दुनिया
के हर मज़हब का हर इंसान अपने-अपने सल़ाके से अल्लाह-ताला की बन्दगी ज़रूर करता है, मगर सही और मुकम्मल व़ाकिफयत न होने
की वजह से अल्लाह-ताला से दिलकश मिलन और उल्फ़त भरे सच्चे सरूर का एहसास
नहीं करता है। अल्लाह-ताला से रुहानी रोशनी की किरणें और रुहानी त़ाकत हासिल
कर अपनी ज़िन्दगी के आमालनामों में तबदीली का भी एहसास नहीं करता है। लिहाज़ा, उस ग़ज़ब
की उल्फ़त का एहसास कराने की नेक ग़रज़ से अल्लाह-ताला, इस वक़्त जो रूहानी तालीम दे
रहे हैं उसको यहाँ ज़ाहिर करते हैं।
सभी रूहों के मुआिफक अल्लाह-ताला भी अज़ली-अबदी नुक़्ता-ए-नूर रूह है। सभी रूहों से आला होने के सबब से उन्हें रूह-ए-आला कहते हैं। सभी मज़हबों की सभी इंसानी रूहें अल्लाह-ताला के साथ आलम-ए-अरवाह में रहती हैं।
अल्लाह-ताला का अपना जिस्म नहीं है।
शैतान के बहकावे में इंसानी रूहों के बदी के कारनामों से इंसानी जहान जब जन्नत से जहन्नम
में तबदील हो जाता है और क़यामत का वक़्त आता है तब अल्लाह-ताला बावा आदम अ. के जिस्म
में दाख़िल होकर उनके ज़ुबान-ए-मुबारक के ज़रिये
रुहानी तालीम देकर इंसानी रूहों को शैतान की ज़ंजीरों से नज़ात दिलाकर जन्नत का वारिसाना
ह़क अता फ़रमाते हैं। हर मज़हब की हर इंसानी रूह की बहबूदी का यही पाक कर्म अल्लाह-ताला अब फ़रमा रहे हैं।
अल्लाह
ताला सभी सलाहियतों, सभी ख़ूबियों और सभी फ़नकारों में सदा वाहिद
और बहर हैं जिसका बयान तस्वीर में किया
गया है।
सभी
मज़हबों की सभी इंसानी रूहें दिली इत्त़फ़ाक
से पूरी तरह तसलीम करती हैं कि सभी का मालिक एक है। सभी मज़हबों की सभी इंसानी
रूहों की यहाँ यकराय है। इसमें किसी की भी क़तई कोई मुख़ाल़िफत नहीं है। इसी सबब से
हिन्दू-मुस्लिम-सिख़-ईसाई सब आपस में भाई-भाई
हैं। इस आला अज़ीम हस्ती को कोई अल्लाह-ताला,
कोई गॉड फादर, कोई जेहोवा, कोई शिव वगैरह वगैरह नामों से पुकारते हैं।
तमाम
मज़हबों की तमाम इंसानी रूहें नूर की बन्दगी
करती हैं, मन्नतें करती हैं, दुआएँ माँगती हैं कि हे हिर्रहिमानिर्रहीम मौला
हमें नेक और सीधी राह दिख़ा।
हिन्दू अमरनाथ, सोमनाथ, विश्वनाथ, पशुपतिनाथ.... सभी जगह नूर की पूजा करते हैं और याद करते हैं। मक्का शऱीफ में तमाम हज़ करने वाले काबा में संग-ए-असवद को नूरे-इलाही मानते हुए बेइंताह इज़्ज़त और दिली प्यार से बोसा लेते हैं। हज़रत ईसा ने कहा कि गॉड इज़ लाइट यानि अल्लाह-ताला पकाश (नूर) है।
यहूदियों के हज़रत मूसा को पहाड़ पर झाड़ी के क़रीब जेहोवा (अल्लाह-ताला)
एक लौ (नूर) की मानिदं दिखाई पड़े। पारसी मज़हब में ईमान लाने वाले नूर को अपना ह़िफाज़तगार समझते हैं। सिख़ों के धर्म गुरू गुरूनानक का भी
