शिव और शिवरात्रि के वास्तविक परिचय से महालाभ

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मनुष्य अपने जीवन में वही कार्य करना चाहता है जिससे उसे लाभ हो। अपनी हानि करने अथवा दिवाला निकालने वाला व्यक्ति बुद्धिमान नहीं माना जाता। जो व्यक्ति ‘ज्ञानी’ और ‘योगी’ कहलाता है और जय-पराजय तथा हानि-लाभ में समान रहने का पुरुषार्थ करता है, जान-बूझ कर हानि तो वह भी नहीं करना चाहता। मान-अपमान में समान रहने वाला व्यक्ति भी जान-बूझकर तो स्वयं को अपमानित करने वाला कार्य नहीं करता।

इस बात को देखते हुए मनुष्य को यह सोचना चाहिए कि जो आध्यात्मिक बातें मैं सुनता हूँ, वे भी तो कुछ ऐसी बातें हों कि जिनसे जीवन में लाभ हो। आध्यात्मिकता का उद्देश्य यही तो है कि जीवन में पवित्रता आए और सदाचार बढ़े, मन में शान्ति बनी रहे, बुद्धि की रुचि अच्छाई की ओर हो, चित्त प्रसन्न रहे और आत्मा में आनन्द की वृद्धि हो तथा अन्तरात्मा इस बात की गवाही दे कि जो आध्यात्मिक बातें हम सुन रहे हैं, वे सही हैं।

यदि किन्हीं तथा-कथित ‘आध्यात्मिक’ बातों को सुनने से मनुष्य की साधना तीव्रगति लेने की बजाय और ही ढीली होने लगे, उसमें जागृति आने की बजाय आलस्य, अलबेलापन, अवहेलना, अवज्ञा आदि दुर्गुण बसने लगें और मनुष्य का मन मलीन, आत्मा पतितोन्मुख और अन्तरात्मा अभिशप्त अनुभव करने लगे तथा चित्त में ग्लानि महसूस हो तो उसको ‘आध्यात्मिकता’ मानना गोया घासलेट को घी मानना है। 

इस पर भी यदि कोई व्यक्ति, जो चिरकाल से घिसी-पिटी बातों को सुनता चला रहा है और इन सबके बावजूद भी वहीं खड़ा है? बस अन्तर केवल इतना ही है ज़मीन और आसमान के बीच के अन्तर-जैसा। अब यदि कोई पुरुषार्थ के मार्ग में आगे बढ़ना चाहता हो, शान्ति और आनन्द की भरपूर प्राप्ति की कामना करता हो और वास्तविकता को जानने की पिपासा लिए हो तो उसे चाहिए कि वह स्वयं परमात्मा शिव द्वारा दिये हुए परिचय को प्राप्त करे, उसकी अनुशीलना करे और प्रयोग करे।

ऐसे ही प्रभु-प्रेमी, ज्ञान-ग्राही, योगाभिलाषी, गुणाकांक्षी एवं सत्यान्वेषी व्यक्ति के लिए हम यहाँ शिवबाबा अर्थात् परमपिता शिव का कुछ स्वकथित परिचय सार रूप में देते हैं जो कि प्रचलित मान्यताओं से भिन्न है, परन्तु सही अर्थ में लाभदायक है। इसी परिचय के साथ-साथ हम यह भी स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे कि वह अधिक लाभदायक कैसे है।

शिव बाबा का सही परिचय

कुछ लोग ‘शिव’ और ‘शंकर’ में अन्तर नहीं समझते। वे कहते हैं कि शिव और शंकर एक ही इष्ट के दो नाम हैं। प्रश्न ता है कि तब ‘शिवलिंग’ नामक प्रतिमा और ‘शंकर’ की देवाकार मूर्ति – ये दो अलग, भिन्न-भिन्न रूप वाले स्मरण-चिह्न क्यों हैं? किसी व्यक्ति के पिता को उसके मित्र ‘गुप्ता जी’ अथवा ‘रमेशचन्द्र जी’ और उसके माता-पिता ‘रम्मू’ अथवा ‘मेशी’ कहकर पुकारते हों, यह तो हो सकता है परन्तु उस व्यक्ति का छायाचित्र अथवा कलाकार द्वारा बनाई उसकी प्रतिमूर्ति एक ही रूप की होगी न?

