द्वादश ज्योतिर्लिंग

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हर वर्ष केवल एक दिन के बड़ी श्रद्धा-भावना से विशेष शिव की पूजा-भक्ति, व्रत-उपवास, रात्रि जागरण इत्यादि करके मनाते आये हैं। परन्तु इससे न तो आपके “शिव के भण्डारे भरपूर, काल-कंटक दूर’’ हुए और न ही मन वांछित कामनायें पूर्ण हुईं।

कारण यह है कि शिव कौन है, उनसे हमारा क्या सम्बन्ध है, हमें उनसे क्या पाप्ति होती है, वह पाप्ति हमें कब और कैसे होती है, शिव का “रात्रि’’ से क्या सम्बन्ध है, शिवरात्रि का पर्व कब शुरू हुआ और वह किस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृत्तान्त का यादगार है?.....इन अति गुह्य रहस्यों की सत्यता आज पायलुप्त हो चुकी है।

यदि शिव भक्तों को यह ज्ञात होता कि शिवरात्रि तो सर्व आत्माओं के पारलौकिक मात-पिता निराकार शिव परमात्मा के कलियुग अन्त और सतयुग आदि के संगम के समय, साकार मनुष्य तन “प्रजापिता ब्रह्मा’’ के तन में सृष्टि पर अवतरित होकर पुरानी, पतित, कलियुगी तमोपधान, भ्रष्टाचारी, आसुरी दुःखमय सृष्टि को नई, पावन सतयुगी सतोपधान, श्रेष्ठाचारी, दैवी सुखमय सृष्टि में परिवर्तित करने के परम कल्याणकारी ईश्वरीय कर्त्तव्य का स्मृति-दिवस होने हेतु सभी पर्वों का माई बाप सबसे महान हीरे-तुल्य पर्व है तो वे इसे एक सामान्य पर्व की तरह न मना कर सच्चा “विष-तोड़क’’ पर्व मानकर मनाते और गति-सद्गति के मार्ग पर अग्रसर हो जाते।

सबसे बड़ी ख़ुश़खबरी यह है कि वर्तमान समय वरदानी भोलनाथ शिव परमात्मा नव-विश्व की पुर्नस्थापना करने हेतु पुन अवतरित हो चुके हैं और अपने सर्वपथम और सर्वोत्तम वरदान के रूप में स्वयं अपना सत्य परिचय दे रहे हैं ताकि हम उनके साथ योगयुक्त होकर, शिव वरदानों से अपनी झोली भरकर गति-सद्गति के अपने ईश्वरीय जन्म-सिद्ध उत्तराधिकार को पाप्त करके सच्ची-सच्ची शिवरात्रि मनायें।

स्मरण रहे - “अभी नहीं तो, कभी नहीं’’।


शिव कौन हैं?

पारलौकिक परमपिता ‘शिव’ : आपके, हमारे, विश्व की सर्व आत्माओं के पारलौकिक परमपिता हैं। हम आत्मायें उस परमपिता की अमर, अनादि संतान हैं। परमात्मा और आत्माएँ भिन्न-भिन्न सत्ताएँ हैं। परमात्मा एक है और आत्माएँ अनेक हैं। परमात्मा इस अनादि सृष्टि रूपी नाटक के रचयिता एवं निर्देशक हैं और आत्माएँ इसमें पार्टधारी (एक्टर) हैं। आत्माएँ पावन होकर महात्मा, धर्मात्मा, देवात्मा बन सकती हैं, किन्तु परमात्मा नहीं। आत्माएँ परमात्मा का ‘अंश’ नहीं अपितु ‘वंश’ हैं।

‘शिव’ का अर्थ

‘शिव’ का अर्थ है - कल्याणकारी, मंगलकारी अथवा शुभकारी। कई लोगों का कहना है कि ‘शि’ का अर्थ है - पापनाशक और ‘व’ का अर्थ है ‘मुक्तिदाता’। इसलिए ‘शिव’ परमपिता परमात्मा ही का कर्त्तव्य-वाचक नाम है क्योंकि परमात्मा ही कल्याणकारी, मुक्तिदाता और सद्गतिदाता है।

‘शिव’ राजनीतिक नेताओं, अर्थ-शास्त्रियों तथा अन्य सभी के लिए भी मूल-मंत्र

वास्तव में देखा जाय तो ‘शिव’ शब्द राजनैतिक नेताओं, अर्थ-शास्त्रियों, समाज-सेवियों, कलाकारों, सैनिकों, भगवद्-पेमियों तथा योगियों सभी के लिए पेरक सिद्ध हो सकता है। आज हमारा जो संविधान है, उसका एक मुख्य लक्ष्य समाज कल्याण है। हमारी सरकार ‘समाज कल्याण’ को ही अपनी नीति मानती है।

अत ‘शिव’ शब्द हमारे मत्रियों के लिए ‘राजनैतिक मंत्र’ का काम कर सकता है। आज के अर्थशास्त्री भी पाय समाजवाद को ही सर्वोत्तम मानते हैं। अर्थ मंत्री भी ऐसा ही बजट बनाना चाहते हैं जो समाज के सभी वर्गों के हित में हो। अत ‘शिव’ शब्द उनके लिए एक आर्थिक सफलता के लिए ‘मूल-मंत्र’ सिद्ध हो सकता है। समाज-सेवियों का तो कार्य ही जन-कल्याण का कार्य करना है।

आज हमारी ललित कलायें उच्च आदर्श को छोड़कर वासनाओं को उभारने वाली तथा उत्तेजना पैदा करने वाली बन गई हैं। अत यदि वे भी ‘सत्यं-शिवं-सुन्दरं के लक्ष्य को सामने रखें तो कला द्वारा कल्याण कर सकते हैं। इस पकार ‘शिव’ मंत्र सभी के लिए ‘मूल-मंत्र’ है।

दिव्य-भाषा का उद्गति शिव से

“भाषा का इतिहास लिखने वाले लोग कहते हैं कि दिव्य-भाषा (देव-भाषा) का पारम्भ शिव ही ने ‘डमरू’ बजाकर किया था। सृष्टि के आरम्भ में उन्होंने ही ‘अगम-निगम’ का भेद खोला था। स्पष्टत ‘डमरू’ तो यहाँ भाषा में प्रयुक्त होने वाला अलंकार है। भाव तो यही है कि मुनष्य को दिव्यता तथा आध्यात्मिकता परमात्मा शिव ने ही सिखाई थी’’।

पाचीन धर्म-ग्रंथों में भी शिव की ही महिमा

मनु-स्मृति में लिखा है कि - “सृष्टि का आरम्भ करने के लिए एक अण्ड प्रगट हुआ, वह तेजस्वी और प्रकाशमान था’’।

शिव पुराण में भी इसी प्रकार का वर्णन है। उसमें कहा गया है कि - “सृष्टि-विनाशकाल में एक अद्भुत ज्योतिर्लिंगम् प्रगट हुआ जो न घटता था, न बढ़ता था। वह अनुपम था, अव्यक्त था और उस द्वारा ही सृष्टि का आरम्भ हुआ’’।

अलौकिक नाम

परमात्मा नाम से न्यारा नहीं, उसका नाम न्यारा है। ‘शिव’ परमात्मा का स्व-कथित अलौकिक नाम है। शिव का अर्थ है - कल्याणकारी, बीजरूप, बिन्दू। परमात्मा सारी सृष्टि का सद्गति दाता है, इसलिए वह कल्याणकारी है।

जिस प्रकार बीज किसी वृक्ष का रचयिता होता है, इसी पकार परमात्मा शिव भी मनुष्य सृष्टि रूपी वृक्ष का निमित्त बीज है। पुनर्जन्म के चक्कर से सदा मुक्त परमात्मा का नाम कभी बदलता नहीं, इसलिए उसे ‘सदा शिव’ भी कहते हैं। परमात्मा शिव का कोई रचयिता नहीं इसलिए उसे ‘स्वयंभू’ अथवा ‘शम्भू’ भी कहते हैं।

दिव्य स्वरूप

परमात्मा शिव ज्योति-बिन्दु स्वरूप हैं। उनका कोई शारीरिक आकार नहीं है। इसी अर्थ में उन्हें ‘निराकार’ कहा जाता है। परमात्मा रूप से न्यारे नहयीं, उनका रूप न्यारा है। किसी का अस्तित्व हो और रूप उसका हो ही नहीं, यह बात असम्भव है। परमात्मा के लिए पाय कहते हैं कि वह एक शक्ति है। वास्तव में शक्ति तो परमात्मा का गुण है।

