संसार के सभी ईश्वर-विश्वासी लोग मानते हैं कि भगवान् कल्याणकारी हैं। भगवान् को कल्याणकारी एवं हितैषी मानने के कारण ही उन्हें माता-पिता, बन्धु-सखा इत्यादि स्नेह-सूचक एवं शुभ संबन्धों से याद किया जाता है। भगवान् के सम्बन्ध से अथवा उन द्वारा दिए गए ज्ञान अथवा मत को आचरण में लाने से किसी का भी अकल्याण नहीं होता बल्कि मनुष्य का सुधार अथवा उद्धार ही होता है।
अतः सब प्रकार से सबका कल्याणकारी होने के कारण भगवान् का कर्त्तव्य-वाचक और सम्बन्ध वाचक, स्व-कथित नाम ‘शिव’ है। भगवान् के इस अर्थ-सहित नाम के बारे में किसी भी व्यक्ति का कोई दूसरा विचार नहीं हो सकता क्योंकि अगर भगवान् ‘शिव’ अर्थात् कल्याणकारी नहीं हैं तब तो उन्हें ‘भगवान्’, ‘बन्धु’ या ‘पिता’ ही नहीं कहा जा सकता। अकल्याण करने वाले को तो ‘भगवान्’ नहीं बल्कि ‘शैतान’ ही कहा जा सकता है।
‘भगवान्’ किसे कहा जाता है?
‘भगवान्’ शब्द के प्रायः दो अर्थ किए जाते हैं। एक तो ‘भगवान्’ शब्द परम ऐश्वर्यवान् का वाचक है और दूसरे ‘भगवान्’ उसे कहा जाता है जिसे लोग भजते हों अर्थात् जिसे लोग याद करते हों और जो परमपूज्य और उपास्य हो। स्पष्ट है कि भक्त लोग ‘भगवान्’ को इसलिए ही भजते, याद करते और ध्याते हैं कि भगवान् उन्हें शान्ति और सुख दें अथवा उनको अमरपद, मुक्ति और कल्याण प्रदान करें।
संसार में भगवान् का ऐश्वर्य अर्थात् मान और यश इस कारण ही तो है कि वे सुखदाता, शान्तिदाता और कल्याणकारी हैं। अतः सभी ईश्वर-प्रेमी लोग भगवान् को सत्यं और सुन्दरं के अतिरिक्त ‘शिव’ भी अवश्य मानते हैं, उन्हें ‘अशिव’ तो कोई भी नहीं मानते।
अब यह भी सभी मानेंगे कि किसी का कल्याण करने के लिए उसे कर्म की गति का ज्ञान देना और उसके आगे कर्म का पैक्टिकल आदर्श उपस्थित करना तथा उसकी सहायता और मार्ग-प्रदर्शना करना ज़रूरी है। अतः मानना पड़ेगा कि भगवान् ने कभी इसी धरा पर आकर मनुष्यात्माओं को सन्मार्ग दर्शाया है, उन्हें सुमति दी है, उन्हें सुधारा है और उनके विषय-विकारों को हरा है, इसी कारण ही तो आज भी जब किसी मनुष्य के विचार उल्टे होते हैं तो मनुष्य प्रार्थना करते हैं – हे भगवान् इसे सुमति दो।
जब किसी का चरित्र बिगड़ जाता है तो वे कहते हैं – इसे तो भगवान् ही सुधार सकते हैं। जब किसी का मन विषय-विकारों से हटाये नहीं हटता तो वह भगवान् ही से प्रार्थना करता है – हे प्रभो, मेरे विषय-विकार मिटाओ, मेरे पाप हरो।’’
अतः भगवान् शिव के अवतरण के उपलक्ष्य में आज तक हर वर्ष भारत में शिवरात्रि का त्योहार बड़े चाव से मनाया जाता है क्योंकि जाने-अनजाने लोगों के मन में यह पूर्व-स्मृति समाई हुई है कि पहले भी जब मानव-जगत् में अज्ञान-रात्रि छाई हुई थी तो भगवान् उनका कल्याण करने के लिए आये थे।
परन्तु कल्याणकारी भगवान् अर्थात् शिव ने आकर कल्याण करने के लिए जो मत अथवा सुमति दी थी, कर्मगति का जो गुह्य ज्ञान दिया था अथवा मनुष्यों का चारित्रिक उत्थान करने के लिए जो सर्वोत्तम शिक्षा दी थी, उसका ग्रन्थ कौनसा है, वह जिस मनुष्य रूप में साकार हुए थे उसका नाम क्या था इत्यादि-इत्यादि बातें आज विस्मृति की धुन्ध में ओझल-सी हो गई हैं।
परन्तु आज उन्हें जानना आवश्यक है क्योंकि स्वयं भगवान् ने हमारे कल्याण के लिए जो ज्ञान दिया, उसके सर्वोत्तम शास्त्र को हम न जानें और केवल भगवान् के नाम ही की तोते की तरह रट लगाते रहें तो हमें सुमति कैसे प्राप्त होगी, हमारा मन सुधरेगा कैसे और हमारे विषय-विकार तथा पाप मिटेंगे कैसे अर्थात् हमारा कल्याण होगा कैसे?
