अल्लाह का पैग़ाम, क़ब्र दाख़िल रूहों के नाम
अल्लाह के
बग़ीचे का ख़ुशबूदार फूल बनने का इशारा
अल्लाह-तआला ने फ़रमाया है कि जब दुनिया की तमाम रूहें
क़ब्र दाख़िल हो जायेंगी और क़यामत का वक़्त आयेगा, तब मैं अल्लाह-तआला फिर से अर्श-ए-आज़म
से इस सरज़मीं पर आकर फ़रिश्तों (ख़ुदाई संदेश वाहकों) के ज़रिये तमाम क़ब्र दाख़िल
रूहों को जगाऊँगा।
अब क़यामत का दौर जारी है। यह इस बात से ज़ाहिर होता है कि चौदवीं सदी ख़त्म हो चुकी है। यह बात हर इंसान के ज़हन में है। क़यामत का दौर माना ऐसा दौर जब सब इंसान आपस के भाईचारे में ही मुहब्बत को ठुकरा कर एक-दूसरे से ऩफरत करते हुए शैतानियत पर उतारू होकर आपस में बुरी तरह फ़साद करते हैं, मारामारी करते हैं, यहाँ तक की आपस में ख़ूनख़राबा करने में भी ग़ुरेज़ नहीं करते हैं।
यही क़यामत के दौर
के अज़खुद पक्के सबूत हैं। इस तरह से अब क़यामत का दौर चल रहा है। अब वक़्त का त़काज़ा
है कि वक़्त के इशारों को हम अक्लमंद बन कर समझें।
क़यामत का दौर यह भी साबित कर रहा है कि नूर-ए-इलाही, पाक परवरदिगार रब कुरान-शऱीफ में अपने फ़रमान के मुताबिक अपने वतन पाँचवे आसमाँ को छोड़कर इस सरज़मीं पर हज़रत आदम अं. के इंसानी जिस्म में दाख़िल होकर उनकी ज़ुबान को आला ज़रिया बनाकर अपना कर्म कर रहे हैं।
रूहों की बहबूदी के वास्ते इंसान की शैतानियत
की वजह से यह दुनिया दोज़ख में तब्दील हो गई है, उसको फिर से बहिश्त बनाने की ग़रज़
से शैतानी इंसानों को अपने ख़ुशबूदार बाग़ीचे के ख़ुशबूदार फूल (इंसान) बनाने का पाक
कर्म कर रहे हैं।
अब ख़ुदा का तमाम रूहों के लिए ख़ुदाई फ़रमान है कि ग़फलत
की ओर लाइल्मी की नींद से जागो और वक़्त को पहचानते हुए ख़ुद को और ख़ुदा को पहचान
कर नूर-ए-आला के फ़रमान पर चलकर दोज़ख से निज़ात पाकर अपनी जन्नत की तकदीर हासिल कर
लो।
दरिया-ए-इल्म ख़ुदा हज़रत आदम अं. की आला ज़ुबान के ज़रिये
अपनी और रूहों की पहचान, चक की तालीम और ख़िल़कत के एक चक को पूरा होने में जो वक़्त
लगता है उसकी तालीम दे रहे हैं। ख़ुदा दुनिया के शुरूआत-दरमियान-आख़िरी वक़्त की तालीम
यानी ख़ुदा अपनी और अपनी बनाई हुई दुनिया की तालीम दे रहे हैं। फ़कत ख़ुदा ही दरिया-ए-इल्म
है सो वहीं तीनों दुनियाओं की पूरी तालीम दे सकता है। इस जहाँ में दुनियां के पूरे
चक का सही इल्म किसी के पास भी नहीं है।
ख़ुदा फ़रमाते हैं कि रूहों का क़ब्र दाख़िल होने का
मतलब और क़ब्र दाख़िल रूहों को क़ब्र से जगाने का मतलब किसी भी ख़ुदा के बंदे ने अभी
तक नहीं समझा है। सो ख़ुदा ख़ुद अपने वतन आलम-ए-अरवाह से इस सरज़मी पर आकर हज़रत आदम
अं. की आला ज़ुबान के ज़रिये मुकम्मल इल्म बख़ूबी समझा रहे हैं। अल्लाहताला की इस समझानी
को मुकम्मल तौर पर समझ कर उसे पूरी तरह से अपने ज़हन में बिठा कर इंसान को अपने रोज़मर्रा
के तमाम अमालनामों को सरअंजाम देना है।