इशारा एक ओंकार, निराकार यानि नूर की तऱफ ही था। इस तरह से हम देखते हैं कि दुनिया
के तमाम मज़हबों की तमाम इंसानी रूहें अपने अपने सल़ीके से नूर यानि बिन्दू स्वरूप
की ही इबादत करती हैं।
कितने
हैरत की बात है कि इतने बड़े नीले आसमान की
छत के नीचे सारी दुनिया में किसी भी मज़हब का कोई भी इंसान सही तऱीके से य़कीनन नहीं
जानता है कि ‘मैं कौन हूँ’? हर मज़हब का हर इंसान सारे दिन मैं, मैं.... बोलता है,
मगर किसी से भी संजीदगी से पूछा जाये कि ‘मैं
बोलने वाला कौन है’? तो जवाब मिलेगा कि मैं अहमद हुसैन हूँ....मैं पीटर हूँ....मैं
रामस्वरूप हूँ....। ह़क़ीकत में ख़्याल किया जाये तो ये सभी हड्डी-माँस के बने जिस्म
के नाम हैं। कहते हैं, ‘जिस्म मेरा है’। जिस्म मेरा कहने से स़ाफ ज़ाहिर होता है कि
मैं जिस्म से अलग हूँ। अब अहम सवाल है कि जिस्म
से अलग ‘मैं कौन हूँ’?
आज
बेहद तालीम याफ़्ता इंसान, सारी दुनिया को एक धमाके से नेस्तोनाबूद करने वाला साइंसदान
इस सवाल के जवाब से क़तई लाइल्मी है कि ‘मैं कौन हूँ’? जब इंसान को ‘मैं’ का ही इल्म
नहीं है तब ‘मैं’ के मालिक अल्लाह-ताला का इल्म कैसे होगा? ‘मैं’ इस जिस्म में कहाँ
से आया? कब आया? क्यों आया? वगैरह, वगैरह.... सब बातों की समझ की रूहानी तालीम, इस
क़यामत के वक़्त अल्लाह ताला ख़ुद बावा आदम अलैहिस्सलाम के आला ज़ुबान के ज़रिये फ़रमा
रहे हैं।
ह़क़ीकत
में ‘मैं’ न मुस्लिम, न हिन्दू...., न अल्लाह, न सेठ, न अफ़्सर, न औरत, न मर्द, न जिस्म
हूँ। मैं तो फ़कत जानदार त़ाकत रूह हूँ। सब मज़हबों की सब इंसानी रूहों की बहबूदी के
नेक इरादे से, इन सभी बातों का ख़ुलासा इस किताब के आगे के स़फों में कलमबंद किया गया
है।
लिहाज़ा,
इस रूहानी तालीम को सही माने में समझ कर, अल्लाह-ताला की सही पाक याद से शैतान से नज़ात
हासिल कर बादशाह-ए-बहिश्त बनने की अपनी पाक मुराद पूरी कर लो।
हर मज़हब का हर इंसान सारा दिन मैं, मैं....जो हऱफ बोलता है, वह जिस्म नहीं है, मगर बेजान हड्डी-माँस (ख़ाक) के बने जिस्म में जानदार ताकत नुक़्ता-ए-नूर रूह है। जिस्म फ़ना होने वाला है। इसका कोई मोल नहीं है। रूह ल़ाफानी है।
मोल और अहमियत फ़कत रूह का है। रूह बारीक से बारीक नुक़्ता, बिन्दी, जर्रः,
लत़ीफ मुआिफक है। रूह से छोटा नुक़्ता कोई होता ही नहीं है। पैमाइश में सभी रूहें एक जैसी होती हैं। छोटी-बड़ी नहीं
होती हैं। ख़ाक की बनी हुई आँख़ों से जन्नती
रूह को देख नहीं सकते हैं। रूह को रूहानी तालीम के ज़रिये समझ सकते हैं और एहसास