भगवान् द्वारा दिया हुआ मत अथवा ज्ञान किस शास्त्र में है?
भगवान् ने अवतरित होकर जो ज्ञान गाया, उस ज्ञान का नाम हो गया ‘गीता’ अर्थात् ’’गाया हुआ।’’ अतः बाद में भगवान् के ज्ञान को जिस ग्रन्थ का रूप दिया गया, उसका नाम रख दिया गया ‘श्रीमद्भगवद्गीता’। भगवान् के ज्ञान के उस ग्रंथ को भी सभी विचारवान् लोग कल्याणकारी ग्रन्थ मानते हैं।
अब साधारण विवेक की परन्तु एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि -
1. जबकि भगवान् ‘कल्याणकारी’ हैं और
2. कल्याणकारी होने के कारण उनका नाम ’’शिव’’ है और
3. गीता शास्त्र में ’’भगवान्’’ ही के ’’कल्याणकारी’’ प्रवचन अथवा महावाक्य हैं तो निष्कर्ष यह हुआ कि भगवद्गीता को हम ‘शिव भगवान्’ के महावाक्यों का ग्रंथ अथवा ’’शिव भगवद्गीता’’ मान सकते हैं परन्तु सभी जानते हैं कि आज श्रीमद्भगवद्गीता को श्रीकृष्ण द्वारा दिये हुए ज्ञान का शास्त्र माना जाता है। अतः प्रशन उठता है कि
4. हम गीता को भगढ़वान् शिव द्वारा दिया हुआ ज्ञान मानें या श्रीकृष्ण द्वारा दिया हुआ ज्ञान मानें
5. या शिव और श्रीकृष्ण दोनों को एक और अभिन्न मानकर दोनों नामों को ही मान लें
6. या हम इस प्रशन ही को इतना महत्त्वढ़पूर्ण न मानें और केवल ज्ञान ही की चर्चा करें, ज्ञान देने वाले की चर्चा छोड़ दें? नीचे हम क्रमानुसार उपर्युक्त तीनों प्रश्नों पर विचार करते हैं।
गीता ज्ञान भगवान् शिव ने दिया था
ऊपर हमने जिन तीन प्रशन का उल्लेख किया है, उनमें से पहले प्रशन पर विचार करते हुए हमें यह सोचना होगा कि गीता का तो नाम ही ’’भगवद्गीता’’ है, अतः श्रीकृष्ण को गीता-ज्ञान दाता मानने का अर्थ श्रीकृष्ण को भगवान् मानना होगा। तो पहले हमें यह निर्णय करना चाहिए कि ‘क्या हम श्रीकृष्ण को ‘भगवान्’ कह सकते हैं?’