बाल रूप की और वृद्ध रूप की दो अलग रूप वाली फोटो भी हो सकती हैं जिनमें क़ाफी अन्तर दिखाई देता हो परन्तु दोनों सशरीर, सकाय अर्थात् पिण्ड धारण किये हुए तो होंगी न? परन्तु शिव पिण्डी तो अण्डाकार ही होती है और शंकर की मूर्ति अंग-प्रत्यंग सहित ही सदा स्थापित और पूजित होती है, यहाँ तक कि यदि उस देवाकार मूर्ति का कोई अंग थोड़ा भी खण्डित हो जाए तो उस अंग-भंग मूर्ति को पूजा के योग्य ही नहीं माना जाता।

फिर शिव की मण्डलाकार प्रतिमा को तो ‘ज्योतिर्लिंगम्’ ही माना जाता है जबकि शंकर जी को यह संज्ञा नहीं दी जाती। अन्यश्च, शंकर जी को तो समाधिस्थ ही प्रायः दिखाया जाता है जो इस बात का प्रतीक है कि वे स्वयं किसी ध्येय के ध्यान में मन को समाहित किये हुए हैं जबकि शिव पिण्डी में कोई ऐसा भाव प्रदर्शित होने से वह स्वयं ही परम-स्मरणीय है।

अतः दोनों का अन्तर प्रत्यक्ष ही है। फिर भी इसको एक ओर रखकर कुछ लोग शिवलिंग को पृष्ठ-भूमिका में देकर उस पर शंकर की मुखाकृति अंकित कर देते हैं और अन्य कई चित्रकार शंकर जी से ज्योतिर्लिंग को प्रकट होता हुआ दिखा देते हैं और पुराणों में तो ऐसी भी कथायें अंकित हैं कि ‘शिव’ ‘शंकर’ जी का ही एक शरीर-भाग हैं!

सचमुच, यह तो मनुष्यों की अज्ञानता की पराकाष्ठा ही है कि वे एक ओर खण्डित काया वाले देव की पूजा नहीं करते और दूसरी ओर वे किसी एक ही शरीर-भाग की पूजा की बात कहते हैं। स्पष्ट रूप से यह बात विवेक-विरुद्ध है।

‘शिव’ को परमात्मा का दिव्य नाम मानने से लाभ

फिर, जैसे कि हम कह आये हैं कि अध्यात्मवाद का लक्ष्य तो आत्मा का कल्याण ही है और ‘कल्याण’ का वाचक तो ‘शिव’ शब्द ही है। अतः परमात्मा का नाम ‘शिव’ मानने में ही लाभ है, क्योंकि इससे हमें यह याद रहेगा कि मनुष्यात्मा का कल्याण करने वाला पिता, माता, सखा, स्वामी एक परमात्मा ही है। 

दूसरी बात यह है कि अध्यात्मवाद की तो यह पहली ही कड़ी है कि शरीर और आत्मा दो भिन्न सत्तायें हैं और कि आत्मा ज्योतिस्वरूप है जबकि शरीर नाशवान चोला है और हमें देह से न्यारा होकर आत्मा की स्थिति में स्थित होना है। जब आध्यात्मिक पुरुषार्थ का पहला पा ही यह है तो फिर किसी भी देहधारी को चाहे वह कोई भी देवता या देवी हो, अपने मन की एकाग्रता के लिए साधन या साध्य मानना गोया अपने ही पहले मन्तव्य के विपरीत है और अपनी ही आधारभूत शाखा को स्वयं काटना है।

यदि देहधारी शंकर की स्मृति में हम टिकेंगे तो हमारा देह-अभिमान अथवा पर-देहाभिमान तो बना ही रहेगा और हमारी स्थिति तो देहाकार ही रहेगी; अर्थात् आत्मिक होकर दैहिक ही बनी रहेगी। तब यह भला अध्यात्मवाद कैसे हुआ?

यह तो देहवाद अथवा देह-याद हुआ। अतः बातों में भी बात यह है कि लाभ तो विदेहावस्था में है और उसके लिए तो शिवलिंगाकार, ज्योतिस्वरूप ‘शिव’ नामक परमात्मा ही की स्मृति का होना यथार्थ है। निष्कर्ष यह है कि यदि तर्प से मनुष्य की ढ़धर्मी भी दूर होती हो तो लाभ को देखते हुए तो उसे परमात्मा का नाम शिव, दिव्य रूप ज्योतिर्मय बिन्दु मानकर मन का नाता उनसे जोड़ना चाहिए।

शिव के अवतरण का समय कलि का अन्त मानने से लाभ

अब शिवरात्रि त्योहार ही को लीजिए। यदि हम ‘रात्रि’ शब्द का भाव कृष्णपक्ष की कोई रात्रि लें तो मास या वर्ष में कुछेक रात्रियों को पूजा कर लेने से अथवा व्रत रख लेने से तो एक सीमित ही लाभ होगा। सोचने की बात यह भी है कि ये दिन और रात तो हम चर्म-चक्षुधारी, इहलोक-वासी, जन्म-मरणाधीन, जागृति, सुषुप्ति आदि अवस्थान्तर के वशीभूत मनुष्यात्माओं ही के लिए हैं त्रिनेत्री, त्रिकालदर्शी, सदा जागती ज्योति, परमात्मा शिव के लिए इस प्रकार के दिन या रात (शुक्लपक्ष या कृष्णपक्ष) का क्या भेद? 