ख़ुदा-तआला का फ़रमान है कि क़ब्र दाख़िल रूहों को क़ब्र से जगाने का मतलब यह नहीं है कि मुर्दे के जिस्म से या क़ब्र से मैं ख़ुदा रूहों को निकालता हूँ, क्योंकि मुर्दे के जिस्म में तो रूह है ही नहीं। असल में तो मुर्दे को क़ब्र दाख़िल करना माना मुर्दे को सुपर्द-ए-ख़ाक करना है, जिससे मुर्दा ख़ाक में तब्दील हो जाता है।
सो क़ब्र में तो मुर्दे का न तो जिस्म ही रहता है न ही रूह रहती है। जानदार जिस्म से रूह के निकल जाने को ही मौत कहते हैं। जिस इंसान की मौत होती है, उसके बिना रूह के जिस्म को मुर्दा कहते हैं। जब मुर्दे के जिसम में रूह ही नहीं है तो मुर्दे के जिस्म से रूह को निकालने का सवाल ही नहीं पैदा होता है। इसी तरह से क़ब्र में भी रूह नहीं है।
ज़िंदा इंसान के जिस्म से रूह निकल जाने की वजही से ही उस बिना रूह के
जिस्म को ह़कीम जब मुर्दा करार देता है, तब क़ब्र में उसे दाख़िल करते हैं। जब तक रूह
इंसान के जिस्म में है, तब तक तो उसे ज़िंदा इंसान ही कहते हैं और रूह उस इंसान के
अलग-अलग हिस्सों से अलग-अलग कर्म करती और कराती है।
जैसे रूह ज़ुबान के ज़रिये बोलती है, कानों के ज़रिये सुनती है, आँख़ों के ज़रिये देखती है, पावों के ज़रिये चलती है, हाथों के ज़रिये कर्म करती है, वगैरह, वगैरह। ज़िंदा इंसान के जिसम से जब रूह निकल जाती है, तभी बिना रूह के इंसान के जिसम को मुर्दा क़रार देते हैं। क्योंकि जिस्म में आँख़ें होते हुए भी जिस्म देख़ नहीं सकता है, ज़ुबान होते हुए भी बोल नहीं सकता है, कान होते हुए भी सुन नहीं सकता है यानी जिस्म में हर हिस्से के होते हुए भी जिस्म अपनी कोई भी हिस्से से कोई भी काम नहीं कर सकता है।
इन सबकी वजह यह है कि जिस्म में जानदार ताकत रूह नहीं है। जब तक इंसान के जिस्म में रूह है उसे मुर्दा नहीं कहते हैं। ज़िंदा इंसान के जिसम से जब रूह निकल जाती है तब उस बिना रूह के जिस्म को यानी उस मुर्दे को क़ब्र दाख़िल करने की बात आती है। अगर जिस्म में रूह है तो उस जिस्म को मुर्दा नहीं कहेंगे और जब तक वह मुर्दा नहीं है तो उसे क़ब्र दाख़िल कैसे करेंगे? जिस जिस्म में रूह है यानी इंसान ज़िंदा है तो क्या उसे कभी किसी ने क़ब्र दाख़िल किया है? नहीं।
शैतान के संग में रहकर उसके बहकावे में आने से इंसान की ज़लालती अक़्ल बनने की वजह से इंसान यह सीधी-सी बात भी समझने में नाकामयाब हो जाता है और सही मतलब का उल्टा मतलब कर देता है। समझ की बात है कि रूह को कभी क़ब्र दाख़िल यानी सुपर्द-ए-ख़ाक करने की बात ही पैदा नहीं होता है।
इंसान का जिस्म जोकि क़ुदरत के पाँच चीज़ों से बना हुआ है उससे जब रूह निकल जाती है तो उसे क़ब्र दाख़िल कर ख़ाक को ख़ाक में मिला दिये जाने के कर्म को ही सुपर्द-ए-ख़ाक यानी क़ब्र दाख़िल करना है। यह कर्म करना तो इंसान का अपना जातीय मज़हब है। रूह को कभी क़ब्र दाख़िल नहीं करते हैं बल्कि रूह के बिना जिस्म को जिसे मुर्दा कहते हैं उसे क़ब्र दाख़िल किया जाता है।