सभी जानते हैं कि ‘श्रीकृष्ण’ नाम तो दैहिक जन्म होने के बाद का रखा हुआ नाम है; ‘श्रीकृष्ण’ कोई कर्तव्य-वाचक अथवा सम्बन्ध-वाचक नाम नहीं है। परन्तु भगवान् के तो सभी नाम गुण-वाचक, कर्त्तव्य-वाचक अथवा सम्बन्ध-वाचक होते हैं। भगवान् का कोई संज्ञावाचक नाम नहीं होता। ‘ज्योतिर्लिंग शिव’ नाम से तो भगवान् का ज्योति-स्वरूप होना, कल्याणकारी पिता होना आदि-आदि सिद्ध होता है परन्तु ‘श्रीकृष्ण’ नाम से ‘ज्योति का स्वरूप’ या ‘पिता का सम्बन्ध’ या कल्याण करने का ‘कर्त्तव्य’ इत्यादि सिद्ध नहीं होते।
अतः देह अथवा जीव के नाम को भगवान् का नाम मानना भूल है। तो निर्णय हुआ कि भगवद्गीता के ज्ञान-दाता (भगवान्) का नाम ‘शिव’ ही है, न कि श्रीकृष्ण क्योंकि ‘श्रीकृष्ण’ तो दैहिक एवं लौकिक जन्म पर आधारित नाम है जबकि भगवान् तो ज्योति-स्वरूप हैं और उनका तो निजी आध्यात्मिक, अपरिवर्तनीय एवं अविनाशी नाम है।
दूसरी बात यह है कि श्रीकृष्ण नाम तो माता-पिता इत्यादि द्वारा रखा हुआ नाम है जबकि भगवान् तो स्वयं ही सारी सृष्टि के माता-पिता हैं, उनका नाम तो स्व-कथित नाम है, वह किन्हीं लौकिक माता-पिता द्वारा रखा हुआ नहीं है।
‘श्रीकृष्ण’ नाम के एक 16 कला पवित्र महाराजकुमार एवं पूज्य देवता भारत में हुए अवश्य हैं और वह निश्चय ही भारत के पूज्य पूर्वजों में से शिरोमणि थे परन्तु उन्हें हम एक देवता ही मान सकते हैं, भगवान् नहीं मान सकते क्योंकि श्रीकृष्ण तो सूर्यवंशी (कई लोग कहते हैं ‘चन्द्रवंशी’) थे और उनके माता-पिता इत्यादि थे जबकि भगवान् का कोई सूर्यवंश, चन्द्रवंश आदि वंश या कोई जन्म देने वाला नहीं होता बल्कि वह तो सभी को अलौकिक जन्म देने वाले होने के कारण सभी के ‘परमपिता’ कहलाते हैं।
भगवान् के जन्म और श्रीकृष्ण के जन्म में अन्तर
पाठक सोचते होंगे कि भगवान् अथवा शिव का अवतरण तो लेखक ने भी इस लेख के शुरू में माना ही है, तो अवतरण होने के पश्चात् शिव का भी कोई वंश अथवा माता-पिता तो होता ही होगा? अब हम इस प्रशन पर प्रकाश डालते हैं।
‘जन्म’ लेने अथवा अवतरित होने पर भी भगवान् ‘शिव’ का श्रीकृष्ण की तरह कोई वंश अथवा माता-पिता नहीं होते क्योंकि वास्तव में श्रीकृष्ण और भगवान् अथवा शिव के जन्म की रीति में महान् अन्तर है।
श्रीकृष्ण तो माता के गर्भ से जन्म लेते हैं परन्तु भगवान् अथवा शिव का जन्म एक अनोखा जन्म है। वह शिव-लोक से आकर एक वृद्ध मनुष्य के तन में सवारी करते हैं अर्थात् उसके तन में दिव्य प्रवेश करते हैं क्योंकि उन्हें लालन-पालन नहीं लेना होता और शिक्षा-दीक्षा नहीं लेनी होती बल्कि मनुष्यों के कल्याणार्थ ज्ञान सुनाने के लिए केवल मुखेन्द्रिय की आवश्यकता होती है।
जिस मनुष्य के तन में परमात्मा प्रवेश करते हैं उस मनुष्य का जन्म तो अपने माता-पिता से हुआ होता है और वह अपने कर्मों तथा पुरुषार्थ अनुसार अपना पालन भी करता है परन्तु परमात्मा का ‘जन्म’ तो केवल उस मनुष्य में अपने-आप प्रवेश होने का ही नाम है। अतः भगवान् अथवा शिव को ‘स्वयंभू’ अर्थात् ‘अपना जन्म आप लेने वाला’ कहा गया है। गीता में भी भगवान् के महावाक्य हैं कि – मेरा जन्म ‘दिव्य’ है; मैं प्रकृति को वश करके अथवा उसमें प्रवेश होकर इस लोक में धर्म की स्थापना करने और प्रायः लुप्त हुआ ज्ञान सुनाने आता हूँ।’’