अतः यह फाल्गुन मास हमारी काल-गणना अनुसार देशीय वर्ष का अन्तिम मास है और इस कारण यह कल्प के अन्तिम भाग का प्रतीक है और इस मास के कृष्णपक्ष की चौदहवीं तिथि की अन्धेरी रात के 12 बजे का समय घोर अज्ञानान्धकार और तमोगुण की पराकाष्ठा का प्रतीक है, ऐसा समझने में ही लाभ है।

यदि हम ऐसा समझेंगे तो हम केवल एक अन्धेरी रात को जागने मात्र का पुरुषार्थ नहीं बल्कि इस कलियुग रूपी अज्ञान अन्धकार के समय को रात्रि मानकर हम इसमें आध्यात्मिक जागृति का प्रयत्न करेंगे। हम केवल इन स्थूल नेत्रों को रात्रि के 10-12 घण्टे खुला रखने का नाम ‘जागरण’ मानकर, ज्ञान-चक्षु अथवा प्रज्ञा नेत्र को खुला रखने को ही जागरण मानकर सतर्प रहने का यत्न करेंगे।

निश्चय ही कल्याण, रात्रि को जागने में नहीं, ज्ञान द्वारा आलस्य और ग़फलत रूपी सुषुप्ति को छोड़ने में ही है। शिव की प्रतिमा के सामने दीपक जगाकर हम शिव को खुश करना चाहें और उस आशुतोष से सुख-शान्ति का अनमोल वर पाना चाहें तो हमारी यह वाणिज्य वृत्ति अथवा यह हमारा व्यापारिक प्रयास सफल होने वाला नहीं है – यह तो अब तक के अपने अनुभव से हरेक व्यक्ति जान ही गया होगा।

हाँ, आत्म-दीप जगाकर, अन्तर्मन को दीप-शिखा बनाकर यदि हम शिव के सम्मुख हों और हमारा ज्ञान-चक्षु खुला हो, हमारी आत्मिक-स्मृति जागृत हो, तो निश्चय ही हमें प्रभु-मिलन की अनुभूति का अतुल लाभ होगा। इसमें यदि किसी को संदेह हो तो वह संदेह को प्रगट करके सन्तोष प्राप्त कर ले।

‘व्रत’ और ‘उपवास’ को सही रूप में मनाने से लाभ

अब व्रत और उपवास की ही बात ले लीजिए। मास अथवा वर्ष में एक रात्रि को भोजन करना अथवा मौन धारण कर लेना, कुछ-न-कुछ तो लाभ इसमें भी हैं ही परन्तु आहार केवल मुख के भोजन को नहीं कहते। हरेक शरीरेन्द्रिय का अपना-अपना अलग-अलग आहार है। मुखेन्द्रिय यदि भक्षण करती है तो श्रवणेन्द्रिय श्रवण, दर्शनेन्द्रिय (आंख) दर्शन। अपने-अपने विषय को ग्रहण करना इनका आहार ही है। 

और, अभक्ष का भक्षण करना व्रत है। प्रतिज्ञा ही का नाम तो व्रत है। जब हम किसी निषिद्ध कर्म को करने की प्रतिज्ञा करते हैं तो गोया हम दूसरे शब्दों में व्रत लेते हैं। ऐसा व्रत एक दिन के लिए ही क्यों? वर्ष के 364 अथवा 365 दिन तो मन को व्रत तोड़ कर निर्व्रत होकर रहने की छूट हो और एक दिन वह व्रति बन जाए – यह तो गोया 900 चूहे खाकर बिल्ली हज को चली वाला किस्सा है।

इसी प्रकार आगे-पीछे तो मन विषय विकारों में वास करे और एक दिन अथवा एक रात्रि को ‘उपवास’ करे अथवा शिव में निवास करे तो उसमें लाभ भी क्षणिक और अल्प एवं न्यून ही होगा। शिव बाबा भोले भण्डारी से एक कण-दाना ही मिलेगा। वास्तविक उपवास तो ज्योतिस्वरूप शिव में मन का स्थाई वास ही है। प्रेम द्वारा मन का शिव के निकट होना ही उपवास है।