रूह-ए-आला रूह के क़ब दाख़िल होने का मतलब समझाते हुए फ़रमाते
हैं कि अजली-अबदी रूह भी अपने वतन अर्श-ए-आज़म में पाक परवरदिगार ख़ुदा की तरह पाक
होती है। हर पाक रूह अपने वतन आलम-ए-अरवाह से अपने किरदार के मुताबिक इंसानी ज़मीं
पर आकर अपनी वालिदा के जिस्म में एक पिण्ड में दाख़िल होती है और अपने वक़्त पर वालिदा
के जिस्म से बाहर आकर इस जिस्मानी जहाँ में अपना किरदार निभाना शुरू करती है।
रूह इस जिस्मानी जहाँ पर आकर अपना किरदार बजाते-बजाते ख़ुद को, पाक परवरदिगार ख़ुदा को और अपने वतन को जब भूल जाती है। क़ाफी लम्बे अर्से (5000 वर्ष) तक ज़ुदा-ज़ुदा जिस्म में रहने तथा शैतान के बहकावे में आने की वजह से रूहें ऩफसानी ख़्वाहिश्यात, गुश्स्सा, लालच, लगाव, ग़रूर रूपी बीमारियों की शिकार होती गईं और ख़दा से मिली हुई तमाम ख़ूबियों तथा तमाम सलाहियतों को खो बैठती है।
सबसे पहले रूहें शैतानों के रहनुमा ग़रूर का शिकार होती है जिससे रूहें अपने को रूह भूल कर जिस्म को देखती हैं और अपने को जिसम समझने लग जाती हैं। इससे मर्द-औरत के एहसास के चक में फंस ऩफसानी, ख़्वाहिश्यात के गंदे नाले में गिर जाती हैं।
इस दौर से गुज़रती-गुज़रती रूह गुस्सा, लालच, लगाव वगैरह सभी शैतानों के शिकंजे में जकड़ती चली जाती है, जिससे रूहों में उसके पाक होने की ख़ूबियों और सलाहियतें भी कम होते-होते ख़त्म हो जाती हैं, जिससे इंसान के ज़िंदगी से प़ाकीज़गी अमन-अमान और सुख भी ख़त्म हो जाते हैं।
इस तरह
से रूहें जिस्म में होते हुए अ़फज़ल हालत ज़लालती हालत में पहुँच जाती हैं यानी रूह
जिस्म में होते हुए फ़रिश्ते से शैतान बन जाती हैं। इस तरह से जिसम में रहते फ़रिश्ता
रूह को शैतानी रूह में तब्दील हो जाने को जिस्म में रूह का क़ब्र दाख़िल होना कहते
हैं।
रूहे-आला रूह के क़ब्र दाख़िल होने का रूहानी नज़रियें से मतलब समझाने के बाद रूहों को क़ब्र से जगाने का मतलब समझाते हुए फ़रमान करते हैं कि जब दुनिया की तमाम रूहें ऊपर समझाये तऱीके से क़ब्र दाख़िल हो जाती हैं तो यहीं से क़यामत का दौर शुरू हो जाता है। यही वक़्त है जबकि ख़ुदा अपने वतन ख़ुदा के तालाब से इस सरज़मीं पर आकर रूहों को जगाता है।
रूहों को जगाना यानी रूहें जो ख़ुद को, ख़ुदा को और अपने वतन को भूल शैतान की शैतानियत में पूरी तरह से फँस जाती हैं, उन्हें दरिया-ए-इल्म अपने रूहानी इल्म के ज़रिये इंसानी रूहें जो रूहानियत के असर से दूर होकर ज़िस्मानी नशे में शराबोर हो जाती हैं उन्हें फिर से रूहानी तालीम देकर रूहानी नशे में शराबोर करते हैं।
फिर रूहें रूहानी नशे से शराबोर होकर रूह-ए-आला को दिलो-ओ-जान से याद करने और साथ में ख़ुदा के वतन, आलम-ए-अरवाह को याद करने से रूहों के तमाम गुनाहों का ख़ात्मा हो जाता है और रूह से शैतान की शैतानियत के तमाम असरात दूर हो जाने से रूह को नजात और ज़िन्दगी-ए-निज़ात का ख़ुदाई तोह़फा हासिल हो जाता है।