स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण को ‘स्वयंभू’ नहीं माना जा सकता, उनका जन्म दिव्य अथवा ‘परकाया प्रवेश’ नहीं है बल्कि वह तो अपनी काया लेते हैं। परमात्मा का ‘जन्म’ तो ‘परकाया प्रवेश’ ही का दूसरा नाम है और यही कारण है कि त्रिलोकीनाथ, सर्वशक्तिवान, ज्ञान के सागर परमात्मा के अवतरित होने पर जन-साधारण उन्हें पहचान ही नहीं पाते क्योंकि भगवान् जिस शरीर में अवतरित होते हैं, वह शरीर तो अन्य आत्मा का होता है और उसके कर्मों के अनुसार साधारण होता है और जन-साधारण चर्म-चक्षुओं से उस साधारण व्यक्ति को देखकर छले-से जाते हैं;
यदि भगवान् कोई ‘अपना शरीर’ लेते तो वह इतना तेजोमय, इतना सुन्दर, इतना आकर्षणकारी, इतना दिव्य होता कि कोई भी व्यक्ति उन्हें पहचानने से न चूकता; परन्तु कर्मातीत होने के कारण परमात्मा शरीर तो ले ही नहीं सकते क्योंकि उन्हें प्रारब्ध तो भोगनी ही नहीं होती।
अतः भगवान् के जन्म और श्रीकृष्ण के जन्म के इस अन्तर को समझकर तथा स्वयं गीता के महावाक्यों को सामने रखकर यह निर्णय करना किठन न होगा कि गीता में वर्णित दिव्य और अलौकिक जन्म तो स्वयं परमात्मा शिव का ही है न कि श्रीकृष्ण का और कि भगवान् शिव को साधारण तन में देखकर तो अर्जुन भी उन्हें श्रीकृष्ण मानने की भूल करता रहा और अन्त में उसने माना कि –
प्रमाद-वश ही आपको श्रीकृष्ण, मामा, सखा इत्यादि मानता रहा’’, क्योंकि पहले उसे दिव्यनेत्र प्राप्त नहीं था बल्कि केवल दैहिक दृष्टि ही प्राप्त थी।
कोई पूछ सकता है कि दिव्य-दृष्टि प्राप्त होने पर अर्जुन को तो विष्णु चतुर्भुज रूप का साक्षात्कार हुआ था, शिव का तो नहीं हुआ था, तो क्यों न यह माना जाये कि विष्णु के साकार रूप श्रीकृष्ण ने ही गीता-ज्ञान दिया था?
हम अनुभव के आधार पर कह सकते हैं कि ज्योतिर्लिंगम् भगवान् शिव जिस साधारण मनुष्य-तन में अवतरित होते हैं, वह नर सतयुग में श्रीनारायण अथवा श्रीकृष्ण नाम से विख्यात था और पवित्र होने के कारण पूज्य था, परन्तु धीरे-धीरे वह पूज्य स्थिति से पुजारी स्थिति को प्राप्त हुआ और अन्ते, परमात्मा शिव ने उसके मानवीय तन में प्रविष्ट होकर गीता-ज्ञान दिया तो उसको ’’ब्रह्मा’’ नाम दिया।
उसके तन में प्रवेश करके जब परमपिता परमात्मा शिव गीता-ज्ञान देते हैं तो कई दर्शकों को उस व्यक्ति के सबसे पहले वाले श्रीकृष्ण रूप का साक्षात्कार होता है। उससे कई भक्त, ज्ञान न होने के कारण, यह समझ लेते हैं कि श्रीकृष्ण ने ही यह साधारण रूप लिया है और वे उस वृद्ध प्रजापिता ब्रह्मा को ही ‘श्रीकृष्ण’, ‘हे श्रीकृष्ण’ कह कर पुकारने लगते हैं।
