महाशिवरात्रि किंवा त्रिमूर्ति शिव जयन्ती

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ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के भी रचयिता, निराकार, स्वयंभू, सर्वशक्तिवान, ज्ञानसागर, पतित पावन, परमप्रिय, परमपूज्य परमपिता परमात्मा शिव का दिव्य जन्म मानव मात्र के कल्याणार्थ होता है। अतः ‘शिव’ शब्द ही कल्याण का वाचक हो गया है। सर्व आत्माओं का सदा कल्याण करने के कारण वे ‘सदाशिव’ कहे जाते हैं। उनका दिव्य-जन्मोत्सव ही हीरे-तुल्य है जिसकी तुलना में अन्य सभी जयन्तियाँ कौड़ी-तुल्य हैं। लेकिन तमोप्रधानता के कारण इस युग में मनुष्य अपनी तथा अन्य मनुष्यों की जयन्तियाँ तो धूमधाम से मनाते हैं परन्तु कल्याणकारी शिव जयन्ती मनाने में कोई उत्साह नहीं दिखाते। कुछ लोग मनाते भी हैं तो अन्धश्रद्धालु की तरह क्योंकि इसके आध्यात्मिक रहस्य से वे परिचित नहीं हैं। अतः यह आवश्यक है कि महाशिवरात्रि के आध्यात्मिक रहस्यों पर प्रकाश डाला जाये।

शिवरात्रि ‘रात्रि’ में क्यों? ‘रात्रि’ शब्द किस स्थिति का वाचक है?

अन्य सभी जयन्तियॉं दिन में मनाते हैं लेकिन निराकार परमात्मा शिव की जयन्ती रात्रि में मनाते हैं। वह भी फाल्गुन में कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में, जबकि घटाटोप अन्धकार छाया होता है। वस्तुतः ज्ञानसूर्य, पतित-पावन परमात्मा शिव का अवतरण धर्मग्लानि के समय होता है जब चतुर्दिप् घोर अज्ञान-अन्धकार छाया रहता है तथा विकारों के वशीभूत होकर मनुष्य दुःखी एवं अशान्त हो ते हैं तब ज्ञानसागर परमात्मा शिव आकर ईश्वरीय ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं जिससे रचयिता तथा रचना के आदि-मध्य-अन्त का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य इस जीवन में अतीन्द्रिय आनन्द की तथा भविष्य में नर से श्रीनारायण और नारी से श्रीलक्ष्मी पद की प्राप्ति  करते हैं।

शिव पर अप् और धतूरा क्यों चढ़ाया जाता है?

अन्य देवताओं पर तो कमल, गुलाब या अन्य सुगन्धित पुष्प चढ़ाते हैं लेकिन पतित पावन परमात्मा शिव पर अक, धतूरे का रंग गन्धहीन पुष्प चढ़ाते हैं। क्या आपने कभी विचार किया है कि ऐसा क्यों? वास्तव में जब पतित पावन परमात्मा शिव पतित, तमोप्रधान, कलियुगी, आसुरी सृष्टि पर पावन, सतोप्रधान, सतयुगी दैवी स्वराज्य की पुनर्स्थापना के लिए अवतरित होते हैं तो सभी जीवात्माओं से काम-क्रोधादि पंच विकारों का दान मांगते हैं। जो नर-नारी जीवन में दुःख-अशान्ति पैदा करने वाले पंच विकारों को परमात्मा शिव पर चढ़ा देते हैं, वे निर्विकारी बन पावन, सतयुगी दैवी स्वराज्य के अधिकारी बनते हैं। इसी की स्मृति में, भक्ति मार्ग में परमात्मा शिव पर अक्-धतूरे का फूल चढ़ाते हैं। पौराणिक कथा भी है कि भगवान् शिव ने मानवता की रक्षार्थ विष पान किया था। ‘काम विकार’ ही तो वह विष है जिसने मानवमात्र को काला, तमोप्रधान बना दिया है। सारे कुकर्मों की यही जड़ है। अति कामुकता ने आज जनसंख्या-विस्फोट की समस्या उत्पन्न कर दी है। वस्तुतः काम की विषैली ज्वाला में जलकर ही यह सृष्टि स्वर्ग से नर्प में, अमरलोक से मृत्युलोक में परिणत हो जाती है। श्रीमद्भगवद्गीता की शब्दावली में ‘काम-क्रोध नरक के द्वार’ हैं। कहते भी हैं कि ब्रह्मचर्य के बल से देवताओं ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की थी। कामारि तो परमात्मा शिव ही हैं जिन्होंने तीसरा नेत्र खोलकर काम को भस्म किया था। कलियुग के अन्त और सतयुग के आदि के कल्याणकारी पुरुषोत्तम संगमयुग पर जब ज्ञानसागर, पतित पावन, निराकार परमात्मा शिव अवतरित होते हैं तो प्रायःलोप गीता-ज्ञान की शिक्षा देकर मनुष्यात्माओं का, ज्ञान का तृतीय नेत्र खोलते हैं जिसकी प्रखर ज्वाला में कामादि विकार जलकर भस्म हो जाते हैं। फिर आधा कल्प अर्थात् सतयुग-त्रेता में इन विकारों का नाम-निशान भी नहीं रहता। शास्त्र भी कहते हैं कि द्वापर में कामदेव का पुनढ़र्जन्म हुआ था।