सुगन्धि, मिठास आदि गुणों का निजी स्वरूप नहीं होता, किन्तु गुणों को धारण करने वाले ‘गुणी’ का रूप अवश्य होता है। परमात्मा का ‘ज्योति बिन्दु’ अर्थात् ज्योति के आकार जैसा दिव्य रूप है। परमात्मा के इस स्वरूप को स्थूल चर्म-चक्षुओं से नहीं देख सकते, इसका साक्षात्कार ‘दिव्य-दृष्टि’ द्वारा ही हो सकता है।


शिवलिंग

शिवलिंग परमात्मा का स्मारक-चिह्न है। लिंग का अर्थ है - प्रतिमा। शिवलिंग अर्थात् कल्याणकारी परमपिता परम-आत्मा की पतिमा। संसार में सब मूर्तियों में अधिक पूजा सम्भवत शिवलिंग की ही होती है। भारत में शिव के 12 अति प्रसिद्ध मठों को “ज्योतिर्लिंगम’’ मठ कहा जाता है। इनमें से हिमालय स्थित  केदारेश्वर, मालवा में विश्वेसर और मध्यपदेश के उज्जैन शहर में महाकालेश्वर अति पसिद्ध है।

शिवलिंग के साथ उसी रूप की परन्तु छोटी आकृति के पत्थर की बहुत-सी प्रतिमायें जिन्हें ‘शालिग्राम’ कहते हैं, उनका पूजन भी होता है। जिस पकार शिवलिंग परमात्मा शिव का चिह्न है, इसी पकार ‘शालिग्राम’ विभिन्न आत्माओं के सूचक हैं।

शिवलिंग के स्वरूप को ठीक पकार से न समझने के कारण कुछ अज्ञानी लोग व अधकचरे समालोचक अर्थ का अनर्थ करके भ्रम फैलाया करते हैं तथा अश्लील कल्पना के सहारे शिवलिंग की पूजा को असम्भ्य कृत्य मानते हुए शिव को अनार्य देवता सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। अस्तु इस विषय पर गंभीरता से मनन करने की आवश्यकता है।

वैसे तो व्याकरण में पुलिंग, स्त्रीलिंग व नपुंसकलिंग आदि शब्दों का भरपूर प्रयोग होता है, किन्तु कतिपय पमाणों द्वारा उसे और स्पष्ट किया जा सकता है कि ‘निष्कमणं पवेशनमित्याकाशस्य लिंगम’ (वैशेषिक दर्शन 2/1/10) अर्थात् जिसमें निकलना, पविष्ट होना आदि कियायें होती हों - यह ‘आकाश का लिंग’ है। यही ‘लिंग’ शब्द का अर्थ है - लक्षण।

‘इच्छाद्वेष प्रयत्न सुख-दुःख ज्ञानान्यात्मनो लिंगम’ (न्याय दर्शन 1/10) अर्थात् इच्छा, वैर, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान - यह आत्म का लिंग है अर्थात् लक्षण है। अत लिंग शब्द के अर्थ संज्ञा, लक्षण, चिह्न, परिभाषा आदि होते हैं।


सोमनाथ ज्योतिर्लिंग

भारत के पश्चिम में सौराष्ट्र (गुजरात) पान्त के समुद्र तट पर यह सोमनाथ पाचीन सभ्यता का तीर्थ स्थान है। इसका पुरातन नाम ‘प्रभास तीर्थ’ है। यह प्रभास पाटन नाम से भी जाना जाता था। अभी यह स्थान ‘सोमनाथ’ नाम से ही जाना जाता है। सोमनाथ मन्दिर के कारण ही इस स्थान का नाम ‘सोमनाथ’ पड़ा है। यह जूनागढ़ िज़ले के वेरावल तहसील में आता है।

इतिहास और इतिहासकारों के अनुसार “यह मन्दिर कब और किसने बनाया, यह आज भी ठीक-ठीक मालूम नहीं। 8वीं सदी के पहले इस पान्त की कैसी अवस्था थी उसका आज तक भी पता नहीं चल सका। 11वीं सदी में महमूद गजनवी के आकमण के पहले तक भी इस पदेश का इतिहास अंधकार से ढका हुआ है। केवल इतना सुनने में आता है कि 8वीं सदी से काठियावाड़ के इस अंचल में ‘चावड़’ नामक एक राजपूत वंश राज्य करते थे। ये लोग ‘चालुक्य’ या ‘सोलंकी’ राजपूतों के अधीन थे’’।

अभी का जो मन्दिर है, वह सोमनाथ मन्दिर ट्रस्ट द्वारा मूल मन्दिर के स्थल पर निर्मित किया गया है। नया सोमनाथ मन्दिर 1962 में पूर्ण निर्मित हो गया। 8 अपैल, 1951 में पथम राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र पसाद जी ने मन्दिर में ज्योतिर्लिंग स्थापित किया। कहते हैं यह सोमनाथ लिंग हीरे का था और वह ज़मीन पर नहीं था, मन्दिर के बीच, बिना सहारे धरती से ऊपर खड़ा था।

यह ज्योतिर्लिंग आकार में कितना बड़ा था, इसका कोई पामाणिक विवरण नहीं है, लेकिन महमूद गजनवी ने 1026 में जो शिवलिंग खण्डित किया, वही आदि शिवलिंग था।

शिव बाबा के अनुसार सोमनाथ मन्दिर द्वापरयुग में राजा विकमादिव्य ने बनवाया था। भारत में, क्या सारे विश्व में, सोमनाथ मन्दिर ही प्रथम शिव-मन्दिर है। यह शिवलिंग हीरे का था। मन्दिर बहुत आलीशान था।

सोमनाथ ज्योतिर्लिंग भारत का ही नहीं अपितु इस पृथ्वी का पहला ज्योतिर्लिंग है। सोमनाथ मन्दिर गुजरात राज्य के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित है। इस मन्दिर के बारे में मान्यता है कि जब चन्द्रमा को प्रजापति दक्ष ने श्राप दिया था कि तुम्हारा शरीर धीरे-धीरे क्षीण हो जायेगा। तब राजा दक्ष के श्राप के बाद चन्द्रमा का शरीर धीरे-धीरे नष्ट होने लगा।

श्राप के कारण दुनिया के सभी जीव-जन्तुओं को बहुत-सी परेशानियों का सामना करना पड़ा। सभी देवतागण चिंतित होने लगे और सभी देवता चन्द्र देवता के साथ मिलकर ब्रह्मा जी के पास गये, उन्होंने ब्रह्मा जी को पूरी बात बताई। ब्रह्मा जी ने चन्द्रदेव को, सभी देवताओं के साथ मिलकर भगवान शिव की आराधना करने को कहा। तब चन्द्र देव ने इसी स्थान पर तप कर, श्राप से मुक्ति पाई थी।

सभी देवताओं के साथ मिलकर 6 महीनों तक महामृत्युंजय मंत्र का जाप किया। मंत्र जाप से पसन्न होकर भगवान शिव वहाँ पर पकट हुए और चन्द्रमा को वर दिया कि माह के 15 दिन तुम्हारा शरीर धीरे-धीरे क्षीण होगा जिसे लोग कृष्ण पक्ष के नाम से जानेंगे और माह के 15 दिन तुम्हारा शरीर थोड़ा-थोड़ा बढ़ते हुए पूरा होगा और इस पक्ष को लोग शुक्ल पक्ष के नाम से जानेंगे।

इस तरह से राजा दक्ष का श्राप भी रह गया और चन्द्रमा को अपने कष्ट से मुक्ति भी मिल गई और इस सबके बाद सभी देवताओं ने मिलकर भगवान शिव से पार्थना की कि आप यहीं पर निवास करें तभी से भगवान शिव सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के नाम से वहीं पर निवास करते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि सोमनाथ शिवलिंग की स्थापना स्वयं चन्द्र देव ने की थी।


श्रीशैल मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग

श्रीशैल मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग आन्ध्रपदेश में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल नाम के पर्वत पर स्थित है। इस मन्दिर का महत्व भगवान शिव के पर्वत कैलाश के समान कहा गया है। महाभारत, शिवपुराण तथा पदमपुराण आदि धर्मगंथों में इसकी महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। कहते हैं कि मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने मात्र से ही व्यक्ति को उसके सभी पापों से मुक्ति मिलती है।