दूसरे, श्रीकृष्ण के साक्षात्कार के अतिरिक्त, परमात्मा शिव कुछ श्रोताओं को दिव्य दृष्टि का वरदान देकर उन्हें आसुरी सृष्टि के महाविनाश का तथा विष्णु चतुढ़र्भुज रूप का भी साक्षात्कार कराते हैं; ऐसा साक्षात्कार कराने का भाव स्पष्ट करते हुए परमात्मा कहते हैं – जो इस गीता-ज्ञान और राजयोग का अभ्यास करेगा वह आसुरी सप्रदाय के भावी विनाश के बाद धर्म-सम्पन्न सृष्टि में अर्थात् स्वर्ग में श्रीकृष्ण के समान ‘श्रीमानों’ के घर जन्म लेगा और पृथ्वी का राज्य तथा सर्वोत्तम सौभाग्य प्राप्त करेगा।
यह बात स्वयं गीता में वर्णित महावाक्यों से भी स्पष्ट है। अतः विष्णु चतुर्भुज का साक्षात्कार परमात्मा ज्ञान द्वारा होने वाली प्राप्ति को दर्शाने के लिए कराते हैं अर्थात् यह समझाने के लिए कराते हैं कि गीता-ज्ञान द्वारा नर पुनः श्री नारायण बन जायेगा और प्रजापिता ब्रह्मा पुनः श्रीकृष्ण पद प्राप्त कर लेंगे।
स्पष्ट है कि भयभीत हुए अर्जुन की मनोकामना को पूर्ण करने के लिए तथा ज्ञान द्वारा माया से युद्ध करके प्राप्त होने वाले देव स्वरूप का साक्षात्कार कराने के लिए ही परमात्मा ने विष्णु का साक्षात्कार कराया था वरना परमात्मा स्वयं तो ज्योतिस्वरूप हैं और ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर के भी रचयिता हैं।
पुनश्च, आप देखेंगे कि आज भारत में तीन-चार गीताएं प्रसिद्ध हैं – एक तो ‘श्रीमद्भगवद्गीता’, दूसरी ‘ईश्वर गीता’, तीसरी ‘शिव गीता’। इनके अतिरिक्त ‘देवी गीता’ और ‘गणेश गीता’ भी प्रचलित हैं। प्रथम तीन गीताओं में तो कई श्लोक एक-जैसे ही हैं और तीनों की पद्धति भी एक-जैसी ही है। श्रीमद्भगवद्गीता में विष्णु चतुर्भुज के साक्षात्कार का वर्णन है तो शिव गीता में शंकर (प्रायः लोग शंकर को ही शिव समझते हैं) के साक्षात्कार का वर्णन है।
इस बात से स्पष्ट है कि भारत में आज जो मुख्य चार सप्रदाय हैं – शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणढ़पत्य इत्यादि, हरेक ने भगवान् द्वारा गाए गीता-ज्ञान को कल्याणकारी एवं प्रसिद्ध मानकर अपने-अपने इष्ट के नाम से, बाद में एक-एक गीता लिख डाली।
विचार कीजिए कि भगवान् तो एक ही हैं, ज्योतिस्वरूप हैं और कल्याणकारी हैं और इसलिए ‘शिव’ हैं परन्तु बाद में एक भगवान् को भूल जाने अथवा न जानने के कारण जब अनेक सप्रदाय प्रचलित हुए तो सब अपनी-अपनी ढपली बजाने लगे। वास्तव में शक्तियों (देवियों) को शक्ति तो सर्वशक्तिमान् शिव से मिली, जिस कारण ही उन्हें ‘शिव-शक्तियाँ’ कहा जाता है और ‘गणेश’ भी तो परमात्मा शिव ही की सन्तान ‘आत्मा’ का ही एक नाम है और श्रीकृष्ण व श्रीराम के भी ईश्वर (गोपेश्वर तथा रामेश्वर) तो शिव ही हैं, सभी के उपास्य अथवा भजने-योग्य भगवान् तो एक ज्योतिस्वरूप, त्रिभुवनपति, स्वयंभू परमात्मा शिव ही हैं,
अतः उन्हीं की ज्ञान-गीता का नाम ‘भगवद्गीता’ ‘शिवगीता’ अथवा ‘ईश्वरगीता’ हो सकते हैं, अन्य किसी के नहीं। हमने ऊपर ‘भगवान्’ शब्द के जो अर्थ बताए थे, उन से भी स्पष्ट है कि भगवद्गीता, अथवा शिव गीता ये सभी एक भजने योग्य, परमपूज्य, ऐश्वर्यवान् भगवान् ही की गीता के नाम होने चाहिएँ क्योंकि भगवान् तो एक ही हैं। गीता को अनेक देवताओं इत्यादि से सम्बन्धित करना एक महान् भूल है!