कर सकते हैं। रूह अल्लाह-ताला का एक बड़ा भारी अजूबा है।
ऩुक्ता-ए-नूर
रूह में तीन जानदार ताकतें ख़्यालात, अक़्ल
और आदतें हैं। मन में कर्म करने के ख़्यालात पैदा होते हैं। अक़्ल नेकी और बदी
का फ़ैसला कर अमल वास्ते फ़रमान जारी करती है। अमालनामों का असर या छाप जो रूह पर पड़ती
है उन्हें आदतें कहते हैं। इन ताकतों के ज़रिये रूह हर छोटे-बड़े कारनामें को सर-अंजाम
बख़ुबी देती है।
इतने
बड़े जिस्म में रूह पेशानी के बीच में बैठी होती है। रूह जिस्म के हर हिस्से आँख़,
कान, नाक, मुँह, हाथ, पैर वगैरह वगैरह....के ज़रिये अपना हर किरदार निभाती है। कार
ड्राइवर के बिना नहीं चल सकती है। इस तरह बेजान जिस्म को भी जानदार ताकत रूह बख़ुबी
चलाते हुए f़जंदगी का लम्बा स़फर सभी ख़ट्टे, मीठे, नमकीन ज़ायके लेते हुए तय करती
है।
कितनी
अजीबो-ग़रीब बात है कि हर मज़हब का हर इंसान (रूह) अल्लाह-ताला को याद करता है, मगर
जानता नहीं है कि अल्लाह-ताला और रूहों का वतन कहाँ है?
1.
आलमे-नासूत :
सामने तस्वीर में नीचे नीले रंग का हिस्सा दुनिया-ए-आरज़ी या इंसानी जहान है। यहीं
सभी मज़हबों की सभी इंसानी रूहें अपने पाक वतन से आकर हड्डी-माँस का लिबास लेकर अपना
किरदार अदा करती हैं। यहाँ ख़्याल, इरादे, ज़ुबान और कर्म तीनों हैं।
2.
आलमे-मलकूत :
इंसानी जहान के सूरज, चाँद, सितारों के बहुत दूर ऊपर में चॉंद के नूर जैसी दूधिया रोशनी
वाले दुनिया में ख़्याल होते हैं मगर ज़ुबान नहीं होती है। इशारों से बातचीत होती है। यहाँ तीन
फ़रिश्ते ज़िब्रिल अ., मकाईल अ. और इस्र]िफल अ. रहते हैं जो अल्लाह-ताला के फ़रमान
के मुताब़िक बावा आदम अ.के ज़रिये क़ायम ए-बहिश्त, क़यामत-ए-दोज़ख़ और परवरिश-ए-बहिश्त के ज़ुम्मेदार होते हैं। यह फ़रिश्तों की दुनिया
है।
3. आलमे-जबरूत : सबसे ऊपर के जहान में सुनहरी लाल रूहानी नूरानी रोशनी चारों और है। यही अल्लाह-ताला और सभी मज़हबों की सभी इंसानी रूहों के रहने का असली वतन है। यही पाँचवा आसमान, सातवाँ आसमान, आलम-ए-अर्वाह, अर्श-ए-बरीन, दारूल अमान है।
यहाँ चारों ओर अमन का आलम है। यहाँ
ख़्याल, ज़ुबान और कर्म नहीं होते हैं। यहाँ से ही हर मज़हब की हर रूह अपने पार्ट के
मुत़ाबिक इंसानी जहान में उतर कर अपना किरदार निभाती है।
यह इंसानी जहान इंसानी रूहों का हैरत-अंगेज़ ऐसा शजर (दरख़्त) है जिसका तुख़्म अल्लाह-ताला ऊपर अपने वतन अर्श-ए-आज़म में है और सभी मुख़्तल़िफ मज़हब इस इंसानी ज़मीन पर फ़ैले हुए हैं। तुख़्म में शजर के समाये होने के सबब से अल्लाह-ताला जोकि जानदार तुख़्म है सभी मज़हबों की सभी इंसानी रूहों की ख़िल्क़त के पूरे चक का तवारिख़ शुरू से लेकर आख़िर तक का बावा आदम अ. के आला ज़ुबान के ज़रियें नीचे मुज़ब फ़रमा रहे हैं।