एक पौराणिक कथा के अनुसार - शिव-पार्वती के पुत्र कार्तिकेय और गणेश में पहले किसका विवाह होगा, इस पर कलह होने लगी। शर्त यह रखी गई कि जो भी पहले पृथ्वी की परिकमा करेगा, उसी का विवाह पहले किया जायेगा।

बुद्धि के सागर श्रीगणेश जी ने माता-पिता की परिकमा कर पृथ्वी की परिकमा के बराबर फल पाप्त किया। जब कार्तिकेय परिकमा कर वापस लौटे तब देवर्षि नारद जी ने उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया और कुमार कार्तिकेय ने कोध के कारण हिमालय छोड़ दिया और कौंच पर्वत पर जाकर रहने लगे।

कोमल हृदय से युक्त माता-पिता पुत्र-स्नेह में कौंच पर्वत पहुँच गये। कार्तिकेय को जब अपने माता-पिता के आने की सूचना मिली तो वह वहाँ से तीन योजन दूर चले गये। कार्तिकेय के कौंच पर्वत से चले जाने पर ज्योतिर्लिंग के रूप में शिव-पार्वती पकट हुए।

तभी से भगवान शिव और माता पार्वती मल्लिकार्जुन के नाम से पसिद्ध हुए। मल्लिका अर्थात् पार्वती और अर्जुन अर्थात् शिव। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की पूजा से अश्वमेध यज्ञ के बराबर का फल पाप्त होता है।


महाकाल ज्योतिर्लिंग

भारत के हृदय-स्थल मध्यपदेश में उज्जैन के मालवा क्षेत्र में स्थित एक पाचीन नगर है जोकि क्षिपा नदी के पूर्वी किनारे पर बसा हुआ है। पाचीनकाल में इसे उज्जयिनी कहा जाता था। जैसाकि महाभारत में वर्णित है उज्जयिनि नगर अवनती राज्य की राजधानी था।

उज्जैन सात पवित्र तथा मोक्षदायिनी नगरियों में से एक है, इन मोक्षदायिनी नगरियों के नाम इस पकार हैं - अयोध्या, वाराणसी, मथुरा, हरिद्वार, द्वारका एवं काँचीपुरम। उज्जैन पवित्र कुम्भ मेला 12 वर्षों में एक बार लगता है।

पुण्य सलिला क्षिपा के तट के निकट भगवान शिव महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में विराजमान हैं। देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का अपना एक अलग स्थान है। कहा जाता है कि जो महाकाल का भक्त होता है, उसका काल कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

उज्जैन (म.प.) का यही प्रधान मन्दिर है। महाकालेश्वर लिंग मूर्ति विशाल है और चाँदी की जलहरी में नाग-परिवेष्टित है। यहाँ घृतदीप है एक तेलदीप जलता रहता है। महाकाल मन्दिर का पाँगण विशाल है और सामान्य भूमि की सतह से कुछ नीचे हे। इस पाँगण के मध्य में मन्दिर है। इस मन्दिर में दो खण्ड हैं।

पाँगण की सतह के बराबर मन्दिर का ऊपरी खण्ड है। इसमें जो भगवान की लिंग मूर्ति है, उसे ओंकारेश्वर कहा जाता है। ओंकारेश्वर के ठीक नीचे, नीचे के खण्ड में महाकाल की लिंग मूर्ति है।

मन्दिर के ऊपर पाँगण के दक्षिण भाग में कई मन्दिर हैं, जिनमें अनादिकालेश्वर तथा वृद्धकालेश्वर के मन्दिर विशाल हैं। महाकाल मन्दिर के पास (नीचे) सभा-मण्डप है और उसके नीचे कोटितीर्थ नामक एक सरोवर है। सरोवर के आसपास छोटी-छोटी शिव-छतरियाँ हैं।


ओंकारेश्वर-ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्यपदेश के शहर इन्दौर के समीप स्थित है। जिस स्थान पर यह ज्योतिर्लिंग स्थित है, वहाँ पर नर्मदा नदी बहती है और पहाड़ी के चारों ओर नदी के बहने से यहाँ ॐ शब्द की उत्पत्ति भगवान बह्मा जी के मुख से हुई है। इसलिए किसी भी धार्मिक शास्त्र या वेदों का पाठ ॐ के साथ किया जाता है। ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग ॐकार अर्थात् ॐ का आकार लिये हुए है, इस कारण इसे ओंकारेश्वर नाम से पुकारा जाता है।


केदारनाथ ज्योतिर्लिंग

केदारनाथ ज्योतिर्लिंग भी भगवान शिव के 12 पमुख ज्योतिर्लिंगों में आता है। यह उत्तराखण्ड में हिमालय की केदार नामक चोटी पर स्थित है। बाबा केदारनाथ का मन्दिर बद्रीनाथ धाम के मार्ग पर स्थित है। केदारनाथ समुद्र तल से 3584 मीटर की ऊँचाई पर है।

केदारनाथ का वर्णन स्कन्द पुराण एवं शिव पुराण में भी पाया जाता है। यह तीर्थ भगवान शिव को अति पिय है। जिस पकार का महत्व भगवान शिव ने कैलाश को दिया है, उसी पकार का महत्व शिव जी ने केदार क्षेत्र को भी दिया है।

शिखर के पूर्व की ओर अलकनन्दा के तट पर श्री बद्रीनाथ स्थित हैं और पश्चिम में मन्दाकिनी के किनारे श्री केदारनाथ जी स्थित हैं। यह स्थान हरिद्वार से 150 मील और ऋषिकेश से 132 मील दूर है।

केदारनाथ मन्दिर का निर्माण द्वापरयुग में पाण्डवों ने करवाया था। केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के विषय में यह चर्चा आती है कि भगवान श्रीविष्णु जी के नर और नारायण नामक दो अवतार हुए हैं। उन्होंने पार्थिव शिवलिंग बनाकर श्रद्धा और भक्तिपूर्वक उसमें विराजने के लिए भगवान शिव से पार्थना की एवं शिव ने पसन्न होकर अपनी ज्योति, केदारनाथ ज्योतिर्लिंग को पदान की और यह शिव लिंग ज्योतिर्लिंग बन गया।


नागेश्वर ज्योतिर्लिंग

श्रीनागेश्वर ज्योतिर्लिंग बड़ौदा में गोमी द्वारका से बारह-तेरह मील की दूरी पर स्थित है। धर्म शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव नागों के देवता हैं और नागेश्वर का पूर्ण अर्थ नागों का ईश्वर है। भगवान शिव जी का एक अन्य नाम नागेश्वर है। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन की शास्त्रों में बड़ी महिमा बताई गई है।


वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग

श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का समस्त शिवलिंगों की गणना में नौवाँ स्थान बताया गया है। भगवान श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का मन्दिर जिस स्थान पर स्थित है, उसे वैद्यनाथ धाम कहा जाता है। यह स्थान झारखण्ड राज्य के देवघर िज़ला में पड़ता है।

परम्परा और पौराणिक कथाओं से पता चलता है कि देवघर स्थित श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को ही पमाणिक मान्यता है। हर साल लाखों श्रद्धालु सावन के माह में सुलतानगंज से गंगाजल लाकर यहाँ श्रीवैद्यनाथ को चढ़ाते हैं।


भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग

श्रीभीमाशंकर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पुणे ज़िले में सहयाद्रि नामक पर्वत पर स्थित है। श्रीभीमाशंकर के शिवलिंग को ही शिव का उठा ज्योतिर्लिंग कहते हैं। श्रीभीमाशंकर ज्योतिर्लिंग को मोटेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है।

भीमाशंकर मन्दिर के विषय में मान्यता है कि जो भक्त श्रद्धा से भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग मन्दिर का दर्शन पतिदिन सुबह सूर्य निकलने के बाद करता है, उसके सभी जन्मों के पाप दूर हो जाते हैं और उसके लिए स्वर्ग के मार्ग खुल जाते हैं।


काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग

काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह उत्तर प्रदेश के काशी शहर में स्थित है। गंगा तट स्थित काशी विश्वनाथ शिवलिंग का दर्शन हिन्दुओं के लिए सबसे पवित्र है। सभी धर्म स्थलों में काशी का अत्यधिक महत्व बताया गया है। काशी की मान्यता है कि पलय आने पर भी यह स्थान बना रहेगा।

क्योंकि इसकी रक्षा के लिए भगवान शिव इस स्थान को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेंगे और पलय के आ जाने पर काशी को फिर से उसके स्थान पर पुन रख देंगे। काशी की महिमा ऐसी है कि यहाँ पाण त्याग करने से जीवन से मुक्ति मिल जाती है। भगवान रुद्र मरते हुए पाणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश करते हैं, जिसके कारण वह साँसारिक आवागमन से मुक्त हो जाता है, चाहे वह मृत-पाणी कोई भी क्यों न हो।