यह भूल कैसे हुई?
कई लोगों के मन में प्रशन् उठ सकता है कि क्या इतनी बड़ी भूल होना सम्भव भी है? यदि है तो कैसे?
आप देखेंगे कि संसार में ऐसी अनेक रचनाओं के बारे में भ्रान्ति एवं आशंका है। बहुत दूर की और प्राचीनकाल की तो बात ही क्या करें, अभी पिछले दिनों समाचार-पत्रों में यह समाचार छपा था कि नई दिल्ली में जो विश्व इतिहास कांग्रेस हुई थी, उसमें प्रोफेसर ओक ने इस खोज के बारे में प्रमाण रखे थे कि आगरा का ताजमहल और देहली का कुतुबमिनार, जिन्हें लोग शताब्दियों से मुसलमानों की कला-कृतियाँ मानते आ रहे हैं, वास्तव में आदि सनातन धर्म ही के कई राजाओं के बनवाये हुए अजूबे हैं।
इसी प्रकार, आप देखेंगे कि प्रसिद्ध वेदान्त दर्शन, जिसे ‘ब्रह्म सूत्र’ नाम से भी लोग याद करते हैं, के बारे में कई लोगों का तो यह मत है कि यह व्यास त्र+षि द्वारा रचित हैं और कि व्यास ही का दूसरा नाम बादरायण था परन्तु अन्य कई अनुसन्धानिकों का विचार है कि बादरायण त्र+षि, व्यास से कोई भिन्न त्र+षि था, परन्तु व्यास की प्रसिद्धि के कारण वेदान्त को एक महान् दर्शनशास्त्र मानते हुए किसी प्रकार व्यास के नाम के साथ जोड़ दिया गया।
कुछ समय पूर्व महाराष्ट्र के भूतपूर्व राज्यपाल श्रीप्रकाश जी ने एक समाचार-पत्र में अपने लेख में यह बताया था कि कुछ वृत्तान्त जिनका महात्मा गांधी जी से कोई सम्बन्ध नहीं था, अथवा दूर का सम्बन्ध था, उनकी महत्त्वता के कारण आज वे महात्मा गांधी जी के नाम के साथ जोड़े जा रहे हैं।
श्री प्रकाश जी ने लिखा था कि उनके एक मित्र जोकि भारतीय-विद्या विज्ञ हैं, का मत है कि वास्तव में भारत में श्रीकृष्ण नाम से तीन व्यक्ति हुए हैं और बहुत-सी वार्तायें जो श्रीकृष्ण के जीवन से सम्बन्धित नहीं मालूम पड़तीं, उन्हें भी महत्त्व देने के कारण श्रेष्ठ श्रीकृष्ण के जीवन से सम्बन्धित कर दिया गया ऐसा मालूम पड़ता है। इसी प्रकार, प्रसिद्ध कवि कालिदास के बारे में कई लोग कहते हैं कि वह विक्रमादित्य के दरबार का एक प्रसिद्ध कवि था, अन्य कई कहते हैं कि यह बात सन्देहपूर्ण है।
शंकराचार्य का जन्म आज से कितने वर्ष पूर्व हुआ, उसके बारे में भी अनेक विचार हैं। सभी मानते हैं कि आज से 5000 वर्ष पूर्व का इतिहास तो नहीं मिलता परन्तु 2500 वर्ष पूर्व के भारत का भी प्रामाणिक इतिहास कहाँ मिलता है? तो इतिहास के बारे में तथा प्रसिद्ध व्यक्तियों तथा रचनाओं के बारे में बहुत गड़बड़ है, उसके कुछ बहुचर्चित उदाहरण हमने ऊपर दिये हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता के बारे में गड़बड़ होना तो ‘भगवद्गीता’, ‘शिव गीता’, ‘ईश्वर गीता’ इत्यादि अनेक गीताओं के उपलब्ध होने से तथा उनकी एक-जैसी पद्धति होने से ही सिद्ध है। और, ऊपर हमने भगवान् के अर्थ तथा स्वरूप पर जो थोड़ा प्रकाश डाला है तथा उसे गीता के कुछ ब्योरों से पुष्ट किया है, उनसे भी यह प्रमाणित है।
पुनश्च, भगवान् शिव चूंकि जिस मनुष्य के तन में प्रविष्ट होते हैं, वही मनुष्य उनके अवतरण काल में ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ और बाद में आसुरी सप्रदाय के महाविनाश के पश्चात् (ज्ञान के फलस्वरूप) श्रीकृष्ण पद पाने पर वही मनुष्य ‘श्रीकृष्ण’ के नाम से जाना जाता है और चूंकि महाविनाश के बाद बहुत-से रहस्य इसी बीच प्रायः लुप्त हो जाते हैं, इसढ़लिए भगवद्गीता के बारे में गड़बड़ होने की सम्भावना तो सुस्पष्ट है ही।
क्या भगवान् शिव और श्रीकृष्ण अभिन्न नहीं हैं?