इंसानी खिल्क़त के घूमते हुए चक के शुरू के 1250 सालों में इंसानी ज़मीन पर अल्लाह-ताला के इल्म-ए-रूहानी के ज़रिये क़ायम किया हुआ अव्वल दीन जन्नती इंसानों का यानि सदा रुहानियत मे रहने वाले ख़ूबियों में मुकम्मल इंसानों का होता है।
यही बहिश्त या जन्नत है, यही सुनहरा ज़माना
है, यही ख़ुदा का असली बग़ीचा है। यहाँ चारों ओर अमन-चैन, प्यार-मोहब्बत, पाकीज़गी
का आलम होने से जन्नती f़जन्दगी में ग़म के नामो-निशान के बिना लुत्फ़ ही लुत्फ़ है।
क़ुदरत ख़ुशगवार होने से मौसम बड़ा दिलपसंद रहता है।
ख़िल्क़त के चक के 1250 साल घूमने के बाद रजत ज़माने में रूहानी ताकत 25 फ़ीसदी कम हो जाती है। फिर भी वहाँ ग़म का नामो-निशान नहीं होता है। दोनों ज़मानों को मिलाकर 2500 सालों मे यकजुबान, यकमज़हब, यकह़ुकूमत, यकख़ानदान, यकराय, यकख़्यालात, यकरस्मों-रिवाज....होते हैं। 2500 साल अमन-चैन से गुज़रने के बाद पाकीज़गी और रुहानियत में 50 फ़ीसदी से भी ज़्यादा कमी हो जाने से ताबाँ ज़माने में कई दिगर मज़हबों की शाख़ाएँ निकलती हैं।
आज से त़करीबन 2500 साल पहले हज़रत इब्राहीम अ. ‘इस्लाम मज़हब’,
त़करीबन 2250 साल पहले हज़रत बौद्ध ‘बौद्ध-मज़हब’, त़करीबन 2000 साल पहले हज़रत ईसा
अ. ‘ईसाई मज़हब’और त़करीबन 1400 साल पहले हज़रत मोहम्मद सल्ले. ‘मुस्लिम मज़हब’ क़ायम
करते हैं।
आज से त़करीबन 1250 साल पहले ताबाँ ज़माना, लोहा ज़माने यानि शैतान के ज़माने में तबदील हो जाता है। आहिस्ता, आहिस्ता चारों तरफ शैतान (शहबत यानि हवस, गुस्सा, लालच, लगाव, ग़रूर) के रोब और शानो-शौकत के बढ़ने से शैतान की ह़ुकूमत में मज़हबी ताकतें ख़ोख़ली हो जाती हैं।
चारों तऱफ ज़िनाँ , शराब, लूट-ख़सोट, मारा-मारी, आगज़नी, मज़हब के नाम
पर जंगे-जेहाद का ख़ूनेनाहक ख़ेल होने लगता है। इस तरहा से ख़ुदा का बगीचा जहन्नम में
तबदील हो जाता है।
मज़कूर बेइतांह ख़ोफनाक हालतों में ख़ुदा अपना वतन दारुल-अमान छोड़ कर इस शैतानी ज़मीन पर ख़ुद बावा आदम अ. के इंसानी जिस्म पर नाज़िल होकर उनके ज़ुबान-ए-मुबारक के ज़रिये रूहानी तालीम देकर और सही याद सिख़ाकर बहिश्त में जाने वाली इंसानी रूहों को रुहानियत में शराबोर कर शैतान की तमाम ज़ंजीरों से नज़ात दिलाकर, मुकम्मल पाक बनाकर सभी रूहानी फ़नकारों से सजाकर क़ाबिल-ए-बहिश्त बनाते हैं, जिससे अगली पैदाइश में ये इंसानी रूहें जन्नत में अपना वारिसाना ह़क हासिल करती हैं।