काशी विश्वनाथ शिवलिंग सबसे पुराने शिवलिंगों में से एक कहा जाता है। यह किसी मनुष्य की पूजा, तपस्या आदि से पकट नहीं हुआ, बल्कि यहाँ निराकार परब्रह्म परमेश्वर ही शिव बनकर विश्वनाथ के रूप में साक्षात् विराजमान हैं।

यह मन्दिर काशी का पमुख मन्दिर माना जाता है। इसका निर्माण इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई ने सन् 1758 में किया था। (मूल मन्दिर मुसलमान राजाओं के हमले में ध्वस्त हुआ था) इसका शिखर साढ़े बाईस मन सोने से निर्मित है, जिसे पंजाब नरेश महाराजा रणजीत सिंह ने सन् 1839 में चढ़वाया।


त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग

त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग गोदावरी नदी के करीब महाराष्ट्र राज्य के नासिक ज़िले में स्थित है। यह ज्योतिलाग ब्रह्मगिरि नामक पर्वत पर है। इसी पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम होता है। भगवान भोलेनाथ का नाम त्र्यंबकेश्वर भी है। यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को पदान करने वाला है और समस्त कष्ट को हरने वाला है।

त्र्यंबकेश्वर मन्दिर के अन्दर एक गड्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग हैं, जिन्हें भगवान ब्रह्मा, विष्णु और शिव का पतीक माना जाता है। त्र्यंबकेश्वर की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इस ज्योतिर्लिंग में भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर तीनों ही विराजित हैं। काले पत्थरों से बना ये मन्दिर देखने में बहुत ही सुन्दर है।


रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग

यह ज्योतिर्लिंग तमिनाडु राज्य के रामनाथ ज़िले में स्थित है। भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक होने के साथ-साथ यह स्थान हिन्दुओं के चार धामों में भी आता है।

रामेश्वर का मन्दिर पत्थर का बना हुआ है और बड़ा विशाल एवं भव्य है। इसका गोपुर दूर से ही दिखाई पड़ता है। मन्दिर के चारों ओर 22 फुट ऊँची दीवारें हैं, चारों िदशाओं पर चार दरवाज़े हैं, जिन पर गोपुर बने हैं।

किंवदन्ति है कि श्रीराम ने रावण का वध करने के बाद यहाँ शिवलिंग की पतिष्ठा कर पूजा की। इसलिए इस शिवलिंग का नाम रामेश्वर पड़ा। यह कहा जाता है कि रामेश्वर का अर्थ ही है राम के ईश्वर - रामेश्वर अर्थात् रामस्य ईश्वर रामेश्वर। वहाँ के ऋषियों ने राम से कहा कि रावण-वध से उनको ब्रह्म-हत्या का दोष लग गया है और उसके निवारणार्थ राम-लिंग पतिष्ठान करें।

यहाँ चतुरंग मण्डप भी है। बसन्त उत्सव में इसी मण्डप पर मन्दिर की मूर्त्तियों को सजा कर दर्शनार्थ रखा जाता है। मन्दिर के भीतर चारों ओर पत्थरों की सड़के हैं, जिनकी लगभग 4000 फुट लम्बाई और 20 फुट चौड़ाई है। दोनों तऱफ क़रीब 30 फुट ऊँचे खम्बों की पंक्ति है जिनके ऊपर 40 फुट की छत है। मन्दिर के अन्दर 13 फुट ऊँचा, 8 फुट लम्बा और 9 फुट चौड़ा एक नंदी है।


घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग

श्रीघृष्णेश्वर महोदव का पसिद्ध मन्दिर महाराष्ट्र राज्य के औरंगाबाद शहर के समीप दौलताबाद के पास स्थित है। शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में यह अन्तिम ज्योतिर्लिंग है। इनको घृष्णेश्वर या घुश्मेश्वर के नाम से भी जाना जाता है।

घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन लोक-परलोक दोनों के लिए अमोघ फलदाई है। दूर-दूर से लोग महादेव के दर्शन को आते हैं और आत्मिक शान्ति पाप्त करते हैं। बौद्ध भिक्षुओं के द्वारा निर्मित एलोरा की पसिद्ध गुफाएँ इस मन्दिर के समीप ही स्थित हैं। यहीं पर श्री एकनाथ जी गुरु व श्री जनार्दन महाराज जी की समाधि बनी हुई है।

शिव के अन्य गुणवाचक नामों से भारत में प्रसिद्ध मन्दिर


अमरनाथ

अमरनाथ क्षेत्र कश्मीर में पड़ता है। समुद्र स्तर से 16000 फुट की ऊँचाई पर, पर्वत में यह लगभग 60 फुट लम्बी, 25 से 30 फुट चौड़ी, 15 फुट ऊँची पाकृतिक गुफा है और उसमें हिम के पीठ पर हिमनिर्मित अमरनाथ शिवलिंग है। यह शिवलिंग बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।

अमरनाथ हिमलिंग तथा लिंगपीठ, ठोस पक्की बर्प का होता है जबकि गुफा से बाहर मीलों तक सर्वत्र कच्ची बर्प ही मिलती है।

भक्तों की मुख्य यात्रा श्रावणी पूर्णिमा को होती है। आषाढ़ की पूर्णिमा को भी अधिक यात्री जाते हैं। जुलाई के पहले सप्ताह से अगस्त के अन्त तक पाय पतिदिन पहलगाँव से यात्री जाते रहते हैं।

भक्तिमार्ग में यह विश्वास है कि श्ंाकर ने पार्वती को यहाँ पर बैठकर अमरकथा सुनाई, जिससे पार्वती का मूँझा हुआ मन पफुल्लित हुआ। वास्तव में इसका आध्यात्मिक रहस्य यह है कि अमरनाथ शिव बाबा जो निराकार ज्योतिस्वरूप हैं, वो पजापिता ब्रह्मा के मुखारविन्द द्वारा अमर बनने की सत्य अमरकथा सुनाकर सबको दुःख, अशान्ति और दर्द से दूर करते हैं।


वेदव्यासेश्वर

काशी को मन्दिरों की नगरी कहते हैं। “काशी में विश्वनाथ जी को मिलाकर कुल 59 शिवलिंग हैं। विश्वनाथ मन्दिर के वायव्य कोण में लगभग डेढ़ सौ शिवलिंग हैं। इस मण्डली को ‘शिव की कचहरी’ कहते हैं।

काशी के समीप क़रीब चार मील पर रामनगर नामक स्थान है, वहाँ के राजमहल के एक भाग में वेदव्यासेश्वर तथा शुकदेवेश्वर की लिंग मूर्त्तियाँ हैं’’।


मुक्तेश्वर

भुवनेश्वर (उड़ीसा) भी काशी के समान ही शिव मन्दिरों का नगर है। कहा जाता है कि यहाँ कई सहस्त्र मन्दिर थे। अब भी मन्दिरों की संख्या कई सौ है। उनमें से एक है मुक्तेश्वर जी का मन्दिर। भगवान जो सबका मुक्तिदाता है, उसके नाम से यहाँ एक मन्दिर बना है।


श्रीलिंगराज मन्दिर

यह भुवनेश्वर (उड़ीसा) का मुख्य मन्दिर है। श्रीलिंगराज ही का नाम भुवनेश्वर है। यह मन्दिर उच्च पाकार के भीतर है। पाकार के चारों ओर चार द्वार हैं, जिनमें मुख्य द्वार को सिंह द्वार कहा जाता है।

परमपिता परमात्मा शिव ज्योति स्वरूप होने के कारण भक्त, भक्तिमार्ग में पूजा के लिए लिंग बनाते हैं। उन सब लिंगों के राजा शिव बाबा श्रीलिंगराज नाम से गाये जाते हैं।


बबुलनाथ (बाबुलनाथ) शिवालय

मुम्बई का पधान शिव-मन्दिर, बबूलनाथ (बाबुलनाथ) शिवालय, दक्षिण मुम्बई स्थित चौपाटी के नज़दीक मलबार नामक छोटी-सी पहाड़ी पर विराजमान है। इस मन्दिर के नामकरण के बारे में तीन कारण बताते हैं - (1) एक बाबुल नामक ग्वाले ने सर्वपथम इस स्वयंभू शिवलिंग का दर्शन किया और उसने अपने सेठ को भी इस लिंग का दर्शन करवाया।