विषय अधिक विस्तार न पा जाये, इस विचार से हम पहले प्रशन पर अधिक चर्चा न करके अब दूसरे प्रशन पर विचार करते हैं।
कई लोग कहते हैं कि गीता-ज्ञान दाता चाहे भगवान् शिव को मानें या श्रीकृष्ण को, बात तो एक ही है। वे कहते हैं कि – एकोदेवः केशवो वा शिवो। परन्तु केशवः का तो अर्थ ही – बड़े केशों वाला अर्थात् बालों वाला है, इस नाम से ही सिद्ध है कि यह ज्योतिस्वरूप एवं अशरीरी भगवान् का गुणवाचक नाम नहीं है।
दूसरी बात यह है कि तत्व की दृष्टि से अथवा आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी ‘श्रीकृष्ण’ तथा ‘शिव’ एक नहीं हैं। शिव तो ‘रचयिता’ व परमपिता परमात्मा हैं जो कि गीता-ज्ञान द्वारा राज्य-भाग्य देते हैं और श्रीकृष्ण, परमात्मा शिव के गीता-ज्ञान से राज्य-भाग्य अथवा देव-पद प्राप्त करते हैं और उनकी एक ‘रचना’ हैं।
इसलिए शिव तो श्रीकृष्ण के भी पूज्य हैं जैसे कि ‘गोपेश्वर’ के मंदिर से स्पष्ट है। जो लोग सर्व खल्विदं ब्रह्म अर्थात् तत्व एक ही है इस सिद्धान्त में विश्वास रखते हैं, वे वास्तव में भ्रान्ति में हैं। अतः भगवान् शिव और श्रीकृष्ण को एक मानना भूल है। गीता-ज्ञान दाता शिव तो श्रीकृष्ण के भी पिता हैं और गीता तो श्रीकृष्ण की माता है। गीता-पुत्र को, गीता-पति मानना तो एक महान् पाप है जिसके फलस्वरूप ही यह सृष्टि नरकमय बनी है।
क्या गीता के भगवान् को जानना ज़रूरी है?
उपर्युक्त से स्पष्ट है कि सर्वशास्त्र शिरोमणि श्रीमद्भगवद्गीता के भगवान् का यथार्थ परिचय आवश्यक है वरना गीता-पुत्र को गीता-पति मानने जैसा पाप लगता है। इसके अतिरिक्त, आप जानते हैं कि गीता के भगवान् के महावाक्य हैं कि – वत्स, तू मन को मुझ में लगा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त करूंगा; मैं तुम्हें परमधाम ले चलूंगा, इत्यादि।
अतः यदि देहधारी देवता श्रीकृष्ण को गीता का भगवान् माना जाये तो मनुष्य को श्रीकृष्ण से ही योग लगाना होगा और यदि ज्योतिस्वरूप एवं निराकार परमात्मा शिव को गीता का भगवान् माना जाये तो सदामुक्त परमपिता परमात्मा शिव ही को याद करना होगा। परन्तु मनुष्य को मुक्ति और जीवन्मुक्ति का ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार तो एक सदामुक्त एवं कल्याणकारी परमपिता (न कि किसी आत्मा) से ही प्राप्त हो सकता है,
अतः इस बात से बहुत अन्तर पड़ता है! आज मनुष्य को सुख और शान्ति की पूर्ण प्राप्ति न होने का एकमात्र कारण यही है कि वह इन वरदानों के दाता को याद न करके, उन से प्राप्ति करने वालों से ही बुद्धि योग लगाते हैं।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।