अक के फूल को समझने से लाभ

आज हम देखते हैं कि कुछ लोग शिवरात्रि पर अक के फूल चढ़ाते हैं। सोचने की बात है कि इसी फूल को क्यों, अन्य किसी को क्यों नहीं अर्पित किया जाता और आज, जबकि उप-नगर और नगर, महानगर का रूप ले चुके हैं तब अक के फूल विशेष रूप से मनुष्य लाए भी कहाँ से? हरेक भक्त अपने इष्ट पर मन से चीज़ तो कोई बढ़िया ही अर्पित करता है।

वैष्णव लोग अपने इष्ट को 56 या 36 प्रकार के भोग नित्य भी लगाएं तो जब-कभी भोग की बात हो तब कोई अच्छा-सा भोग या लड्डू, बून्दी, बर्फी आदि का प्रसाद तो लगाते ही हैं और गुलाब या मोतिया के सही तो गेंदे के फूल तो चढ़ाते ही हैं। तब शिव पर पानी का लोटा और अक ही के फूल क्यों?

अक तो एक जंगली उपज है और प्रायः अपने घर में कोई लाता भी नहीं। तो यह सजावट की चीज़ है, तो सुगन्धि देने वाली, इसका कोई हार बन सकता है, गुलदस्ता, तब बगीचे के अनेक प्रकार के फूलों को छोड़कर इन जंगली फूलों को अर्पण करने के पीछे कोई तो रहस्य होगा ही। अवश्य ही, यह मनुष्य की सुगन्धहीन, सौन्दर्यहीन, नागरिकता एवं सुसभ्यता-रहित किन्हीं जंगली आदतों का सूचक मात्र है।

यह इष्टदेव के प्रति श्रद्धा या परम स्नेह ही का सूचक होकर उसे सौंप देने ही के लिए उस पर चढ़ाया जाता है। अतः यह तो उस संस्कार, विचार अथवा मानसिक दुर्बलता का प्रतीक है जिससे मनुष्य छुटकारा पाना चाहता है, जो वास्तव में हेय है। तो वह प्रसाद की वस्तु है, उपहार की। वह तो चढ़ाने ही की वस्तु है और उस पर ही छोड़ देने की चीज़ है ताकि वह हमारे पास रहे।

भांग की बात

हमने यह वार्ता लाभ की बात से शुरू की थी। उस बात को यदि ध्यान में रखें तो इस दिन जो लोग भांग पी लेते हैं, उसमें भला क्या कोई लाभ है? देह-अभिमान रूपी भांग का प्याला और चढ़ा लेना, यह तो अपने पतन का स्वयं विधान करना है।

कोई भी देश अपने देश में पर्यटकों को भांग, चरस आदि नहीं लाने देता। यह तो प्रसिद्ध ही है कि यह है ही नशीली चीज़। गोया इससे मनुष्य का विवेक सामान्य और सन्तुलित तो रहता ही नहीं। जो वस्तु लौकिक शासनाधिकारियों द्वारा भी वर्जित है, उसे यदि आध्यात्मिक लोग लेने लगें तो फिर अध्यात्मवाद का अर्थ ही क्या रहा?

शिव सदा आध्यात्मिक आनन्द में रहते हैं और मौलाई मस्ती में मस्त रहते हैं, तो स्वयं योग द्वारा उस मस्ती या आनन्द को प्राप्त करने की बजाय भांग द्वारा अपने होश भी गंवा बैना, इसमें भला क्या लाभ है? रोज़े छुड़ाने चले थे, नमाज़ और पढ़नी पड़ी और व्यसन तो छूटे ही नहीं, भक्ति के नाम से एक व्यसन, एक कष्ट और ले लिया! इससे तो राम मिला रहीम मिला।

हाँ, भांग ज़रूर मिली। अतः इस बात को भी यदि हम पुराणों और पोथों की चर्चा और परिचर्चा अथवा तर्प और वितर्प द्वारा भी समझें तो कम-से-कम अपनी भलाई और लाभ को सामने रखते हुए इस बुराई से बचने का तो यत्न करें।

योग द्वारा ही पवित्रता, शान्ति और आनन्द का लाभ

मनुष्य की वास्तविक उन्नति, उसे कल्याण की क्रियात्मिक प्राप्ति एवं आनन्द की आध्यात्मिक अनुभूति तो शिव से मन को जोड़ने ही के द्वारा होती है। अतः हे मनुष्य, थोथी विद्वता की बातों को छोड़कर, अपनी उन्नति और अपने आध्यात्मिक लाभ की बात सोचते हुए तू ज्योति बिन्दु शिव से योग लगा।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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