अत उक्त शिवलिंग लोगों में विख्यात करने वाले बाबुल नामक गो-पालक के नाम से बाबुलनाथ नाम हुआ। (2) इस शिवलिंग के पास एक बबुल का वृक्ष था, यह शिवलिंग उस बबूल वृक्ष की छाया में विराजमान था। अत इस शिवलिंग का नाम बबुलनाथ हुआ। (3) बाबुल शब्द का अर्थ है - बाबा अथवा पिता और भगवान शिव त्रिभुवन के पिता हैं।

अत उनके लिए यह नाम सर्वथा सुसंगत और यथार्थ है। इस अर्थ का पतिपादन वैदिक काल परम्परा में वर्णित है। ऋग्वेद में कहा गया है कि - ‘भुवनस्य पितरं गीर्भिः आभि’।

क़रीब 200 से अधिक साल पहले मलबार पहाड़ी के अग्निकोष में एक विशाल गोचर भूमि थी, जिसका मालिक एक धनिक सुवर्णकार था। इस सुनार की कई गाय-भैंसे आदि वहाँ चरती थीं, जिनकी देखभाल एक बाबुल नामक ग्वाला करता था। वहाँ कृषि की भूमि न होने से ग्वाले को ज़्यादा देखभाल करने की ज़रूरत नहीं होती थी।

अत वह पशुओं को चराते समय दिनभर मस्त होकर बाँसुरी बजाया करता था। सभी पशु भी आनन्द से अपना चारा चरते थे और पुष्ट रहते थे। लेकिन एक दिन अचानक सेठ के ध्यान में आया कि उसकी एक गाय कपिला दूध नहीं दे रही है।

सेठ ने तुरन्त बाबुल को बुलाया और गाय के दूध न देने का कारण पूछा। उत्तर में उसने कहा कि ऐसा तो यह बहुत समय से हो रहा है। गाय कई दिनों से दूध नहीं दे रही है। उसने सेठ को कहा कि गाय प्रतिदिन सायंकाल गोचर के एक निश्चित स्थल पर जाती है और वहीं उसका दूध अपने आप बाहर बह जाता है। दूसरे दिन सेठ स्वयं ग्वाले के साथ गोचर स्थल पर गया।

वहाँ उन्होंने जो दृश्य देखा कि जैसे ही कपिला गाय निश्चित स्थल पर पहुँची तुरन्त ही उसका दूध अपने आप अविच्छन्न धारा में बहने लगा। यह दृश्य देखने से उनकी जिज्ञासा ज़्यादा बढ़ गई। बाद में सेठ ने उसी स्थान पर खुदाई करवायी तो भूमि से काले पत्थर का अतीव मनोहारी शिवलिंग निकला। वही बबूलनाथ शिव की मूर्त्ति है।


दक्षेश्वर मन्दिर

“स्कन्द पुराण के अनुसार पजापिता ब्रह्मा के पुत्र दक्ष प्रजापति ने शिव को अपमानित करने के लिए अपनी राजधानी कनखल (हरिद्वार) में एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों आदि को बुलाया लेकिन शिव को निमंत्रण नहीं भेजा। कहा जाता है कि शिव के बिना कोई भी यज्ञ सम्पन्न नहीं होता। यज्ञ में सबके सामने दक्ष ने अपमानजनक शब्दों से शिव की ग्लानि की, शिव के पुत्र वीरभद्र ने कोधित होकर दक्ष का सिर काटकर अग्निकुण्ड में भस्म कर दिया। 

यज्ञ का विध्वंस देखकर सभी देवताओं ने शिव से पार्थना की कि यज्ञ सम्पन्न करें। यज्ञ सम्पन्नता यज्ञ-यजमान (दक्ष) के बिना नहीं हो सकती थी, इसलिए शिव ने दक्ष को पुनर्जीवित किया और यज्ञ पूर्ण किया’’। कहते हैं बाद में वहाँ ज्योति स्वरूप शिव परमात्मा लिंग रूप में परिवर्तित हो गये।

उस शिवलिंग को ‘दक्षेश्वर’ नाम पड़ा। जिसने दक्ष की दुष्टता को संहार कर, उसका उद्धार किया, उस शिव का नाम दक्षेश्वर पड़ा।


श्रीकोटिलिंगेश्वर मन्दिर

कोलार ज़िले (कर्नाटक) के बेतमंगल-के.जी.एफ. सड़क पर कम्मसन्द्र नामक स्थान पर श्रीकोटिलिंगेश्वर मन्दिर स्थित है। कहते हैं यहाँ एक करोड़ लिंग हैं। इनमें एक बहुत बड़ा है, ब़ाकी छोटे हैं। यह तो आप सबको ज्ञात होगा कि जो बड़ा है, वह परमपिता परम पूज्य शिव परमात्मा की पतिमा शिवलिंग है, जो शेष 99,99,999 (99 लाख, 99 हज़ार, 9 सौ और 99) लिंग हैं वे आत्माओं के यादगार सालिग्राम हैं।

आप जानते होंगे कि इस मन्दिर वालों ने प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के लिए एक बड़ा हॉल दिया है, जिसमें शिव-दर्शन आध्यात्मिक संग्रहालय बनाया गया है।


पशुपतिनाथ के पाँच मुख

पशुपतिनाथ लिंग में चार दिशाओं में चार मुख और ऊपरी भाग में पाँचवाँ मुख है। ऊपर के मुख के अलावा चार मुख साकार रूप के हैं। प्रत्येक मुखाकृति के दायें हाथ में रुद्राक्ष की माला और बायें हाथ में कमण्डल है।

(1) पशुपतिनाथ लिंग के दक्षिण दिशा में मुख को अघारे मुख कहते हैं। यह शिव का संहारकारी रूप है। यह मुख कोध-मुद्रा जैसा भयंकर प्रतीत होता है। यह मुख सिर्प विनाशकारी न होकर दुष्टता का विनाश करने वाले रक्षक का पतीक है।

(2) पूर्व मुख को तत्पुरुष कहते हैं। सिर में जटा, गले में रुद्राक्ष की माला युक्त यह मुख शान्त और सौम्य दिखाई देता है। यह मुख शिव का ज्ञान और विवेकपूर्ण, लोक-कल्याणकारी रूप है।

(3) उत्तर मुख का अर्धनारीश्वर रूप है। इस मुख में बायें तऱफ आधा रूप शक्ति का तथा दायें तऱफ आधा शंकर का है।

(4) पश्चिम मुख सुद्योजात है, यह मुख सौम्य और शान्त दिखाई देता है। यह भगवान का भोलापन और कल्याणकारी रूप है।

(5) लिंग के ऊपरी भाग को इशान मुख कहते हैं। यह निराकार मुख है। कहते हैं भगवान शिव का श्रेष्ठतम रूप है, लोक-कल्याणकारी, वरदानी रूप है।


शिवलिंग का विकास

‘शिवलिंग’ शब्द ‘शिव’ और ‘लिंग’ दो शब्दों से बना है। शिव तो सदा कल्याणकारी, शुभकारी, मंगलकारी परमात्मा का दिव्य नाम है। लिंग का अर्थ है चिह्न। शिवलिंग अर्थात् शिव का चिह्न, शिव का स्मारक, शिव का यादगार अर्थात् शिव की पतिमा।

परमात्मा शिव अव्यक्त हैं, अशरीरी हैं। उनको इन स्थूल नेत्रों द्वारा कोई भी देख नहीं सकते। दिव्य-नेत्र या दिव्य-दृष्टि से ही देख सकते हैं। इसलिए पूर्वजों ने शिव की स्मृति के लिए उसके सूक्ष्म रूप का एक स्थूल रूप (चिह्न) बनाया।

उसको शिवलिंग कहा जाता है। शिव परमात्मा ज्योति स्वरूप, ज्योति बिन्दु होने के कारण ज्योति की लौ के समान गोलाकार शिलामूर्ति बनाकर, उसको देख-देख, उस ज्योति स्वरूप परमात्मा का ध्यान करने लगे। भक्ति के आरम्भ में ये शिवलिंग मन्दिरों में भूमि-स्तर पर स्थापित हुआ करते थे। उदाहरण के तौर पर द्वादश ज्योतिर्लिंग, जिनको सबसे पुरातन लिंग माना जाता है, वे सब पीठ रहित शिवलिंग हैं।

