धन कमाओ परन्तु कैसे?

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संसार में सुख-सुविधा के लिये धन आवश्यक है। अत धन कमाओ। परन्तु ऐसे तरीके से या ऐसा धन न कमाओ कि जिससे मन को चिन्ता ही लगी रहे। ऐसे धन से क्या सुख जिससे हृदय रोग हो जाए या रक्तचाप बढ़ा रहे? याद रखो कि धन जीवन के लिये है, जीवन धन के लिए नहीं है। जिस धन से नींद आना भी कठिन हो जाए, उस धन को कमाने से क्या सुख? अत जीवन में संयम-नियम और विधि-विधान तथा आचार-व्यवहार की उत्तम मर्यादा को सामने रख कर धन कमाओ।

ऐसे तरीके से भी धन न कमाओ कि भय लगा रहे। भय का जीना भी कोई जीना है? भय सरकार से हो, चोर से हो या यम का हो, है तो वह भय ही। भय तो तन और मन दोनों के लिए हानिकर है। यह बात आत्म-पीड़ा का कारण है। धन तो खुशी देने वाला होना चाहिए, सुख का साधन होना चाहिए, आराम को देने वाला होना चाहिए परन्तु भय तो काँटों की शय्या की तरह, नहीं-नहीं पाण पर पहाड़ की तरह है।

अत धन कमाओ परन्तु ऐसे तरीके से कि भय उसके साथ में न आये। यदि धन आए और साथ में भय लाए तो समझ लो कि कहीं कुछ गलती है, कहीं कोई नियम भंग हो रहा है। अत उसे ठीक ही कर डालो। यदि उसके बाद भी भय है तो पभु की शरण में आओ। इससे भय भाग जायेगा।

व्यापार और उद्योग से अर्थ लाभ तो होना ही चाहिए। कोई भी व्यवसाय कमाई के लिए ही तो किया जाता है। अत लोभ पर आपका अधिकार है। व्यापार और उद्योम में तन तथा मन लगाने के अतिरिक्त पैसा भी लगाया जाता है, जोखिम भी लिया जाता है, पहल भी की जाती है और व्यवस्था तथा सूझ को भी उसमें जुटाया जाता है। अत इसमें लाभ की चेष्टा स्वाभाविक है।

परन्तु याद रखो कि धन या लाभ तीन तरह का होता है। यदि ऐसा धंधा हो कि दूसरों का भी भला हो, उन्हें भी घाटा न हो और आपको भी लाभ हो तो यह धन दूध के समान है। जैसे पैसे को दूध से धोकर लक्ष्मी की पूजा में रखते हो, यह वैसा ही पवित्र धन है क्योंकि आपके मन में दूसरों के प्रति भी शुभभावना और शुभकामना है।

यदि व्यापार एवं उद्योग की रीति-नीति ऐसी है कि अधिक तो वह विधिवत और ठीक है परन्तु उसमें थोड़ा लेन-देन न चाहते हुए भी व्यवहार की उत्तमता से नीचे के स्तर का है तो वह धन पानी मिश्रित दूध की तरह है। उससे सुख भी उतने ही अनुपात में पाप्त होगा।

यदि किसी का धंधा या उसे करने का तरीका ऐसा है कि दूसरा व्यक्ति यह महसूस करता है कि यह सौदा ठीक नहीं हुआ और कि वह मज़बूरी से या दुःखी होकर वह सौदा कर आया है तो वह कमाई तामसिक है।

यदि सौदा करने वाला बाद में पछताता है, उसके मन में लेश मात्र भी दुःख पैदा होता है तो वह धन सुखोत्पादक नहीं है। अत यदि दुःख से बचना चाहते हो और सुखोत्पादक धन का उपार्जन करना चाहते हो तो पथमोक्त सिद्धाँत को सामने रखो।

मनुष्य को बहुत लाभ होता है तो खुशी की बात है। परन्तु अधिक लाभ अथवा अधिक धन के साथ अभिमान तो नहीं आ जाना चाहिए। व्यापार या उद्योग धन लाभ के लिए किया जाता है, अभिमान की उत्पत्ति के लिए नहीं। अभिमानी मनुष्य तो दूसरों में मान की भीख माँगता है। अभिमानी व्यक्ति स्वयं अपनी शान समझता है परन्तु अन्य लोगों के मन में तो उसका मान नहीं होता।