इस तरह से रूहें फिर से शैतानों
के पंजों से आज़ाद होकर, पाक बनकर ख़ुदा के साथ ख़ुदा के वतन में चली जाती हैं। इस
तरह से ख़ुदा-तआलजा के ज़रिये रूहों को शैतान की शैतानियत से नजात दिला कर पाक बनाने
को जिसम की क़ब्र में दाख़िल रूहों को जगाना कहते हैं।
जो इंसान इस क़यामत के वक़्त रूह-ए-आला का फ़रमान नहीं मानते हैं या पूरा नहीं मानते हैं और अपनी रूह को ख़ुदा की याद से पूरा पाक नहीं बनाते हैं, उन्हें ख़ुदा के रूबरू पेश किया जाता है। उस वक़्त रूहों के ज़रिये किये गये कारनामे नेकी और बदी रोज़े रोशन में मूवी फिल्म के मानिंद जब सामने आते हैं तो उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता है।
इन मुकद्दमों में यही उनकी गवाहियाँ और सबूत होते हैं। यही क़यामत का वक़्त है। इस वक़्त तमाम गुनाहगार रूहें अपनी बदी के कारनामों के हिसाब से जंजीरों में जकड़ी जायेंगी, उनके कुर्ते गंधक के होंगे और उनके मुँह पर आग लिपट रही होगी।
वे
ख़ूब रोयेंगे, चिल्लायेंगे और ख़ुदा से रहम की भीम माँगेंगे कि हे अल्-ग़फ़्फ़ार, अल्-मुही
और रहमान-ए-रहीम ख़ुदा हमें बख़्श दो और तमाम ग़मों से नजात दो। इस तरह से ख़ुदा दुनियां
की तमाम रूहों को सज़ाओं के ज़रिये पाक बना कर यानी फ़रिश्ता बना कर वतन में भेज देंगे।
ख़ल्क़ की
रूहों के मालिक
दुनियां के तमाम मज़हबों के इंसानी-रूहों के मालिक रूह-ए-आलजा भी नुक़्ता-ए-नूर हैं। रूह-ए-आला तमाम मज़हबों की रूहों को ग़मों से निज़ात दिलाने वाले, अल्-मुबीन और अल्-सलाम हैं। पाक परवरदिगार ख़ुदा का वतन अर्श-ए-आज़म है।
जब दुनियां
के तमाम मज़हबों की इंसानी रूहें क़ब्र दाख़िल हो जाती हैं तो हज़रत आदम के जिस्म में
पाक परवरदिगार अल्लाहताला दाख़िल होकर उनकी ज़ुबान को आला ज़रिया बना कर तमाम रूहों
को रूहानी तालीम देकर क़ब्र से जगाते हैं। यही क़यामत का वक़्त है और इस वक़्त ख़ुदा
अपने इसी कर्म को सरअंजाम दे रहे हैं।
अहम गुज़ारिश
तमाम रूहों से गुज़ारिश है कि इल्म-ए-रूहानी की मुफ़्त
तालीम के वास्ते यह ख़ुदा का पैग़ाम, क़ब्र दाख़िल रूहों के नाम को क़बूल करें और मज़ीद
जानकारी के वास्ते अपने शहर के ब्रह्माकुमारीज़ (हज़रत आदमज़ादियों) के ख़ुदाई मदरसे
में तशऱीफ लायें।
जिगर-ए-मोहब्बत से अल्विदा।
वक़्त का कोई भरोसा नहीं है। इस वास्ते याद रखें कि - ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’।
रूहानी मालिक का दिल व जान से लाख़-लाख़ शुकिया अदा करते हुए सभी क़ाबिल़ेकद्र दिलाराम खुदा के दिल तख्तनशीन रूहानी पाठकों को अल्विदा।
गुज़ारिश : किसी भी मज़हब में ईमान लाने वाले ख़ुदा के बंदे के जज़्बातों को तिनका बरोबर भी त़कल़ीफ पहुँचाना इस लेख़ का म़कसद क़तई नहीं है। फिर भी किसी को कोई बात नागवार लगे तो ख़ुदा का यह बंदा म़ाफी का तलबगार है।
अधिक स्पष्टीकरण के लिए अपने शहर में स्थित
प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।