जो भी भक्त पूजा, अर्चना, अभिषेक आदि करता है, वह शिवलिंग को ही करता है। समयान्तर में भक्तों ने अपनी पूजा-सुविधा के अनुसार पीठयुक्त शिवलिंगों को पतिष्ठापित किया। आप देखते हैं कि आजकल के शिवलिंगों को बड़े-बड़े पीठों (आसानों) पर स्थापित किया गया है। शिवलिंग के पीठों के परिमाण में परिवर्तन हुआ है, लेकिन शिवलिंग का रूप तो वही है - गोलाकार ज्योति स्वरूप।

शिव ही सर्व आत्माओं के परमपिता होने के कारण विश्वभर में शिव मन्दिर हैं और शिवाराधना होती आई है और होती रही है। भारत परमात्मा शिव की अवतरण-भूमि होने के कारण, शिव परमात्मा भारतवासियों का इष्ट है। इसके कारण द्वापर से लेकर आज तक, भारत में शिव की अर्चना-पार्थना चलती आयी है और चलती रही है।

भारत के हर शहर, हर गाँव, हर घर में शिव की पतिमूर्ति शिवलिंग देखने में आते हैं। मन्दिर और घर के एक कमरे में या घरों की दीवारों में स्थापित किये शिवलिंग को ‘स्थावर लिंगं’ कहते हैं। कुछ लोग, जो शिव के अनन्य भक्त होते हैं, वो अपनी इच्छा अनुसार जहाँ चाहे, जब चाहे वहाँ पूजा करने के उद्देश्य से, शिवलिंग का छोटा रूप बनाकर गले में अथवा शरीर पर धारण करने लगे। इस शिवलिंग को ‘इष्टलिंग’ कहते हैं।

इस प्रकार भक्ति के आदि से लेकर आज तक शिवलिंग का विकास इस प्रकार हुआ है। शिवलिंग के विकास से हमें यह मालूम होता है कि शिवलिंग निराकार, ज्योति स्वरूप परमात्मा शिव का स्मरण-चिह्न है। शिवलिंग में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, परन्तु उनके पीठों अथवा आसनों अथवा जल-हारिनियों में परिवर्तन हुआ है। भक्त जो पूजा-अर्चना करते हैं वे पीठ के ऊपर स्थित लिंग की ही करते हैं, न कि उस पीठ (जल-हारिनी) की।


त्रिमूर्ति शिव

परमात्मा शिव को ‘त्रिमूर्ति’ भी कहा जाता है। शिवलिंग पर जो त्रिपुण्ड लगाते हैं तथा जो तीन पत्तियों वाले बेल-पत्र चढ़ाते हैं वह शिव के त्रिमूर्ति होने का द्योतक है।

त्रिमूर्ति शब्द इस सत्यता का सूचक है कि परमात्मा शिव त्रिदेव (ब्रह्मा-विष्णु-शंकर के भी रचयिता), त्रिनेत्री (दिव्य-बुद्धि रूपी ज्ञान का तीसरा नेत्र देने वाले), त्रिकालदर्शी (सृष्टि नाटक के आदिढिाध्य-अन्त, तीनों कालों के ज्ञाता) एवं त्रिलोकीनाथ अर्थात् साकार, आकार, निराकार तीनों लोकों के मालिक अथवा त्रिभुवनेश्वर हैं।


त्रिदेव की रचना

परमात्मा शिव की पथम रचना ब्रह्मा, विष्णु और शंकर तीन सूक्ष्म आकारी देवता हैं जिनको दिव्य-दृष्टि के द्वारा ही देखा जा सकता है। भक्तजन इन तीनों को ‘देवताय नम’ अथवा ‘देव-देव-महादेव’ कहकर वन्दना करते हैं। ब्रह्मा को आदिदेव और शंकर को महादेव भी कहा जाता है।

इनकी भेंट में शिव की वन्दना ‘शिव परमात्माय नम’ अथवा ‘ओम् नम शिवाय’ कहकर ही करते हैं। शिव को ‘देवों का भी देव’ कहा गया है। रामेश्वर में श्रीराम और गोपेश्वर में श्रीकृष्ण को भी शिव की पूजा करते हुए दिखाते हैं।


विदेशों में शिव मन्दिर

इरान : इरान के दक्षिणी भाग में अब्बास नामक पसिद्ध नगर है। यहाँ नगर के मध्य में एक विशाल मन्दिर है। मन्दिर के साथ ही एक गुरुद्वार है। मन्दिर और गुरुद्वार की भूमि का विस्तार लगभग 6 बीघा है। मन्दिर में शिवलिंग स्थापित है। इस भाग को ‘हिन्दू बाग’ कहा जाता है।

अनाम : दक्षिण अनाम में चम्पा नामक एक जगह है। यहाँ ‘भी-सोन’ नामक एक शिव-मन्दिर है। यह मन्दिर वास्तुशिल्प का उत्तम उदाहरण है। यहाँ के मन्दिर में जो शिवलिंग है, उसे भद्रेश्वर कहा जाता है। अब यह लिंग बुवन पर्वत पर स्थापित है। इसके अतिरिक्त वहाँ ‘मुखलिंग’ मन्दिर अत्यन्त पसिद्ध है। कहा जाता है कि उन दोनों शिवलिंग की स्थापना द्वापरयुग में हुई थी।

कम्बोडिया : इस देश में ‘अंगारे झील’ पर ‘बेयन’ नाम का एक मन्दिर है। इस मन्दिर में शिवलिंग स्थापित है। यह मन्दिर खण्डहर के रूप में है; किन्तु इसमें अब भी बहुत-सी ऐसी बातें हैं जो उसके पूर्व वैभव को सूचित करती हैं।

जावा (यवद्वीप) : मध्य यवद्वीप में पाम्बनान का मन्दिर है। यह मन्दिर एक चार-दीवारी से घिरा हुआ है। पाकार के भीतर ब्रह्मा, विष्णु और महेश के तीन मन्दिर है। शिव-मन्दिर मध्य में और सबसे ऊँचा है। चार दीवारों के चारों ओर छोटे-छोटे सैंकड़ों शिव-मन्दिर हैं। इस द्वीप में अन्यत्र कई स्थानों पर शिव-मन्दिर पाये जाते हैं।

मॉरिशियस : यहाँ एक तीर्थ है जिसका नाम ‘पारि-तालाब’ कहते हैं। उस सरोवर के किनारे भगवान शिव का मन्दिर है। शिवरात्रि के दिन शिव के पतिमा के दर्शनार्थ यहाँ लाखों यात्री आ जाते हैं।

इजिप्त (मिश्र) : यहाँ के ‘मेफिस’ तथा ‘अशीरस’ नामक स्थानों में शिव की मूर्तियाँ हैं। स्थानीय लोग उनको दूध से स्नान कराते हैं और उन पर बिल्व-पत्र चढ़ाते हैं।

तुर्पस्तान : यहाँ के ‘बाबिलन’ नगर में 1200 फुट का एक महालिंग है। विश्व में यह सबसे बड़ा शिवलिंग है। इसी पकार ‘हेड्रापोलिस’ नगर में भी एक विशाल मन्दिर है जिसमें 300 फुट ऊँचा शिवलिंग है।



मक्का : मुसलमानों के तीर्थ स्थान मक्का में ‘मक्केश्वर’ लिंग है, जिसे काबा कहते हैं। वहाँ के ‘जम-जम’ नामक कुएँ में भी एक शिवलिंग है, जिसकी पूजा खजूर के पत्तों से होती है।

अमेरिका : यहाँ के ‘ब्राजील’ प्रदेशों में बहुत-से शिवलिंग मिलते हैं।

इटली : यहाँ अनेक ईसाई पादरी शिवलिंग पूजते हैं।

स्कॉटलेण्ड : यहाँ के ग्लासगो में एक सुवर्णाच्छादित शिवलिंग है, जिसकी पूजा वहाँ बड़ी भक्ति से लोग करते हैं।

फीजी : ‘फीजियन’ के ‘एटिस’ अथवा ‘निनिवा’ नगर में ‘एषीर’ नामक शिवलिंग है। ‘पंचेश्वर’ और ‘पंचवीर’ नाम से अफरीदिस्तान, चित्राल काबूल, बलख-बुखारा आदि में शिवलिंग ही पूजित होता है।

विश्व की पमुख सभ्यताओं पर शिव की छाप

“केवल भारत ही नहीं भारत के अतिरिक्त बेबीलोन, मिस्त्र, रोम, यूनान और चीन, जिनकी सभ्यतायें विश्व की पाचीन सभ्यताओं में गिनी जाती हैं, में भी किसी समय शिव ही की, किसी-न-किसी नाम से मान्यता थी। बेबीलोन में ‘शिउन’ कहा जाता था।