अत धन कमाओ परन्तु साथ में अभिमान मत आने दो। धन एक शक्ति है। शक्ति गर्व के लिए नहीं, उत्पादन के लिए अथवा सेवा के लिए होती है। अत धन को सुख और सेवा में लगाओ। याद रखो, संसार में एक-से-एक बढ़कर धनवान व्यक्ति हैं और धन सदा किसी के पास एक-सा रहता भी नहीं। अत धन का गर्व मिथ्या गर्व है।

व्यापार और उद्योग कभी मंदा भी हो सकता है, उसमें कभी हानि की भी परिस्थिति आ सकती है। इस संसार में परिवर्तन चक से कई अवांछित परिवर्तन पैदा होते रहते हैं। हानि में हिम्मत हारना गोया हानि को भारी बना देना है। दिनभर में सूर्य की भी तीन अवस्थाएँ होती हैं, अत समझना चाहिए कि यह परिस्थिति भी पार हो ही जायेगी।

अपनी चिन्ता प्रभु को दे दो और चिन्ता की बजाय ईश्वर-चिन्तन करो। प्रभु-चिन्तन की विधि सीख लो तो चढ़ती कला के दिन आ जायेंगे।

यदि कोई मनुष्य व्यापारी या उद्योगपति है तो भी वह एक पकार से कृषक ही है क्योंकि इस संसार रूपी कर्मक्षेत्र में कर्म रूपी बीज तो वहभी बोता ही है। खेत में डाले गये बीज तो अनुकूल जलवायु या धरनी न होने पर अंकुरित नहीं भी होते परन्तु कर्म रूपी बीज तो अवश्य ही काँटे या फूल, क्यारी या फलदार वृक्ष के रूप में सामने आते ही हैं।

पाय सभी मनुष्य जानते और मानते हैं कि कर्म अपना फल मनुष्य के सामने लाता है। तब भला मनुष्य इस रहस्य को भूल क्यों जाते हैं? व्यापार या उद्योग के कार्य में लगे होने पर उनके मन में यह बात खिसक क्यों जाती है या उनके मन में होने पर भी वे इसकी अवहेलना क्यों करते हैं? जैसा बोयें वैसा काटेंगे के सिद्धाँत को समझते हुए भी मनुष्य कई बार काँटे बोने रूपी कर्म क्यों करता है?

सोचने पर यह रहस्य सामने आयेगा कि या तो मनुष्य पुत्र-पौत्र या स्त्री-बेटी के मोह पाश में फंस जाता है या लोभ ही उसके विवेक पर पट्टी बाँध देता है और या उसकी आत्मिक दुर्बलता उसे परिस्थिति अथवा पलोभन के वशीभूत कर देती है। अत आत्मा को बलवान बनाने की सहज विधि को जानना ज़रूरी है।

आज भी धनवान लोग आत्मा की दृष्टि से महान लोगों को आमंत्रित करके उनका आशीर्वाद माँगते हैं अथवा उन्हें अपनी गद्दी पर आसीन होने के लिए पार्थना करते हैं, तब वे स्वयं ही यदि महानता का कुछ अंश धारण कर लें तो स्वयं ही सिद्धि स्वरूप हो जायेंगे और उनके अपने हाथ में बरकत और वृद्धि आ जायेगी।

धन कमाओ पर दूसरों से ईर्ष्या करके मत कमाओ। हरेक आत्मा के कर्म और पालबध अलग-अलग हैं; तब दूसरों से अपनी तुलना क्यों की जाए? किसी को देख कर स्वयं भी वैसा ही बनने की कोशिश करना गोया उसका फालोवर या अनुचर बनना है। किसी को अधिक धनवान बनते देखकर उस जैसा धनवार बनने का यत्न करना तो गोया स्वयं को उससे घटिया मानना है। यह तो आत्म-सम्मान को गँवाने वाली बात है। स्व-मान में रहते हुए ही धन कमाना ठीक है। ईर्ष्या से तो सुख में दुःख मिश्रित हो जाता है।

