इस रूह परवर रूहानी लेख़ की पेशानी को पढ़कर आप चौंक गये ना? आपको यह बात कि किसी भी इंसानी रूह का मज़हब हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई नहीं है’, हैरत-अंगेज़ लगी ना? मज़हबी ज़ुबान में या रूहानी लहज़े में यही ह़क़ीकत है। यही दुनिया का सबसे बड़ा सच है। अब आप संजीदगी और इतमीनान से बख़ूबी इसका ख़ुलासा पढ़ने पर ग़ौर करने की ज़हमत फ़रमायें।
अल्लाह-तआला पर ईमान लाने वाले किसी नेक बुज़ुर्गवार ख़ुदा के बंदे से अगर सवाल किया जाये कि मेहरबानी से पूरी तरह से ग़ौरतलब करके अपनी नज़रें इनायत करते हुए यह बताने की ज़हमत फ़रमायें कि दुनिया की ऊँची-से-ऊँची हस्ती जिनकी हम अल्लाह-तआला, ख़ुदा, गॉड फ़ादर, वाहे गुरु, शिव परमात्मा वगैरह-वगैरह नामों से बंदगी करते हैं उनका मज़हब क्या है? इस्लाम है? किश्चिन है? सिक्ख़ है? या हिन्दू है?
य़कीनन उनका ज़वाब होगा कि बरख़ुरदार ख़ुदा-तआला
का मज़हब न मुस्लिम है, न किश्चियन है, न सिक्ख़ है और न हिन्दू है। इशां-अल्लाह-ताला
आपके ज़वाब का तहेदिल से लाख़-लाख़ शुकिया।
आपकी इजाज़त समझते हुए आपसे दूसरा सवाल है कि इस वक़्त हमारे सामने चार ख़ुदा के बन्दे हाज़िर हैं, जिनकी आपस में जिगरी दोस्ती है। गोया वो एक-दूसरे पर अपनी जान क़ुर्बान करने के वास्ते हर वक़्त हाज़िर रहते हैं। उन चारों ख़ुदा के नेकदिल बंदो में पहला मुस्लिम, दूसरा किश्चियन, तीसरा सिक्ख़ और चौथा हिन्दू है।
चारों इंसान हैं और चारों के हड्डी-माँस के जिस्म में अपनी-अपनी रूहें मौज़ूद हैं। अब आप संजीदगी से बताइये कि इन चारों इंसानी रूहों का मज़हब क्या है? घबराइये नहीं, आपका सरल और सीधा ज़वाब यही है ना कि रूह का कोई मज़हब नहीं होता है। मज़हब तो जिस्म का होता है। रूह-ए-आला जिनका अपना जिस्म नहीं है उनका कोई मज़हब नहीं है।
रूहें जब अर्श-ए-आज़म अपने वतन में होती हैं तो उनका
कोई मज़हब नहीं होता है। रूहें जब अर्श-ए-आज़म से उतरती हैं और जिस हड्डी-माँस
के जिस्म में दाख़िल होती हैं, उस जिस्म का मज़हब ही उस रूह का मज़हब मान लिया जाता
है। ज़ानदार रूहानी त़ाकत नुक़्ता-ए-नूर रूह का अपना कोई मज़हब नहीं है। बेजान, फ़ना
होने वाले क़ुदरती मिट्टी के बने इंसानी पुतले का, जिसको हम जिस्म कहते हैं, मज़हब
है।
दुनिया में
कहीं-कहीं मज़हब तबदील करने के काम को भी सर-अंजाम देते हैं, परन्तु ह़क़ीकत में यदि
इत्मीनान से देख़ा जाये तो मज़हब बदलने का तो कोई सबब ही नहीं है। यह तो फ़कत एक इंसानी
िफतरत है। हम सब मज़हबों की रूहें, अल्लाह-तआला को इस दुनिया में सबका मालिक, स्वामी
और पालन-पोषण करने वाला कहते हैं। इसी सबब से हम कहते हैं कि हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख़,
ईसाई सब आपस में भाई-भाई हैं।
बावा आदमज़ादी ख़ुदाई दारूलउलूम (प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व-विद्यालय) का भी मज़हब के बारे में यही पक्का नज़रिया है। रूह का असली मज़हब तो प़ाकीज़गी को इख़्तियार कर रूहानियत में रहकर रूहानी रिश्तों में शराबोर होकर दुनिया की तमाम इंसानी रूहों का आपस में भाईचारे और अमन-चैन से हँसी-ख़ुशी में रहना है।
यही इंसानी रूहों की आपस की प़ाकीज़गी है। इसके अलावा आदमज़ादियों का ख़ुदाई मदरसा है, रूहानी म़कतब (कालेज) है और दरिया-ए-इल्म का ख़ुदाई दारुलउलूम (यूनिवर्सिटी) है। मदरसे, कालेज, यूनिवर्सिटी में तालीम दी जाती है, इल्म सिख़लाया जाता है। दुनिया में सब जगह बहुत से मदरसे, कालेज और यूनिवर्सिटीज़ हैं, जहाँ इस्लामी, किश्चियन, सिक्ख़, हिन्दू सभी मज़हबों में ईमान लाने वाले, जिस्मानी पढ़ाई पढ़ाते हैं।