मिस्त्र में ‘सेवा’ नाम से पूजा होती थी। िफजी में ‘सेवा’ या ‘सेवाजिया’ नाम से पूजते हैं। स्पष्ट है कि ये सभी नाम और ‘सेवाजिया’ नाम शिव से अर्थात् ‘शिव जी’ से बने हैं। मिस्त्र में शिवलिंग की पूजा ‘आईसिस’ और ‘ओसिरिस’ के नाम से होती थी।

‘ओसिरिस’ शब्द ‘ईश’ शब्द से बना है। वे भी शिवलिंग की पतिमा के साथ बैल की मूर्ति रखा करते थे। रोम में शिवलिंग को ‘पियपस’ कहते थे। यूनान में शिवलिंग का नाम ‘फल्लुस’ पचलित रहा है। ‘फल्लुस’ शब्द का संस्कृत के ‘फलेश’ शब्द से बना है।

परमात्मा का कर्त्तव्य

विश्व पिता परमात्मा शिव का दिव्य एवं कल्याणकारी कर्त्तव्य भी समस्त विश्व के लिए होता है। यह कहना यथार्थ नहीं कि संसार में सब कर्म परमात्मा की शक्ति से ही होते हैं और बिना उसके हुक्म के एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। परमात्मा को सदा सुखकर्त्ता, दुःखहर्त्ता कहा जाता है, परमात्मा कदापि हिंसा, हत्याएँ आदि बुरे कर्म नहीं करा सकता जिससे किसी को दुःख पाप्त हो। परमात्मा बिगड़ी को बनाने वाला अथवा पतित-पावन है। इस उद्देश्य को सम्पन्न करने के लिए परमात्मा तीन अलौकिक कार्य करता है -

1. ज्ञान द्वारा सत्यता, पवित्रता और शान्ति की स्थापना।

2. असत्यता, अपवित्रता और अशान्ति का विनाश।

3. धर्म-परायण, पवित्र आत्माओं का पालन और उनकी वृद्धि।

करनकरावनहार परमात्मा शिव यह तीन कार्य ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के द्वारा कराते हैं। पजापिता ब्रह्मा द्वारा पावन एवं सुखी सतयुगी सृष्टि की पुन स्थापना, विष्णु द्वारा सतयुगी एवं त्रेतायुगी सृष्टि का पालन और शंकर द्वारा पतित एवं दुःखी कलियुगी सृष्टि का संहार कराते हैं। केवल परमात्मा शिव ही पतित-पावन हैं।

श्रीकृष्ण, श्रीराम इत्यादि पावन हैं किन्तु पतित-पावन नहीं क्योंकि उनके काल (सतयुग-त्रेतायुग) में तो कोई पतित होते ही नहीं जिसे पावन बनने की ज़रूरत हो। सतयुग-त्रेतायुग के देवी-देवता ही पतित-पावन शिव रचयिता की पावन रचना हैं।


तीन लोक

पाँच तत्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) की यह सृष्टि जिसे कर्म-क्षेत्र भी कहते हैं, साकार लोक है। इस लोक में आत्मायें शरीर धारण करके कर्म करती हैं। इसी लोक में ही जन्म-मरण है। यह आवाज़ की दुनिया है। यहाँ संकल्प, वचन तथा कर्म तीनों ही हैं। स्थापना, विनाश और पालना आदि परम-आत्मा के दिव्य-कर्म इसी लोक से सम्बन्धित हैं।

इस साकार लोक के सूर्य-चाँद से पार एक सूक्ष्म (अव्यक्त) लोक है जहाँ सूक्ष्म आकारी देवताओं - ब्रह्मा, विष्णु और शंकर का निवास है। इन देवताओं के आकारी शरीर सूक्ष्म पकाश तत्व के हैं। इन देवताओं अथवा सूक्ष्म लोक को दिव्य-चक्षु के द्वारा ही देख सकते हैं।

आकारी देवताओं के सूक्ष्म लोक से भी परे एक असीमित रूप से फैला हुआ सुनहरे लाल रंग का अति सूक्ष्म पकाश है जिसको अखण्ड ज्योति मह-तत्व अथवा ब्रह्म-तत्व भी कहते हैं। इसका भी साक्षात्कार दिव्य-चक्षु द्वारा ही हो सकता है।

इस ब्रह्म-तत्व के अंश-मात्र में ज्योति-बिन्दु रूप परमात्मा शिव तथा अन्य आत्मायें निवास करती हैं। इस स्थान को ब्रह्मलोक, परलोक, मोक्षधाम, शान्तिधाम, निर्वाणधाम, मुक्तिधाम अथवा शिवपुरी भी कहा जाता है। यहाँ आत्मायें अपनी अकर्त्ता, अभोक्ता और निर्लिप्त अवस्था में होती हैं। सृष्टि लीला में अपने-अपने पार्ट के अनुसार वहीं से आत्मायें साकार लोक में आकर शरीर रूपी वस्त्र धारण करके उपस्थित होती हैं।


‘शिवरात्रि’ का रहस्य

परमात्मा शिव कलियुग के अन्त में, जबकि संसार में घोर अंधकार होता है, प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित होकर ईश्वरीय ज्ञान और योग की शिक्षा देते हैं और उस द्वारा सम्पूर्ण पवित्रता, सुख और शान्ति का ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार देते हैं। आध्यात्मिक अर्थ में रात्रि आत्माओं के अज्ञान-अंधकार, विकारों अथवा आसुरी लक्षणों की चरम सीमा की द्योतक है।

अब वही समय चल रहा है। अब ही हमें आत्मा का जागरण और उपवास (उप - निकट, वास - रहना अर्थात् परमात्मा शिव की स्मृति में रहना) करना चाहिए, ब्रह्मचर्य का व्रत लेना चाहिए, विकारों रूपी कड़वे ‘अक’ शिव पर चढ़ा देना चाहिए और शिव के पति ज्ञान का बिन्दु-बिन्दु निरन्तर पवाहित करते रहना चाहिए।

शिवरात्रि मनाने की इसी सच्ची रीति को अपना कर हमें अब वरदानी शिव पिता से इसी जन्म में मुक्ति और जीवनमुक्ति का सर्वश्रेष्ठ वरदान ले लेना चाहिए। परमपिता परमात्मा शिव आपको बहुत ही स्नेह से निमंत्रण दे रहे हैं कि उससे यह ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार ले लें।

याद रहे - अभी नहीं तो कभी नहीं। क्योंकि श्वांस पर कोई भरोसा नहीं।


संगमनाथ मन्दिर

यह मन्दिर दक्षिण भारत के कर्नाटक के उत्तर भाग में ज़िला बागलकोट से 45 कि.मी. और तहसील हुनगुन्द से 12 कि.मी. दूर ‘कूडल संगम’ नामक स्थान पर स्थित है। यह स्थान कृष्णा एवं मलपभा नfिदयों का महाँ संगम होता है, वहाँ है। इस मन्दिर का इतिहास बहुत पुराना है परन्तु 800 वर्षों से अर्थात् 12वीं शताब्दी से इसका नाम पसिद्ध है।

इसका जो शिवलिंग है, वो संगमेश्वर अथवा संगमनाथ के नाम से जाना जाता है। ज्ञान सागर शिव बाबा संगमयुग में आकर सर्व आत्माओं को ज्ञान गंगा देकर पावन बनाते हैं और मुक्ति-जीवनमुक्ति देते हैं। उस महान कार्य के स्मारकार्थ इस मन्दिर को भक्तों ने दो नfिदयों का जहाँ संगम होता है, वहाँ निर्मित किया है। वहाँ पतिष्ठापित शिव बाबा की मूर्ति ‘संगमेश्वर’ नाम से पसिद्ध है।

हरेक शिवलिंग के सामने एक नंदी होता है, जो शिव के साकार तन ब्रह्मा बाबा का यादगार है परन्तु इस मन्दिर की विशेषता यह है कि इस शिवलिंग के सामने दो नंदी हैं जो शिव बाबा के दो साकार और अव्यक्त पार्ट के यादगार हैं।