यही हीरे जैसी ज़िंदगी बनाने वाला सुहावना वक़्त है जबकि इंसानी रूहें अल्लाह-ताला से जी भर कर मिलन मनाकर अपना ल़ाफानी नसीब बनाती हैं। यही सही वक़्त है जबकि अल्लाह ताला की पाक याद से पाक दामन बनकर अल्लाह ताला की दिल की दुआएँ लेकर जन्नत में ऊँचा ओहदा हासिल कर सकते हैं।
य़कीनन आप भी अल्लाह-ताला
से जी भरकर गुफ़्तगू कर मुबाऱकी मिलन मनाने की अपनी पाक तमन्ना पूरी कर सकते हैं।
बस यही सही वक़्त है, एक लम्हें की भी देरी न करें। इस दरख़्त-ए-इंसानी ख़िल्क़त के
बुनियाद में बावा आदम अ.,हव्वा और फ़रिश्ता बनने वाले क़यामत-ए-जहन्नम करने और क़ायम-ए-जन्नत
करने ख़ुदा के याद की इबादत में बैठे हैं।
सभी
मज़हबों की सभी इंसानी रूहों से दिली गुज़ारिश है कि अब क़यामत का वक़्त जारी है, मौत
सबके सिर पर खड़ी है और ज़िन्दगी का एक लम्हे का भी भरोसा नहीं है। लिहाज़ा, वक़्त
की नज़ाकत को पहचान कर, ख़ुदा के नियम पर चलकर बादशाह-ए-जन्नत के तख़्तनशीन बनो। मगर
ग़ौर से याद रख़ें - ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’।
दरख़्त-ए-इंसानी ख़िल्क़त के रूहानी तालीम की तल्ख़ीस में व़ाकिफयत कराने के अलावा यहाँ एक नायाब बड़े भारी गहरे रूहानी राज़ की व़ाक]िफयत कराई गई है कि दुनिया-ए-आरज़ी का नाटक 5000 साल के तयशुदा वक़्त में तयशुदा सल़ाके से िफर से दुबारा अपने आपको यकसा दोहराता रहता है।
नीले आसमान की छत के नीचे इतना बड़ा इंसानी जहान का हर नज़ारा हर लम्हे तयशुदा वक़्त में हूबहू अपने को दोहराता रहता है। लिहाज़ा, यह बना बनाया नाटक है। किसी भी नज़ारे में कण बरोबर भी रद्दो-बदल क़तई नहीं हो सकती है। सुबह के सूरज अल्लाह-ताला ने सभी इंसानी रूहों की बहबूदी की ग़रज़ से 5000 साल पहले जिस रूहानी तालीम के ज़रिये जहन्नम को जन्नत में तबदील किया था वही पाक कारनामा अल्लाह-ताला अब ]िफर से कर रहे हैं और हर 5000 साल बाद करते रहेंगें।
आप भी वक़्त का फ़ायदा उठाते हुए जन्नत की अपनी गैऱफानी
नसीब बनाने का मौका न छोड़े। कहीं बाद में अ़फसोस-सद-अ़फसोस न करना पड़े।
राजयोग माना पाक परवरदिगार रूह-ए-आला से रूहानी रिश्ता
क़ायम करके जन्नत में शहज़ादा-शहज़ादी बनने का अपना मुकद्दर पुख्त करना। इसके वास्ते
शैतान की गुमराही में आकर जो पाप कर्मों से गुनाह किये हैं उनका ख़ात्मा करना है। लिहाज़ा,
नीचे मुज़ब चार उसूलों को रूहानी तालीम के बुनियाद पर अमल में लाते हुए अल्लाह-ताला
से राबता क़ायम करके वस्ल (रूह का रूह-ए-आला से मिलन) की तेज आग में सब गुनाहों को
जला कर राख़ करके नापाक रूह को पाक बनाना है।