ब्रह्माकुमारी मर्पज़ में रूह-ए-आला की और रूहों की रूहानी तालीम इंसानी रूहों को दी जाती है। किसी भी मदरसे में, कालेज में, यूनिवर्सिटी में मज़हब तबदील नहीं किया जाता है। इसलिए आदमज़ादियों का म़कसद मज़हब को तबदील न करके रूहानी इल्म के ज़रिये, इंसानी रूहें, जो रूहानियत के फ़खुर से दूर होकर जिस्मानी नशे में शराबोर हो गई हैं, उन्हें फिर से रूहानी नशे में शराबोर करके पाक बनाना है।
आमज़ादियों
की हमेशा यही ऩेक मंसा रहती है कि इंशा-अल्लाह-तआला हर नुक़्ता-ए-नूर रूह, अल्लाह-तआला
को बख़ूबी पहचान कर, संजीगदी से सही और मुकम्मल तौर पर ख़ुदा-तआला को याद करके अपने
बदी के तमाम कारनामों से नज़ात हासिल कर अपने ही मज़हब से सुबहान-अल्लाह ऊँच-ते-ऊँच
ओहदा हासिल करके अमन-चैन और प़ाकीज़गी की ज़िंदगी बसर करते, पाक ज़िंदगी का लुत्फ़
उठाते, ईमानदारी से सच्चे ख़ुदाई ख़िदमतगार बन ख़ुशियों भरी ज़िन्दगी का रूहानी स़फर,
हँसते-हँसाते, ख़ाते-पीते सभी ख़ुदा के बंदो के साथ मिलकर मौज से तय करें।
अब हम सब मज़हबों की इंसानी जिस्मों को ज़रा ग़ौर से देख़ते हैं। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख़, ईसाई इन सभी मज़हब वालों के जिस्मों में दो आँख़ें, दो कान, एक नाक, एक मुँह, दो हाथ, दो पैर वग़ैरह-वग़ैरह एक जैसे हैं। सभी मज़हब वालों में जिस्म क़ुदरत की पाँच चीज़ों से बने हैं। सभी मज़हब वालों के जिस्म में ख़ून का रंग लाल है। सभी मज़हब वाले आँख़ों से देख़ते हैं, कानों से सुनते हैं, मुँह से बोलते, ख़ाते-पीते हैं...।
फ़र्प तो कहीं भी नहीं है। एक मुस्लिम, एक किश्चियन, एक सिक्ख़ और एक हिन्दू औरत ने, मान लीजिए कि चारों ने एक साथ एक-एक बच्चे को जन्म दिया है। उन सभी बच्चों को एक जगह पर, एक साथ रख़कर पहचान करने की कोशिश कीजिए कि कौन-सा बच्चा कौन-से मज़हब का है? क्या मज़हब के बुनियाद पर कोई पहचान है? क़तई कोई पहचान नहीं है।
इससे तो रोजे-रौशन ज़ाहिर होता है
कि अलग-अलग मज़हब का कोई वजूद ही नहीं है। यह मज़हब तो फ़कत एक पहचान की ग़रज़ से है,
जैसे राजस्थान का रहने वाला राजस्थानी, पंजाब का रहने वाला पंजाबी, गुजरात का रहने
वाला गुजराती।
ऊपर की सब
बातों का लुब्बे-लुबाब यही है कि अल्लाह-तआला पर पूरी ईमानदारी से ईमान लाने वाले,
रूहानी शमा पर क़ुर्बान जाने वाले रूहानी परवानों के वास्ते किसी भी मज़हब में कोई
फ़र्प है ही नहीं। दुनिया एक है। एक दुनिया का ख़ुदा एक है। लिहाज़ा एक दुनिया में
रहने वाली सभी इंसानी रूहों का मज़हब भी एक है।
ऐ मेरे पाक
परवरदिगार रूहानी रब, इंसानी रूहों ने जो मज़हब की ऊँची-ऊँची दीवारें बना रख़ी हैं,
उन सब दीवारों को ख़त्म कर। शुकिया, मेरे मालिक-ए-रूहानी, तेरा लाख़-लाख़ शुकिया।
वक़्त का कोई भरोसा नहीं है। इस वास्ते याद रखें कि - ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’।
रूहानी मालिक का दिल व जान से लाख़-लाख़ शुकिया अदा करते हुए सभी क़ाबिल़ेकद्र दिलाराम खुदा के दिल तख्तनशीन रूहानी पाठकों को अल्विदा।
गुज़ारिश
: किसी भी मज़हब में
ईमान लाने वाले ख़ुदा के बंदे के जज़्बातों को तिनका बरोबर भी त़कल़ीफ पहुँचाना इस
लेख़ का म़कसद क़तई नहीं है। फिर भी किसी को कोई बात नागवार लगे तो ख़ुदा का यह बंदा
म़ाफी का तलबगार है।
आपका तहे दिल से स्वागत है।