हानिकारक भावनाओं (दुर्भावनाओं) की समझ और उनका उपचार (इलाज) क्रोध

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क्रोधी व्यक्ति अपना मुख खोलता है और आँखें बन्द रखता है, बल्कि कहना चाहिये - कोध बुद्धि और समझ की आँख बन्द करा देता है, शारीरिक आँख नहीं। वास्तव में ईश्वर ने सभी को दिव्य बुद्धि दी है किन्तु कोध व्यक्ति को अन्धा बना देता है। निर्णय शक्ति कमजोर कर देता है जिससे वह सामाजिक नैतिक अथवा शासकीय सभी नियम तोड़ता रहता हैं। सभी सांसारिक समस्यायें नियम तोड़ने के कारण ही है।

समस्त मानसिक, शारीरिक बीमारियों का कारण क्रोध ही है। कुछ लोग सोचते हैं कि क्रोध से डरा धमका कर काम निकाला जा सकता है किन्तु सच्चाई यह है कि कोध से मात्र समस्या को टाल सकता है किन्तु क्रोध के कारण छोटी सी समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है यह अनुभव करने की बात है, इस पर गहराई से विचार करना आवश्यक है।

व्यक्ति की समझ योग्यतायें, कार्यक्षमता को क्रोध कैसे निगल लेता है यह भी विचारणीय विषय है। चिड़चिड़ाहट, आकोश, घृणा, ईर्ष्या व्यक्ति की शान्ति भंग करके उसकी खुशी छीनकर निकम्मा बना देती है। वह स्वयं तो काम नहीं कर पाता और अन्तत निराश होकर अवसाद में चला जाता है। निष्कर्षत क्रोध स्वार्थी, डरपोक, लालची, कामचोर, दुर्भावनायुक्त व्यक्तियों की निशानी है।

क्रोध से शारीरिक परिवर्तन होते हैं, चेहरा लाल होना गर्मी लगना, पसीना आना, बैचेनी होना तो दिखायी देता है, किन्तु ह्रदय और माँसपेशियों पर हुआ प्रभाव तो भयंकर रूप ग्रहण कर लेता है। जिससे शरीर की मानसिक अवस्था के साथ सीधा सम्बन्ध चरितार्थ होता है। इस सबके आधार पर व्यक्तियों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है -

1. रचनात्मक वृत्ति वाले सकारात्मक व्यक्ति।

2. विनाशात्मक वृत्तिवाले नकारात्मक व्यक्ति

रचनात्मक वृत्ति वाले व्यक्ति कभी कहीं किसी को हानि नहीं पहुँचाते, सभी को सम्मान देते हैं, अत वे पाते भी है और संसार के कर्णधारों में सम्मिलित होते हैं।

विनाशात्मक वृत्ति वाले व्यक्ति परिस्थितियों पर हावी होना चाहते हैं, स्वयं पर ध्यान केन्द्रित कराना चाहते है, अत दूसरों का अपमान करते हैं और अपमानित होकर गहन अवसाद गुस्सा हो जाते हैं, रचनात्मक वृत्ति ही आत्मा की मूल पवृति है।

हम सदैव चाहते हैं -

1. बिना किसी पूर्वाग्रह के तथ्यों को प्रस्तुत करना।

2. शत्रुता न रखकर दूसरों की गलतियों को सुधार देते हैं।

3. व्यक्ति को गलतियाँ महसूस कराना न कि उसे चोट पहुँचाना।

4. जिम्मेदारियों का एहसास कराना न कि सजा दिलवाना।

क्रोध के पीछे कारण बहुत हैं - प्रकृति परिवर्तन, भौगोलिक परिवर्तन धार्मिक विश्वास, संस्कृति की भिन्नता क्रोध का कारण बन जाते है। अत हानिकारण कोध से बचना ही बुद्धिमता है विचारणीय है कि बुद्धि की गहराई बढ़ाना ही क्रोध पर विजय पाने का साधन है। बुद्धि की गहराई बढ़ाने के लिये राजयोग ही सहज मार्ग है। राजयोग नकारात्मक विचारों को रचनात्मक स्वरूप देता है।

जिससे मन में शान्ति और सुख की अनुभूति होती है। सही विचार दिशा व्यक्ति की दशा बदल देती है, क्रोध पर विजय पाना संभव हो जाता है। योगाभ्यास मन बुद्धि को सन्तुलित कर नियमित बना देता है। मन आत्मा की एक ऐसी सूक्ष्म शाक्ति है, जिसकी तरंगे सम्पूर्ण परिवेश को अपने रंग में रंग देती हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों के रंग में वातावरण को रंगता रहता है।