1. पाकीज़गीः ऩफसानी ख़्याहिश्यात या हवस शैतान का बहुत बड़ा रहनुमा इंसानी रूहों का बड़ा भारी दुश्मन है। इससे इंसानी रूहें बिल्कुल अंधी और बहरी बन जाती हैं। अक़्ल पर गोडरेज का मोटा ताला पड़ जाता है और इंसानी रूहें औरत-मर्द के एहसास में फ़ंस कर हवस के गन्दे गटर में शराबी की तरह बार-बार गिरती रहती हैं।
इससे
इंसानी रूहें पाक परवरदिगार ख़ुदा की हर कदम पर ऩाफर्मानी कर हवस, गुस्सा, लालच, लगाव,
ग़रूर के बहकावे में आती-आती सभी तरह के दिगर नापाक और गुनाहों के कारनामों में डूबती
चली जाती है। इससे पाकीज़गी, अमनो-अमान और ख़ुशहाली का एकदम ख़ात्मा हो जाता है और
इंसानी रूहें जहन्नम के कीचड़ के ग़मों में फ़ंसती चली जाती हैं। किसी शायर ने ठीक
कहा है कि ö ख़ुदा की जात पाक है, तो पाक बन कर मिल।
2. पाक हलाल ग़िज़ाः पाक परवरदिगार रब से राबता क़ायम करने में पाक हलाल ग़िज़ा की ख़ास अहमीयत है। कहावत है कि जैसी हम ख़ाते है वैसे ही हमारे ख़्याल बन जाते हैं। अक़्ल भी फिर वैसे ही फ़ैसलों के फ़रमान जारी करती है। जन्नत की ख़ूबियों में मुकम्मल मुस्त़फा (जिनमें आज के इंसानों जैसे ऐब नहीं होते) इंसानी रूहें नापाक ख़ुराक नहीं ख़ाती हैं।
लिहाज़ा, ख़ुदा के नेक रास्ते पर चलने वाली
रूहों को नापाक चीजें मसलन गोश्त-अण्डा, प्याज-लहसुन, शराब-कबाब, बीड़ी-सिगरेट-तम्बाकू
वगैरह-वगैरह का इस्तेमाल क़तई नहीं करना है, क्योंकि बहिश्त में कोई बदबूदार चीज़ होती
ही नहीं है। जो इंसान ऐसे पाक ख़्यालात न रख़ते हो यानि पाक हलाल न ख़ाते हो, पाक परवरदिगार
अपने रब से रूहानी राबता न रख़ते हो उनके हाथों से बनाये हुए ख़ाने से भी पूरी परहेज
रख़नी है। इससे इंसानी रूहें पाक परवरदिगार अल्लाह-ताला की दिल पसंद पाक रूह बन जाती
हैं।
3. जन्नती ख़ूबियों का अमालनामाः जन्नती इंसानी रूहें सभी रूहानी
सलाहियतों, रूहानी ख़ूबियों, रूहानी फ़नकारों, रूहानी फ़ज़ीलतों और रुहानीयत में बेइंताह
शराबोर होती हैं। अपने मालिक पर सच्चा ईमान लाने वाली और जन्नत में ऊँचा ओहदा हासिल
करने की पाक ख़्वाहिश रखने वाली हर इंसानी रूह को ये सब ख़ूबियाँ इसी वक़्त अपने को
रूह समझ रूह-ए-आला से सही राबता क़ायम कर हासिल करनी है। इससे इंसानी रूहें ख़ुदा के
दिलतख़्तनशीन होकर ख़ुदा की नूर-ए-रत्न बन
जाती हैं।
4. सुह्बत सदा-ए-ह़कः जैसी सुह्बत वैसी ख़ूबियाँ
इंसानी रूह ख़ुदबख़ुद हासिल कर लेती है। फ़कत एक अल्लाह-ताला ही हमेशा सदा-ए-ह़क है।
लिहाज़ा, हर वक़्त अल्लाह-ताला की पाक सुह्बत यानि इलाही ज़िक करते हुए ज़िके ख़ैर
में रहना है। अल्लाह-ताला के रूहानी तालीम की किताब-ए-आसमानी, किताब-ए-इलाही सुननी-सुनानी,