शिव की सवारी किसका प्रतीक है?

परमपिता परमात्मा शिव के साथ एक नन्दीगण भी दिखाते हैं। कहते हैं कि भगवान् शिव की सवारी बैल है। इसका भी लाक्षणिक अर्थ है। परमात्मा अजन्मा हैं। उनका जन्म माँ के गर्भ से नहीं होता। विश्व-पिता का कोई पिता नहीं हो सकता। उनका जन्म दिव्य और अलौकिक होता है। वे स्वयंभू हैं। कलियुग के अन्त में धर्मस्थापनार्थ स्वयंभू निराकार परमात्मा शिव का अवतरण होता है अर्थात् वे एक साकार, साधारण मनुष्य तन में प्रवेश करते हैं। परमात्मा के दिव्य प्रवेश के पश्चात् उनका नाम पड़ता है - ‘प्रजापिता ब्रह्मा’। निराकार परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के साकार माध्यम द्वारा प्रायःलोप गीता-ज्ञान तथा सहज राजयोग की शिक्षा देकर मनुष्यात्माओं को तमोप्रधान से सतोप्रधान बना, सतोप्रधान सतयुगी सृष्टि की पुनर्स्थापना करते हैं। इसलिए परमात्मा के साथ ब्रह्मा को भी स्थापना के निमित्त माना जाता है तथा शिव के साथ ब्रह्मा के प्रतीक रूप नन्दीगण की प्रतिमा भी स्थापित की जाती है।

शिवलिंग पर तीन रेखायें क्यों अंकित की जाती हैं?

शिवलिंग पर सदा तीन रेखायें अंकित करते हैं। शिवलिंग पर सदा तीन पत्तों वाला बेलपत्र भी चढ़ाते हैं। वस्तुतः परमात्मा शिव त्रिमूर्ति हैं अर्थात् ब्रह्मा-विष्णु-शंकर के भी रचयिता हैं। वे करन-करावनहार हैं। ब्रह्मा द्वारा सतढ़युगी दैवी सृष्टि की स्थापना कराते हैं, शंकर द्वारा कलियुगी आसुरी सृष्टि का विनाश कराते हैं तथा विष्णु द्वारा सतयुगी दैवी सृष्टि की पालना कराते हैं। जब परमात्मा का अवतरण होता है तब साथ ही इन तीन देवताओं का कार्य भी सूक्ष्मलोक में आरम्भ हो जाता है। अतः शिव जयन्ती ही ब्रह्मा-विष्णु-शंकर जयन्ती है तथा गीता-जयन्ती भी है। क्योंकि अवतरण के साथ ही परमात्मा शिव गीता-ज्ञान सुनाने लगते हैं।

शिव-विवाह के बारे में वास्तविकता

बहुत-से लोग शिवरात्रि को शिव-विवाह की रात्रि मानते हैं। इसका भी आध्यात्मिक रहस्य है। निराकार परमात्मा शिव का विवाह कैसे? यहाँ यह स्पष्ट समझ लेना आवश्यक है कि शिव और शंकर दो हैं। ज्योति-बिन्दु ज्ञान-सिन्धु निराकार परमपिता परमात्मा शिव ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के भी रचयिता हैं। शंकर सूक्ष्मलोक के निवासी एक आकारी देवता हैं जो कि कलियुगी सृष्टि के महाविनाश के निमित्त बनते हैं। शंकर को सदा तपस्वी रूप में दिखाते हैं। अवश्य इनके ऊपर कोई है जिनकी ये तपस्या करते हैं। निराकार परमात्मा शिव की शक्ति से ही ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर स्थापना, पालना और विनाश का कर्त्तव्य करते हैं। सर्वशक्तिवान परमात्मा शिव के विवाह का तो प्रश्न ही नहीं ता। वे एक हैं और निराकार हैं। हाँ, आध्यात्मिक भाषा में जब सभी आत्माएँ रूपी सजनियाँ जन्म-मरण के चक्र में आते-आते शिव साजन से विमुख होकर घोर दुःखी और अशान्त हो जाती हैं तब स्वयंभू, अजन्मा परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के साकार साधारण वृद्ध तन में दिव्य प्रवेश करते हैं और आत्मा रूपी पार्वतियों को अमर कथा सुनाकर सतयुगी अमरलोक के वासी बनाते हैं जहाँ मृत्यु का भय नहीं होता, कलह-क्लेश का नाम-निशान नहीं रहता तथा सम्पूर्ण पवित्रता-सुख-शान्ति का अटल, अखण्ड साम्राज्य होता है। पुरुषोत्तम संगमयुग पर भूली-भटकी आत्माओं का परम प्रियतम परमात्मा शिव से मंगल-मिलन ही शिव-विवाह है। अतः भगवान् शिव का दिव्य-जन्मोत्सव ही उनका आध्यात्मिक विवाहोत्सव भी है।