कई लोग धन को लक्ष्मी और पैसे को नकद नारायण कहते हैं। वे दीपावली के अवसर पर श्रीलक्ष्मी और श्रीनारायण का पूजन भी करते हैं। परन्तु श्रीलक्ष्मी और श्रीनारायण को तो उनके चित्रों में कमल पुष्प पर दिखाया जाता है। श्रीलक्ष्मी का नाम कमला और श्रीनारायण का नाम कमलापति भी है। अत श्रीलक्ष्मी और श्रीनारायण का आधार तो कमल ही है। कमल पुष्प के समान पवित्र बनने के कारण ही तो उन्होंने यह माहन देवी और देव पद पाया, वे पूज्य बने और अतुल धन तथा ऐश्वर्य के मालिक बने।

अत धन कमाने के लिए व्यापार या उद्योग करते हुए यदि आप अपना जीवन ही कमल-सम बना दें तो आप स्वयं ही उनके समान बन जायेंगे। धन या नकद नारायण ही को इष्ट मानकर जीवनभर उन्हीं की साधना में लगे रहने की बजाए धन कमाते हुए यदि लक्ष्मी और नारायण रूप जीवनोद्देश्य को सामने रखा जाय, तभी जीवन की वास्तविक सफलता है।

लक्ष्मी वह है जो लक्ष्य में स्थित हो। अत यह जो उक्ति है कि नर तू ऐसा कर्म कर कि जिससे नारायण बने और नारी तू ऐसा कर्म कर जिससे तू लक्ष्मी बने, इसके अनुसार जीवन को ढालते हुए व्यापार या उद्योग करने से सच्चे सुख की पाप्ति होती है।

मनुष्य को यह याद रखना चाहिए कि धन एक साधन है, यह सिद्धि नहीं है। अत इसे साधन मानकर कमाना और जीवन की सिद्धि के लिए पयोग करना चाहिए। मनुष्य यदि अपना सारा जीवन साधन ही इकट्ठा करने में लगा देगा तो उसे सिद्धि के लिए पयोग कर सिद्धि स्वरूप कब बनेगा? अत एक तो धन ऐसे तरीके से कमाया गया हो तो सिद्धि से वंचित न कर दे और दूसरे सारा जीवन ही उसके उपार्जन में न लगा दिया जाये।

मनुष्य को चाहिए कि वह अपने दिनभर के समय को ठीक तरह बाँट ले। वह कुछ समय व्यापार या उद्योग में, कुछ अपने स्वास्थ्य लाभ में और कुछ घर के सदस्यों या मित्रजनों के साथ रहने में लगाये और कुछ अपने जीवन की परम सिद्धि में भी नित्य निश्चित रूप से लगाये।

परमात्मा भी तो हमारे माता-पिता, शिक्षक-सद्गुरु तथा सर्वस्व हैं और विधि तथा सिद्धि के दाता भी हैं। अत उनके संग जीवन न जीना अर्थात् उनके सथ मन को न मिलाना भी एक बहुत बड़ी भूल है।

व्यापार और उद्योग में जो भी लेन-देन रूप कर्म होता है, उसे आय या व्यय, ऋण या सम्पत्ति के खाते में चढ़ा दिया जाता है। ठीक इसी पकार, जीवन के हर कर्म से कर्मों का खाता बनता है। वह खाता ऋणात्मक भी हो सकता है, गुणात्मक अथवा लाभात्मक भी।

अत हरेक व्यक्ति को देखना चाहिए कि जो कर्म मैं कर रहा हूँ, उससे मेरे कैसे कर्मों का लेखा-जोखा अथवा हिसाब-किताब बन रहा है, वर्ना ऐसान हो कि कर्मों के व्यापार में मनुष्य को हानि हो रही हो अथवा उसे देखने में तो अभी लाभ ही हो रहा हो परन्तु वस्तुत उसे ऐसी हानि हो रही हो जो उसे निकट अथवा दूर भविष्य में चुकानी पड़ेगी।

पाचीन रीति-रिवाज के अनुसार व्यापारी लोग अपनी गद्दी के निकट अथवा अपने बहीखातों के पारम्भ में स्वस्तिक अंकित करते हैं। दीपावली, जोकि व्यापर एवं वाणिजय वालों का विशेष त्योहार है, के अवसर पर भी वे स्वस्तिक अंकित करते हैं क्योंकि यह व्यापार के वर्ष के पारम्भ का प्रतीक और शुभ अवसर माना गया है जबकि पुराने खाते बंद करके नये खाते खोले जाते हैं।