इस मन्दिर में ही वीरशैव धर्म के कान्तिकारी सुधारक बसवेश्वर का विद्यार्थी जीवन बीता है। उन्होंने यहीं शिवलिंग दीक्षा पाप्त कर, वेद-शास्त्र-उपनिषदों का अध्ययन पूरा किया। बाद में वे कल्याण के राजा बिज्जल के महामंत्री रहे। उन्होंने उस पद पर रहकर एकदेवोपासना, अस्पृश्यता निवारण, कर्मयोग की महत्ता आदि का पचार किया।

उन्होंने ‘कूडल संगमदेव’ नामक काव्यनाम से अनेक कवितायें, नीतिवचन तथा ‘वचनों’ की रचना कर सामाजिक, धार्मिक एवं कन्नड साहित्य क्षेत्र में बहुत सेवा तथा सुधार किया। अन्त में उन्होंने इसी स्थान पर आकर देह-त्याग किया।



स्व-स्वरूप में स्थित होने की विधि

प्पहले स्वयं को देह से न्यारा कर एक ज्योतिर्बिन्दु आत्मा निश्चय कीजिए। फिर मन और बुद्धि को देह की दुनिया से न्यारा कर आत्माओं की दुनिया में ले जाइये और वहाँ स्वयं को अपने असली स्वरूप में स्थित कीजिए। निम्नलिखित मनन-चिन्तन के आधार से आत्म-स्थिति बनाइये।

मैं एक आत्मा हूँ.....इस शरीर को चलाने वाली, आँखों द्वारा देखने वाली, मुख द्वारा बोलने वाली, कानों द्वारा सुनने वाली मैं एक चैतन्य शक्ति हूँ.....मैं आत्मा अति-सूक्ष्म ज्योतिर्बिन्दु हूँ.....चमकता हुआ दिव्य सितारा हूँ.....। मैं अविढ़नाशी हूँ....सत्य हूँ.....आनन्दस्वरूप हूँ.....।

यह शरीर मेरा रथ है.....इस पर सवार मैं आत्मा रथी हूँ......यह शरीर मेरा वस्त्र है.....इसको धारण कर मैं आत्मा एक्टर समान इस सृष्टि पर पार्ट बजा रही हूँ...। मैं आत्मा भृकुटी में विराजमान होकर शरीर की कर्मइन्द्रियों द्वारा कर्म करती हूँ और कर्मइन्द्रियों द्वारा ही सुख या दुःख का अनुभव करती हूँ.....।

मैं आत्मा वास्तव में इस आवाज़ की दुनिया से दूर.....सूर्य, चाँद, तारागण से पार....तत्वों की दुनिया से भी पार....अखण्ड ज्योति ब्रह्म महतत्व, शान्तिधाम, परमधाम की निवासी हूँ....वहाँ से इस सृष्टि मंच पर आकर मैंने जन्म-जन्मान्तर यहाँ अनेक नाम रूप वाले शरीर लेकर पार्ट बजाया....। अब मुझे वापिस उस ज्योति के देश में लौटना है....।

मैं आत्मा अब बुद्धिबल के द्वारा अपने घर जा रही हूँ...। अहा! 5 तत्वों से पार इस घर में सर्वत्र शान्ति है...पवित्रता है....प्रकाश है....निस्संढ़कढ़ल्पता है...असीम शान्ति है....। ओहो! ये कैसी न्यारी और प्यारी अवस्था है....यहाँ मैं आत्मा निज स्वरूप में स्थित हूँ......शान्तिस्वरूप हूँ....शक्तिस्वढ़रूप हूँ...। अब मैं आत्मा अपनी निजी शान्त स्थिति का अनुभव कर रही हूँ....।

योग अभ्यास के समय मनन (रूह-रूहान)

परमप्यारे शिवबाबा, आप कितने महान् हैं...ऊंचे से ऊंचे हैं.....आप ज्योति स्वरूप हैं.....सर्वगुणों के सागर हैं.....सर्वशक्तिवान् हैं.....शिवबाबा, आप मेरे सच्चे माता-पिता हैं......मैं आत्मा आपकी सन्तान भी ज्योतिर्बिन्दु रूप हूँ.....बाबा, आपने मुझे अपना बच्चा बनाढ़कर, परम प्यार देकर, मेरी जन्म-जन्मान्तर की थकान दूर कर दी है....अतीन्द्रिय सुख एवं आनन्द का प्रकाश और शक्ति उतर-उतरकर चारों ओर फैल रही है....।

शिव बाबा, आप मेरे परम शिक्षक भी हैं.....बाबा, आपने मुझे ज्ञान का तीसरा नेत्र देकर त्रिनेत्री बना दिया है.....तीनों लोकों का ज्ञान देकर त्रिकालदर्शी त्रिलोकीनाथ बना दिया है....आपने ही मुझे ज्ञान दिया कि सतयुग के आरम्भ में इस भारत भूमि पर श्रीनारायण का राज्य था....सुख, शान्ति, समृद्धि सब कुछ प्राप्त था....यही सच्चा स्वर्ग कहलाता था.....अब आप पुनः स्वर्ग की स्थापना कर मुझे उसका मालिक बना रहे हैं.....आपने यह भी ज्ञान दिया कि अब सच्चा-सच्चा पुरुषोत्तम संगमयुग चल रहा है जिसमें आप मुझे पुरुषोत्तम देवता बनने के लिए ब्रह्मा बाबा द्वारा ज्ञान और योग की शिक्षा दे रहे हैं.....।

बाबा, आप मेरे सच्चे सतगुरु भी हैं....आपने ही मुझे मुक्ति-जीवनमुक्ति का रास्ता दिखाया है...आप मुझे सच्चा मार्ग-दर्शन करा रहे हैं....ओ जीवन के सहारे बाबा, आपने तो मुझे जीवन दान दे दिया है...। बाबा, आपके कर्तव्यों की मैं कैसे सराहना करूँ....आप ही मेरे मन के सच्चे मीत हैं....बन्धु और सखा हैं...स्वामी हैं....परम हितैषी हैं....कल्याणकारी हैं.....पतित पावन भी हैं.....।

आपकी याद से मैं आत्मा पावन बनती जा रही हूँ....मेरा जीवन धन्य-धन्य हो गया है....जो पाना था वह मैंने आपसे सब कुछ पा लिया....आपसे सर्व सम्बन्धों का प्यार मिल रहा है.....यह कितना सुन्दर अनुभव है......कितना हल्कापन है......।

शिव बाबा, आपने मुझे परमात्म-अभिमानी बना दिया है....अब मैं केवल आपको ही याद करूँगी....। कितने काल से मैं आप से अलग हो गई थी.....अब तो मैं आपका हाथ और साथ कभी नहीं छोड़ूंगी, मैं आपकी सदा आज्ञाकारी, वफादार बनकर रहूँगी....।

आपके साथ की यह घड़ियाँ कितनी अमूल्य हैं....कितनी आनन्दमय हैं.... सारे कल्प में केवल एक ही बार ऐसा सुनहरा अवसर मिलता है....। आपने मुझे जो सच्चे ज्ञान रत्न दिये हैं, उनको सारी दुनिया मे बाटकर आपका नाम बाला करूँगी....।

संक्षिप्त परिचय

1. स्थापना : निराकार परमपिता शिव ने अपने साकार माध्यम आदिदेव प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा इस विश्व विद्यालय की स्थापना सन् 1936 में की।

2. उद्देश्य : सर्व के सहयोग से सम्पूर्ण पवित्रता, सुख एवं अखण्ड शान्तिमय विश्व की रचना। जीवन में दिव्यगुणों की सर्वोच्च धारणाओं द्वारा नर से श्रीनारायण व नारी से श्रीलक्ष्मी समान पद पाप्त करना।

3. सेवाकेन्द्र : यह विश्व विद्यालय भारत सहित 140 देशों में 9,000 से अधिक सेवाकेन्द्र द्वारा समाज के सभी वर्गों और व्यवसायों तथा क्षेत्रों में निशुल्क सेवारत है।

विश्व में एक अनुपम, अद्वितीय विश्व विद्यालय

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय एक अन्तर्राष्ट्रीय सामाजिक, आध्यात्मिक शिक्षा संस्थान है जिसके पाँचों महाद्वीपों में लगभग 140 देशों में 9000 से अधिक शिक्षा केन्द्र है। इस संस्था का अन्तर्राष्ट्रीय मुख्यालय, आबू पर्वत पर है। यह संस्था किसी जाति, धर्म, रंग, आयु, सामाजिक, आर्थिक व राजकीय भेदभाव रहित, स्वैच्छिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, शैक्षणिक विद्यालय के रूप में कार्य कर रही है।

 अधिक स्पष्टीकरण के लिए अपने शहर में स्थित

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।

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