिवस को ‘श्रीकृष्ण जन्माष्टमी’ नाम से लोग जानते हैं क्योंकि लोग श्रीकृष्ण का जन्म भादों मास की अष्टमी तिथि को मानते हैं। अब प्रशन ता है कि जबकि अन्य महान् पुरुषों के जन्मदिन किसी तिथि से युक्त किये जाते हैं, परमपुरुष अथवा परमात्मा शिव का जन्म-दिवस किसी तिथि से क्यों नहीं जोड़ा जाता? इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि श्रीराम अथवा श्रीकृष्ण का जन्म तो दैहिक जन्म है, वे शिशु-तन लेकर किसी माता-पिता के यहाँ पालन-पोषण लेते हैं। वे माता-पिता उनके इस जन्म-दिन को जानते हैं। परन्तु परमात्मा शिव तो स्वयंभू हैं, वे श्रीराम अथवा श्रीकृष्ण की भाँति किसी माता-पिता के यहाँ शिशु-तन में जन्म नहीं लेते बल्कि वे तो एक साधारण, वयोवृद्ध मनुष्य के तन में दिव्य प्रवेश करते हैं अर्थात् स्वयं ही साकार (स्वयंभू) होते हैं। जिस मनुष्य के तन में वे अवतरित होते हैं, उसको वे ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ नाम देते हैं,1 उसका अपना जन्म तो वर्षों पहले हो चुका होता है और अब जब अव्यक्त मूर्त, ज्योति-स्वरूप परढ़मात्मा शिव उसमें प्रवेश अथवा सन्निढ़वेश करते हैं तो अन्य कोई तुरन्त ही इस आध्यात्मिक अवतरण को जान ही नहीं पाता। दूसरा कारण यह है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण की महान् आत्मायें तो एक बार जन्म लेती अथवा शरीर धारण कर लेती हैं परन्तु परमात्मा शिव जिस तन में अवतरित होते हैं, वे उस तन में उस मनुष्य की आयु-पर्यन्त नहीं रहते बल्कि प्रतिदिन कुछ समय के लिए अपने शिवलोक से आते हैं और उसके मुख-रूप उपकरण का प्रयोग करके अगम-निगम का भेद खोलकर पुनः शिवलोक को चले जाते हैं। अतः उनका अवतरण किसी एक तिथि से संगत नहीं किया जाता। फिर भी फाल्गुन मास वर्ष का अन्तिम मास होता है और इस कारण वह कल्प के अन्तिम युग अर्थात् कलियुग का प्रतीक होता है और कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि कलियुग के भी अन्तिम चरण की सूचक होती है और उसमें भी अर्द्ध रात्रि का समय अत्यन्त तमोप्रधानता का द्योतक होता है। अतः शिव के अवतरण का दिन किसी तिथि के साथ युक्त होकर ‘शिवरात्रि’ नाम से जाना जाता है परन्तु कलियुग के अन्त के समय को सूचित करने के लिए यह फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को, अन्धकारमयी रात्रि में मनाया जाता है।

शिव से मिलन कैसे मनायें और वरदान कैसे पायें?

हम पीछे बता आये हैं कि शिव का कोई शारीरिक अथवा सांसारिक रूप नहीं है, बल्कि दिव्य एवं आत्मिक रूप - दिव्य ज्योति स्वरूप है। अतः मालूम रहे कि हम परमात्मा शिव से तभी मिल सकते हैं जब हमें किसी भी सांसारिक रूप की स्मृति आये, और जब हम स्वयं भी आत्मिक स्वरूप में स्थित हों क्योंकि नियम यह है कि अव्यक्त स्थिति में टिक कर ही अव्यक्त को देखा जा सकता है। यदि हम स्वयं के शरीर के भान में टिके होंगे अथवा सांसारिक रूपों की स्मृति में होंगे अर्थात् किसी-न-किसी शरीरधारी ही की स्मृति में होंगे तो हम अशरीरी अर्थात् निराकार परमात्मा से मनोमिलन नहीं मना सकते। हम यह तो स्पष्ट कर ही आये हैं कि ‘शिव’ का कोई कायिक रूप नहीं है बल्कि उनका रूप आत्मा के रूप-जैसा बिन्दु के आकार वाला है। अतः हम भी जब बिन्दु-स्थिति में होंगे तभी उस परमपिता से आनन्दमय मिलन का आत्मिक, अभूतपूर्व एवं अत्यन्त अनमोल सुख ले सकेंगे। ‘शिव’ तो एक है, बाकी सबमें तो आज काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि में से किसी-न-किसी प्रकार का विष भरा हुआ है। अतः यदि हम कल्याण एवं आनन्द के इच्छुक हैं तो हमें अपने मन को विष से हटाकर, शिव में ही उसका एकीकरण करना होगा और परम आत्मा से मिलन मनाने के लिए देह की सुधि-बुधि भुलाकर आत्मा-भाव में टिकना होगा। अहा! तभी जीवन का सच्चा सुख मिलेगा, सर्व मनोरथों में से सच्चा मनोरथ पूरा होगा, सभी रसों से उत्तम रस प्राप्त होगा, सभी सम्बन्धों का सामूहिक एवं सच्चा सम्बन्ध मिलेगा और लक्ष्य की सिद्धि होगी।