व्यापारी लोग अपने व्यापार के स्थान पर पवेश करते ही अगरबत्ती या धूप भी जगाते हैं। परन्तु बहुत-से लोग इस कार्यकलापों को शुभ मानते हुए भी इनके वास्तविक अर्थ से परिचित नहीं हैं।

वास्तव में स्वस्तिक में दो मध्यवर्ती रेखाएँ एक वृत्त की दो व्यास-रेखाओं की ही पतीक हैं जोकि केन्द्र बिन्दु से गुज़र रही हों और स्वस्तिक की चार भुजाएँ, जोकि ऊपर दाहिनी ओर से शुरू होती हैं, दिशा अथवा स्थिति की पतीक हैं। दोनों व्यास रेखाएँ सृष्टि-चक अथवा काल-चक को चार बराबर भागों में बाँटती हैं जिन्हें कि हम सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग के नाम से जानते हैं।

ऊपर की दायीं ओर की भुजा रेखा सतयुग की पतीक है और यह इंगित करती है कि सतयुग में सब शुभ और लाभ ही है। दायीं दिशा भारतीय संस्कृति में दाहिने हाथ की तरह शुभ अथवा पवित्र ही मानी गई है। आगे भुजा का नीचे की ओर झुका होना धीरे-धीरे पवित्रता की कलाओं में ह्रास का द्योतक है। यह त्रेतायुग का बोधक है। त्रेता में पवित्रता की कलाएँ कम होती हैं।

आगे चल कर भुजा विपरीत दिशा में अर्थात् बायीं ओर है। यह वाम वर्ग की संकेतक है। द्वापरयुग में मनुष्य का व्य्वहार विकृत हो जाता है। काम, कोध, लोभ, मोह, अहंकार तभी शुरू होते हैं। सतयुग और त्रेतायुग पवित्रता के युग थे जिनमें व्यापार अथवा लेन-देन में स्नेह था और सभी एक-दूसरे को देने में ही अधिक खुशी अनुभव करते थे वहाँ स्वार्थपूरक लाभ वृत्ति नहीं थी।

परन्तु द्वापरयुग में मनुष्य में मेरे-तेरे का भाव जागृत हुआ, मोह तथा लोभ वृत्ति भी बहुत हल्की मात्रा में जागृत हुई और मनुष्य धन को इकट्ठा करने की पवृत्ति से युक्त हुआ। धीरे-धीरे ये अशुद्ध पवृत्तियाँ बलवती होती गईं और आगे कलियुग आया। इसी को स्वस्तिक की वाम दिशा में उर्ध्वगामिनी भुजा के रूप में पदर्शित किया गया है।

कलियुग के अन्त में तो व्यापार तथा व्यवहार में लोभ, स्वार्थ, शोषण आदि ही पधान होते हैं और मिलाव। बनावट, धोखा, लूट-खसूट आदि की अति ही हो जाती है। हर धंधे में झूठ ही पनपता है। पाय मनुष्य झूठ, रिश्वत, कर-चोरी, मिलावट, दुःख देकर कमाने आदि को भी बुरा नहीं मानते बल्कि वह समझता है कि इनके बिना तो धंधा भी लाभदायक नहीं होता।

सरकार जनता पर हर आये वर्ष अधिकाधिक कर लगा कर लोगों को कर से बचने के तरीके सोचने पर मज़बूर करती है। हर व्यक्ति के पास जो धन होता है, वह उसके कारण कर-विभाग से तथा हिंसक-तत्वों से भयभीत रहता है। ऐसा ही घोर कलियुग अब चल रहा है।

परन्तु हमें याद रखना चाहिए कि कलियुग के बाद फिर सतयुग आता है। सतयुग में तो हरेक के पास अथाह धन और सम्पत्ति होती है। वहाँ चोरी-चकारी, निर्धनता या हानि का नाम-निशान भी नहीं होता। जैसे रात्रि के बाद दिन आता है वैसे ही अब अज्ञान्धकार और पापाचार का अंत होकर सतयुग तथा प्रकाश का समय आना शुरू हो रहा है।