पढ़नी-पढ़ानी है। हमेशा अपने को पाक रूह समझकर रूह-ए-आला से पाक रिश्ता बनाये रखना
है। इस तरह सब बीमारियों, दुःख़-दर्द, ग़म-बेचैनी का सदा के वास्ते ख़ात्मा हो जायेगा
और ज़िंदगी पाक बनने से आप क़ाबिल-ए-जन्नत बन जायेंगे।
इस
क़दर बंदगी के रियाज़ से इंसानी रूहें पाकनफ़्सी, पाकबाज, पाकनजर, पाकनियत, पाकदामन,
पाकदिल बन जाती हैं। ऐसी हवस की क़तई नाइल्मी, पाकबीनी (फ़कत नेकी देखना, ऐबो पर नजर
न जाना) और पाकसिरिश्त इंसानी रूहें इस इंसानी जहान में ख़ुदा का नाम रोशन करती हुईं
इस वक़्त जिस्म और रूह के अंगों पर राज्य करने वाली बन अगली पैदाइश में जन्नत में ऊँचे
ओहदे पर तख़्तनशीन होती हैं।
आज हर ख़ानदान में गम, बेचैनी, बेइत्मिनानी, बदअमनी,
रंज, ख़ुदपरस्ती और खौफ के आलम का अहम सबब है कि इंसान में जन्नती सिफ़्तों का ख़ात्मा
हो गया है। लिहाजा, इस कयामत के दौर में हर इंसानी रूह को अपने को रूह समझ कर रूह-ए-आला
से सही और पक्का राबता क़ायम करके अपनी जिंदगी में सभी जन्नती ख़ूबियों को अभी इख़्तियार
करके अगली पैदाइश में ख़ुदा के ख़ुशबूदार बगीचे में ख़ुशबूदार फूल बनकर य़कीनन बादशाह-ए-बहिश्त
का तख़्तनशील बनना है।
जन्नत के मुकम्मल इंसान में अव्वल नम्बर जन्नती सिफ़्त पाकीज़गी है। यह ख़ूबी जिंदगी में अमन, चैन, ख़ुशहाली की बुनियाद है। बर्दाश्त करने की ख़ासियत सही आबिद जिंदगी हासिले कराती है। इत्मिनान इंसान में फौलादी हौसला पैदा करता है। फौलादी हौसले वाले इंसान को तो अल्लाह भी इमदाद करने में मजबूर है। बेख़ौफी इंसान को मौत के मुँह से भी वापिस ले आती है।
शीरी ज़ुबान तो गुस्से से लाल-पीले शैतानी इंसान के सख़्त दिल पर भी फ़तह
हासिल कर लेती है। ख़ुशमिज़ाज़ी इंसान के हसीन चेहरे की सही सज़ावट है। हलीमी की सिफ़्त
से इंसान रूहानी शोहरत की बुलंदी पर चढ़ जाता है। इस तरह सभी जन्नती सिफ़्तें इंसानी
रूह को ख़ुदा के बगीचे का ख़ुशबूदार फूल बनाती है।
वक़्त का कोई भरोसा नहीं है। इस वास्ते याद रखें कि - ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’।
रूहानी मालिक का दिल व जान से लाख़-लाख़ शुकिया अदा करते हुए सभी क़ाबिल़ेकद्र दिलाराम खुदा के दिल तख्तनशीन रूहानी पाठकों को अल्विदा।
गुज़ारिश : किसी भी मज़हब में ईमान लाने वाले ख़ुदा के बंदे के जज़्बातों को तिनका बरोबर भी त़कल़ीफ पहुँचाना इस लेख़ का म़कसद क़तई नहीं है। फिर भी किसी को कोई बात नागवार लगे तो ख़ुदा का यह बंदा म़ाफी का तलबगार है।
अधिक स्पष्टीकरण के लिए अपने शहर में स्थित
प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।