हम बता आये हैं कि परमात्मा शिव ही ‘पापकटेश्वर’ और ‘मुक्तेश्वर’ भी हैं। वह ही कल्याण करने वाले तथा काल-कंटक दूर करने वाले हैं। परन्तु यह जानने से क्या लाभ है? जैसे डाक्टर के पास जाकर रोगी दवाई लेता है, वैसे ही आप भी तो परमात्मा शिव के पास जाकर अमर वरदान ले आइये ताकि सदा के लिए रोग-शोक, जरा-मृत्य और दुःख-अशान्ति से छूट जायें।

हम शिव के पास जायें कैसे?

आप पूछेंगे कि परमात्मा शिव के पास हम जायें कैसे और उनसे वरदान कैसे लें? शिव परमात्मा तो अशरीरी हैं। अतः मालूम रहे कि उनके पास बिन-पग अर्थात्, पाँव-बिना ही जाना होता है और बिन-कर अर्थात् हाथों के बिना ही उस दाता से लेना होता है। आप कहेंगे कि पॉंव के बिना भला हम उसके पास कैसे जायेंगे और हाथों के बिना उससे कैसे वरदान लेंगे?

देखो, शरीर के पास शरीर से जाना होता है और जिसका शरीर ही हो उसके पास बिना शरीर के जाना होता है। अतः पहले तो आप देह-अभिमान छोड़ो अर्थात् यह भूलो कि आप देह हो, बल्कि यह याद करो कि आप ‘आत्मा’ हो। आत्मिक नाते से ही आपका शिव परमात्मा के साथ सम्बन्ध है, इसी नाते से ही आपका उनसे मिलना होगा। अतः आत्मा के स्वरूप में स्थित होवो। परमात्मा के पास जाने का साधन तो मन ही है। अतः मन रूपी पाँव से शिव बाबा के पास जाओ और बुद्धि रूपी हाथों द्वारा उससे वरदान लो। मन द्वारा तो आप बहुत तीव्र गति से जा सकते हैं।

आप पूछेंगे कि मन द्वारा कैसे जायें, कहाँ जायें? देखो, वैसे भी संसार में जिसके साथ स्नेह होता है, उसके बारे में मनुष्य कहता है कि ‘मेरा मन तो उसके पास है। मेरा तन भले ही यहाँ है, परन्तु मन तो वहाँ लगा रहता है।’ तो जबकि शिव परमात्मा से हमारा स्नेह है, हमारा तन यहाँ रहते हुए भी मन वहाँ जा सकता है। हम संसार में माता से, पिता से, सखाओं से, शिक्षकों आदि-आदि से स्नेह कर सकते हैं परन्तु परमात्मा शिव तो हमारे माता-पिता, सखा-सुहृद सभी-कुछ हैं। अतः उनके साथ तो हमारा सभी नातेदारों के सामूहिक स्नेह से कई गुणा अधिक स्नेह होना चाहिए। परन्तु यदि, उतना ज़्यादा स्नेह नहीं भी है तो कम-से-कम उन सभी के सामूहिक स्नेह जितना तो होना ही चाहिए क्योंकि उनके साथ तो हमारे सभी नाते हैं। परन्तु आश्चर्य की बात देखिए कि आजकल लोग कहते हैं कि - जब हम परमात्मा शिव को याद करने बैते हैं तो हमें अपनी माता, पत्नी, भगिनी अथवा बच्चा याद जाता है। देखिये तो, उन सभी के सामूहिक प्यार जितना प्यार होना तो एक ओर रहा, आज उनमें से एक के जितना भी प्यार नहीं है, तभी तो परमात्मा की बजाय देह के नाते याद आते हैं। इसका कारण यह है कि स्वयं देह-भान में होते हैं। यदि देह को ही भूलकर आत्मा-निश्चय में स्थित हों तो दैहिक नातेदारों की बजाय आत्मा के पिता परमात्मा ही की याद आती रहेगी।