वर्तमानकाल में परमपिता शिव का अवतरण

अब पुनः धर्म की अति ग्लानि हो चुकी है तथा तमोप्रधानता चरम सीमा पर पहुंच चुकी है। सर्वत्र घोर अज्ञान-अन्धकार फैला हुआ है। घोर कलिकाल की ऐसी काली रात्रि में सतयुगी दिन का प्रकाश फैलाने के लिए ज्ञानसूर्य, पतित-पावन परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के साकार, साधारण, वृद्ध तन में पुनः अवतरित हो चुके हैं और इस वर्ष हम उनके दिव्य अवतरण का प्रतीक, 85वीं शिव जयन्ती मना रहे हैं। आप सभी जन्म-जन्मान्तर से पुकारते आये हैं कि हे पतित पावन परमात्मा, आकर हमें पावन बनाओ। आपकी पुकार पर विश्वपिता परमात्मा इस पृथ्वी पर मेहमान बनकर आये हैं और कहते हैं - बच्चो! मुझे काम, क्रोधादि पांच विकारों का दान दे दो तो तुम पावन, सतोप्रधान बन नर से श्रीनारायण तथा नारी से श्रीलक्ष्मी पद की प्राप्ति कर लोगे। शिवरात्रि पर सभी व्रत करते हैं तथा रात्रि का जागरण भी करते हैं। वस्तुतः पंच विकारों के वशीभूत होने का व्रत ही पवित्र व्रत है और माया की मादक किन्तु दुःखद नींद से जागरण ही सच्चा जागरण है। ज्ञानसागर परमात्मा हमें प्रायःलोप गीता-ज्ञान सुनाकर ‘पर’ धर्म अर्थात् शरीर के धर्म से ऊपर , ‘स्वधर्म’ अर्थात् आत्मा के धर्म में टिका रहे हैं। अतः आइये अब हम ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयोग की शिक्षा द्वारा पंच विकारों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ‘स्वधर्म’ में टिकने अर्थात् आत्माभिमानी बनने का सच्चा व्रत लें और आनन्द सागर निराकार परमात्मा शिव की आनन्ददायिनी स्मृति में रह उस अनुपम, अलौकिक अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति करें जिसके लिए गोप-गोपियों का इतना गायन है। निराकार आत्मा का निराकार परमात्मा से आनन्ददायक मंगल-मिलन ही सच्चा शिव-विवाह है। इस मंगल-मिलन से हम जीवनमुक्त बन जाते हैं और गृहस्थ जीवन आश्रम बन जाता है जहाँ हम कमल पुष्प सदृश अनासक्त हो अपना कर्त्तव्य करते हुए निवास करते हैं। इस कल्याणकारी पुरुषोत्तम संगमयुग पर जिसने यह मंगल-मिलन नहीं मनाया वह अन्त में फूट-फूटकर रोयेगा कि हे पतित पावन परमात्मा, आप आये और हमें पावन बनने का आदेश दिया, लेकिन हम अभागे आपके आदेश पर चल अपने जीवन को कृतार्थ कर सके। अतः मानवमात्र का यह परम कर्त्तव्य है कि 85वीं शिव जयन्ती के इस पावनतम अवसर पर सुखदाता, दुःखहर्ता परमात्मा शिव पर, जीवन में दुःख-अशान्ति पैदा करने वाले पंच विकार रूपी अक्-धतूरे को अर्पण कर दें और निर्विकारी बन पावन सतयुगी दैवी सृष्टि की पुनर्स्थापना के ईश्वरीय कार्य में सहयोगी बनें।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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