शीघ्र ही प्रभात होने वाली है। अब जागने का समय है क्योंकि अब ज्ञान-सूर्य परमात्मा ज्ञान-पकाश दे रहे हैं। अब सृष्टि का अमृतवेला है जब वे ज्ञान रूपी अमृत बाँट रहे हैं। अब उठकर पभु की स्मृति में बैठने का समय है क्योंकि यह कलियुग के अन्त और सतयुग के आरम्भ का शुभ संगम है जोकि सृष्टि का ब्रह्म मुहूर्त है। जब ज्ञान स्नान करके मन को पभु में समाहित करने का शुभ समय अथवा शुभ मुहूर्त है।

अब परमपिता परमात्मा इस ज्ञान तथा सहज योग के रूप में भाग्य बाँट रहे हैं। अब रात्रि की कालिमा से निकल मन को ज्ञान-स्नान से पवित्र करने का समय है। स्वस्तिक इसी बात का परिचायिका है।

जिस स्वस्तिक को हम हर वर्ष अंकित करते रहे अब उसके रहस्य को समझ कर, अब काल-चक अथवा परिवर्तन-चक को जानकर हमें भी अपने संसकर बदलने चाहिए और अपने कर्मों का नया खाता खोलना चाहिए। याद रहे कि अब कलियुग जा रहा है और सतुयग आ रहा है। अब जागने और जगाने का समय है।

चौबीस घण्टे के जिस काल-चक को दिन कहते हैं, इसमें भी हमें अपने समय को सुनियोजित करना चाहिए ताकि कहीं ऐसा न हो कि सारी आयु धनोपार्जन में ही गुज़र आय और धन बैंकों तथा तिजोड़ियों में पड़ा रहे और आत्मा अपनी यात्रा में यहाँ से डेरा कूच कर चले। सारा ही दिन दुकान या दफ्तर की, कारख़ाने अथवा फैक्ट्ररी ही की तो बात सोचते-सोचते समाप्त नहीं होना है।

रात्रि को भी ग्राहक, कर्मचारी या कल-कारख़ाने ही के दृश्य देखतेरहने में जीवन की सफलता नहीं है। जीवन तो इनसे बड़ी चीज़ है। उसका तो कोई महान लक्ष्य है। अत उस लक्ष्य की सिद्धि के लिए कम-से-कम पात ब्रह्म मूहूर्त में या अमृतवेले तो आत्म-चिंतन तथा ईश्वरीय चिंतन में मन को समाहित करना चाहिए।

रात्रि को भी सोने से पूर्व कुछ अपने दिनभर की तस्वीरें देखकर आगे के लिए सम्पूर्णता की ओर बढ़ने का दृढ़ संकल्प करना चाहिए तथा अपने परमपिय परमपिता के प्यार का रसास्वादन करना चाहिए। याद रहे कि भक्ति और सहज राजयोग में अन्तर है।

सहज राजयोग द्वारा ही देह से न्यारे होकर परमपिता परमात्मा में मन को स्थिर कर सकते हैं और इसमें कोई शारीरिक कठिनाई भी नहीं है। इससे आत्मा आनन्द-विभोर हो जाती है और उसके संस्कार परिवर्तित होना शुरू हो जाते हैं तथा आदतें बदलनी पारम्भ हो जाती हैं।

दान करना एक शुभ कर्म माना जाता है। परन्तु सब पकार के दान-कर्मों में से ईश्वरीय ज्ञान का दान, योग दान तथा दिव्य गुणों का दान श्रेष्ठ है क्योंकि जिसे ईश्वरीय ज्ञान, योग विद्या तथा दिव्य गुणों की सुमति दी जाती है वह सदा के लिए निर्धनता, रोग, शोक आदि से मुक्त हो जाता है।

यह सूक्ष्म एवं आध्यात्मिक ज्ञान ऐसा है जिससे आत्मा छ विकारों रूपी रोगों से मुक्त हो जाती है, निर्बलता और बुराइयों की जंजीरों से आज़ाद हो जाती है और परमपिता परमात्मा से अपना सम्बन्ध जोड़कर योग शक्ति से अपने रहे हुए विकर्मों के खाते को चुक्ता कर देती है।

अत जहाँ ईश्वरीय ज्ञान, सहज राजयोग तथा दिव्य गुणों की शिक्षा दी जाती है, वह आध्यात्मिक अस्पताल भी है, अविनाशी विद्या का विद्यालय भी है, वह ज्ञान धन द्वारा सदा के लिए निर्धनता से मुक्त कराने का सहायता घर भी है। ऐसे ही स्थान बनाना सर्वश्रेष्ठ दान करना है।