अब हमें यह तो मालूम है ही कि सूर्य और तारागण से भी पार जो परमधाम, ब्रह्मलोक अथवा शिवलोक है जहाँ पर कि प्रकाश ही प्रकाश है, उसमें ज्योति-बिन्दु परमात्मा शिव वास करते हैं, तो सहज ही स्नेह-पूर्ण रीति से हमारा मन वहाँ जाना चाहिए। वहाँ से ही तो हम सब इस संसार में आये हैं और वहाँ ही हम सभी को जाना भी हैं; अतः अब वहाँ ही हमें पहले मन से जाना चाहिए। संसार की भी यह रीति है कि जहाँ मनुष्य को जाना होता है पहले तो वहाँ उसका मन जाता है, पीछे वह स्वयं वहाँ पहुचता है। तो अब जब हम मन की लग्न शिव बाबा से लगायेंगे और बुद्धि द्वारा उसमें मग्न हो जायेंगे तो इस स्नेह रूपी तार के द्वारा हमें उस सर्वशक्तिमान् द्वारा शक्ति रूपी लाइट-माइट मिलेगी और हमारी बुद्धि के सभी भण्डारे भरपूर हो जायेंगे।

उस लाइट और माइट द्वारा ही हमारे विकर्म दग्ध होंगे और विकर्म दग्ध होने से ही हम मुक्ति को प्राप्त होंगे। अतः शिव के साथ मन से लग्न लगाकर मग्न हो जाना ही उस पापकटेश्वर से पाप काटने की सहायता लेना तथा उस मुक्तेश्वर से मुक्ति का वरदान पाना है। परन्तु आज इस सूक्ष्म विधि-विधान को कोई जानता ही नहीं है, इसलिए ही संसार शिव के अमर वरदान से वंचित है।

आज दिन में भी रात्रि है!

आज आप देखिये कि पहले संसार में रात्रि में जो-कुछ होता था, आज वह दिन में भी होता है। पहले रात को चोरी होती थी, आज दिन में भी होती है। इनकम टैक्स की चोरी, सेल्स टैक्स की चोरी - यह सब भी तो चोरी ही है। कुछ काल पहले लोग रात्रि को वासना-भोग करते थे, आज दिन में भी काम-विकार का व्यवहार होता रहता है। मनुष्य की दृष्टि-वृत्ति में आज सारा दिन काम-विकार ही तो समाया हुआ है और घर-घर में काम-कटारी चलती है। दिन में डाका भी पड़ता है, शराब भी पी जाती है, सब बुराइयाँ होती हैं। पहले लोग दिन में कार्य-धन्धा करते थे और रात्रि में सोते थे परन्तु अब तो कई लोग दिन में सोते और रात्रि में कार्य करते हैं। अतः आज तो दिन में भी रात है। ऐसा ही समय वास्तव में शिवरात्रि है। जब सब मर्यादाएं भी भंग हो जाती हैं, तब फिर से सर्वोत्तम, सतयुगी मर्यादा स्थापित करने के लिए परमपिता परमात्मा शिव आते हैं। आज वही समय है। भले ही सूर्योदय होने पर हम समझते हैं कि दिन चढ़ आया है, परन्तु यहाँ छाया हुआ तो पूरा अन्धेरा ही है। तो यहाँ पूरी रात्रि अर्थात् तमोप्रधानता ही है। अतः अब पुनः परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित होकर अपना दिव्य कर्त्तव्य कर रहे हैं। अब वास्तविक अर्थ में हम 85वीं शिवरात्रि मना रहे हैं, क्योंकि 85 वर्षों से यह कर्त्तव्य चल रहा है। परन्तु चूंकि शिव अदेह हैं, अतः उनका दिव्य जन्म इन स्थूल नेत्रों द्वारा दृश्यमान होने से देह-अभिमानी लोग इस परम सत्य एवं अत्यन्त हर्षपूर्ण वार्ता को समझ नहीं पाते और लाभ नहीं पाते। फिर भी जन-जन के कल्याण के लिए हम समस्त संसार को शंख-ध्वनि से कहते हैं कि अब शिव बाबा इस धरा पर कर्त्तव्य कर रहे हैं, आप भी उस पापकटेश्वर एवं मुक्तेश्वर से अमर वरदान लीजिए। इस बार इस वास्तविक रीति से शिवरात्रि मनाइये।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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