शक्तिशाली मन सारे परिवेश को बदल देता है। व्यक्ति किसी से चिढ़ता है तो उसकी उपस्थिति से क्रोध जागृत हो जाता है और परिवेश अशान्त हो जाता है, योगाभ्यास अवचेतन मन को पभावित करता है, और चेतन मन का सम्पूर्ण इलाज कर देता है। मन के विचारों पर नजर रखकर हम उनकी गति कम देते हैं और उनकी नकारात्मकता को समाप्त करा सकते हैं। विचार ही तो समस्त आचरण का बीज है। शान्त मन ही रचनात्मकता का स्त्रोत है, जो राजयोग का लक्ष्य है।

स्वयं की पहचान?

क्या मैं एक साधारण जीवात्मा हूँ जो कि दूसरों के उकसाने पर ही गतिमान है, मैं इतना कमजोर हूँ कि इन्द्रियों के वशीभूत हो जाता हूँ? यह हमें जानना चाहिए। मुझे बार-बार स्वयं से पूछना पड़ेगा कि मैं कौन हूँ? मुझे महसूस करना पड़ेगा कि मैं एक विचारशील आत्मा हूँ जो इन्द्रियों पर राज्य कर सकती है।

ईर्ष्या

मेरे विचार में असुरक्षा की भावना ही ईर्ष्या का मूल कारण है। अपने कार्य स्थल के साथियों एवं प्रतिद्वन्द्वियों को देखकर जब हमारी स्थिति कमजोर लगने लगती है तब हम असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। प्रतिद्वन्द्विता की दौड़ में यदि हम कर्म करने के बजाय दूसरों के फल को देखने लगते हैं तो स्वयं पीछे रह जाते हैं और दूसरों की उपलब्धियों पर ईर्ष्या करने लगते हैं। अनवरत कर्म का फल ही उच्च पद आदि है, यह मानने के बजाय बिना परिश्रम के फल पाने की इच्छा करना ही ईर्ष्या का मूल कारण है।

जो करता है वही पाता है, इस नियम का पालन करें तो ईर्ष्या से बच सकते हैं। आत्म संतोष ही इसका इलाज है। आत्म संतोष के लिए राजयोग का अभ्यास ज़रूरी है। राजयोग में सिखाया जाता है कि आत्मा एक शक्ति है जो शरीर से अलग है। इससे व्यक्ति स्वयं को पद, नाम, शारीरिक आकर्षण और दूसरों के पभाव से स्वयं को मुक्त करता है।

इस विचारधारा से वह अपनी पहचान एक अमर, अविनाशी, शक्ति के रूप में कर लेता है जो दूसरों से बिल्कुल अलग है और एकमात्र है। उसके जैसा और कोई नहीं। नियमित अभ्यास से उसे अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों से सन्तुष्टि पाप्त होने लगती है। एक बार जब आत्म विश्वास जागृत हो जाता है तो प्रतिद्वन्द्विता समाप्त हो जाती है।

योगाभ्यास की दूसरी अवस्था है वह ईश्वर से बातें करने लगता है और जब पार्थना से वह बात कर सकता है तो शान्ति में वह उसकी बातें, उसके उत्तर सुन पाता है; और जब व्यक्ति ईश्वर का बच्चा बनकर अनुभूति करता है तो उसका आत्म-विश्वास बढ़ जाता है, वह दूसरों को सम्मान देना शुरू कर देता है।

ईर्ष्या झेलना

यदि कोई हमसे ईर्ष्या करता है और हमारे लिए समस्यायें उत्पन्न करता है तो हमें नम्रता से पेश आना पड़ेगा। यह जानते हुए कि मुझे पतिभा और भाग्य पभु पसाद के रूप में मिला है। हमारे नम्रता की तरंगें किसी को भी झुका सकती हैं, परिस्थितियाँ बदल सकती हैं।

किसी के भी दुर्व्यवहार को समाप्त करने के लिए अपने व्यवहार को ही बदलना होगा। अपनी सद्भावना से दूसरों की भावना बदली जा सकती हे। जैसा हम सोचते हैं, वैसा ही वह सोचने लगता है। स्थापना करने वाले नींव के पत्थर के समान अकेले किन्तु शक्तिशाली होते हैं। वे समाज से आगे-आगे अकेले चलते हैं। निष्कर्षत आगे बढ़ने का तरीका सहयोग ही है, प्रतिद्वन्द्विता नहीं, ईर्ष्या नहीं।

अधिक स्पष्टीकरण के लिए अपने शहर में स्थित
प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।


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