सोना, चाँदी, नोट, चैक आदि तो एक पकार का धन है जिससे तन के सुख के साधन जुटाये जा सकते हैं परन्तु आत्मा के सुख का साधन ज्ञान धन है। अत योग अविनाशी कमाई है। दिव्यगुण हीरों से भी अधिक अनमोल रत्न हैं जिनसे मनुष्य जीवन कौड़ी-तुल्य से हीरे-तुल्य बनता है। संसार में उन्हीं की मूर्तियाँ बनी हुई हैं जिनमें दिव्य गुण थे।

उन्हीं को महान माना जाता है जिनमें महान गुण होते हैं। महान अथवा दिव्य व्यक्तियों के स्मारकों पर ही लोग धन न्योछावर कर देते हैं। दिव्य गुणों के बिना तथा ज्ञान धन के बिना मनुष्य कंगाल है। वह सबसे अधिक गरीब है जो विकर्म करके अपने ऊपर कर्मों का बोझ चढ़ाता जाता है। 

वास्तविक धनी वह है जो ज्ञान, योग तथा दिव्य गुणों से मालामाल और निहाल होकर सदा खुशी के खज़ाने से खुशहाल रहता है। केवल उसे ही जीवन में संतोष होता है। संतुष्टता मनुष्य की खुशी का साधन है। असंतुष्ट मनुष्य करोड़ों रुपये होने पर भी कंगाल है।

याद रखो, धन माया नहीं है। धन का ला, धन में आसक्ति, धन को कमाने के लिये हेराफेरी और छल-कपट माया है। काम, कोध, अहंकार और आलस्य भी माया के रूप हैं। देह-अभिमान से ही मनुष्य में मनोविकार पैदा होते हैं और स्वयं को आत्मा निश्चय कर, सभी को परमात्मा की संतान मान कर प्रन्यासी (ट्रस्टी) होकर कार्य करने से मनुष्य मायाजीत बन जाता है। संन्यासी नहीं बनना, पन्यासी बनना है। धन कमाना है परन्तु माया को छोड़ना है।

भगवान के महावाक्य हैं - हे वत्स, सभी दुःखों का तथा अशान्ति का मूल कारण छ विकार हैं। विकारों का कारण देह-अभिमान है। देह-अभिमान अज्ञान अथवा मिथ्या ज्ञान के कारण है। अज्ञान तथा मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयोग द्वारा होती है।

ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयोग स्वयं ईश्वर अथवा परमपिता परमात्मा ही कलियुग के अन्त में सतयुग पारम्भ करने के लिए सिखाते हैं। वर्तमान समय कलियुग के अनत और सतयुग के आरम्भ का शुभ संगमयुग है।

पवित्र बनो और योगी बनो

अत अब ही ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयाग की निशुल्क ज्ञिक्षा पाप्त करके भविष्य 21 जन्मों अथवा 2500 वर्षों के लिए सम्पूर्ण पवित्रता, सुख और शान्ति अथवा मुक्ति और जीवनमुक्ति पाप्त कर सकते हैं। भगवान के महावाक्य हैं कि - मीठे बच्चे, सम्पूर्ण तथा स्थायी पवित्रता, सुख और शान्ति अथवा मुक्ति-जीवनमुक्ति आपका ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार है। परन्तु अब नहीं तो कभी नहीं।

ईश्वरीय ज्ञान और सहज राजयोग को सविस्तार समझ कर शान्ति और आनन्द की अनुभूति के लिए तथा मन की उलझनों से मुक्ति पाप्त कर आत्मानुभूति के लिए अपने ही शहर में स्थित प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के किसी भी सेवाकेन्द्र पर पात 7.00 बजे से 10.00 बजे या सांय 4.00 बजे से 8.30 बजे के बीच किसी भी समय एक घण्टा प्रतिदिन केवल सात दिन आकर निशुल्क लाभ लीजिए या अपने स्थान पर मित्रजनों को एकत्रित कर ब्रह्माकुमारीज़ आश्रम की ब्रह्मचारिणी बहनों के प्रवचन का आयोजन कर, पुण्य पाप्त कीजिए।

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