युवा जागो और जगाओ (Part 3 : L A S T)

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(भाग 2 का बाकि)

युवक
, तुम्हारे विचार में यदि कोई अध्यापक ठीक नहीं है तो उसका अपमान मत करो। याद रखो कि अपमान से स्थिति सुधरती नहीं, बिगड़ती है। अपमानित व्यक्ति या तो बदला लेने का यत्न करता है या उसके दिल से आह निकलती है और अपमान करने वाला व्यक्ति अपने भीतर की बुराइयों की ओर आँख बंद करके दूसरों की बुराइयों की सूची बनाने और उसके प्रति समाज में ज़हर फैलाने में लगा रहता है।

अत दूसरों के अपमान का कुत्सित कर्म छोड़ कर तुम स्वमान में स्थिति होने का दृढ़ संकल्प करो। हाँ, बुराई का साथ मत दो, परन्तु एक बुराई को मिटाने के लिए दूसरी बुराई कोभी मत लाओ क्योंकि उससे तो बुराई बढ़ेगी ही कम नहीं होगी। अत अपमान रूपी भूल करने से बचो। युवा, तुम स्वयं में भलाई की जागृति लाओ, बुराई को मत जगाओ! किसी का भला नहीं कर सकते तब बुरा तो मत करो।

युवक, परीक्षा के समय यदि कोई  विद्यार्थी किसी दूसरे की नकल करता है अथवा दूसरे को नकल करने देता है तो क्या निरीक्षक, परीक्षक अथवा आचार्य उसे न रोके? क्या वह अपने कर्त्तव्य छोड़कर, देखते हुए भी बुराई को होने दें?

नकल करना बुराई ही तो है। जो नकल करेगा उसका अपना मन भी कचोटेगा। यदि वह किसी को कभी अपना भेद बतायेगा तो वह भेदी हो जायेगा और उसका उसे सदा डर लगा रहेगा और उस दूसरे व्यक्ति पर उसका उल्टा प्रभाव भी पड़ेगा। यदि वह किसी को भी अपना भेद बतायेगा तो उसका यह अनाचार उसे स्वप्न में भी भयावह दृश्य के रूप में उम्र भर कचोटेगा अन्यश्च, ऐसे व्यक्ति को जीवन भर दूसरों के कंधों का सहारा लेने की आदत पड़ जायेगी और वह अपमानित भी होता रहेगा। इस प्रकार एक परीक्षा की असफलता से बचने के लिये नकल करने से अपने जीवन को असफल बनाने का भयंकर परिणाम होगा।

फिर यदि कोई यह सोचता है कि एक बार तो नकल कर लेता हूँ, आगे के लिए नहीं करूँगा तो उसे याद रखना चाहिए कि जीवन में सभी बुरी आदतों का प्रारम्भ ऐसी ही मनोवृत्ति से होता है। पहले-पहल मनुष्य एक ही बार बुरा काम करता है और फिर उसके बाद बुराई की ओर झुकाव होते-होते वह आदत ही का रूप ले लेती है। अत जो निरीक्षक नकल करने से रोकता है, उसे धमकाने या शत्रु मानने की बजाय नकल को ही अपना शत्रु समझो। युवा जागो, इन सभी बुराइयों को त्यागो!

ज़रा सोचो तो सही कि बुराई आती कहाँ से है? बुराई बुरा देखने से, बुरा सुनने से और बुरा पढ़ने से मन में घर कर लेती है। इसलिए ही महात्मा गाँधी तीन बन्दरों की मूर्ति रखते थे जिससे यह प्रेरणा मिलती थी कि मनुष्य को न तो बुरा देखना चाहिए, न बुरा सुनना चाहिए और न ही बुरा बोलना चाहिए।

दूसरे शब्दों में, मनुष्य को बुरा संग और बुराई की ओर ले जाने वाले साहित्य तथा चलचित्रों को देखना छोड़ देना चाहिए। आज के सिनेमा, टी.वी. या वीडियो में ही बुरी बातें देखता और सुनता है तथा नॉवलों में ही कई बुरी बातें पढ़ता है और इनका प्रयोग करने वाले दोस्तों का ही अधिक संग करता है, इसलिए दिनोंदिन संसार में बुराई फैलती जा रही है। अत यदि अपने मन में बुराई का अंत करना चाहते हो तो हिंसक एवं वासना प्रधान सिनेमा देखना और अश्लील नॉवल पढ़ना छोड़ो। ये मनुष्य को बुराई की गोद में सुलाने वाले हैं। युवा, तुम जागो, इनको त्यागो!

परन्तु केवल उपरोक्त विधि से ही नहीं बुराई तो मुख द्वार से भी प्रवेश होती है। जब मनुष्य शराब पीता है और उसके नशे में चूर हो जाता है तो वह अपनी सुधि-बुद्धि गँवा कर अनाप-शनाप बोलता है। वह अपना भी मान गँवाता है और दूसरों का भी अपमान करता तथा उनसे घृणित व्यवहार करता है। न केवल वह धन का अपव्यय करता है बल्कि अपने स्वास्थ्य को भी खो बैठता है।

इसी प्रकार, जब कोई धूम्रपान करता है तो न केवल वह विषैले धुएँ से अपने फेफड़ों को खराब करता है और अपनी श्वास प्रणाली को एक कारखाने की चिमनी की तरह प्रदूषित कर देता है बल्कि वह अपनी मेहनत की कमाई को भी पूँक देता है। धूम्रपान से दर्जन सेभी अधिक विष मनुष्य की भीतर जाकर उसे अस्वस्थता की ओर धकेल देते हैं, यहाँ तक कि मनुष्य को कैंसर तक का भी रोक हो जाता है। यह जानते हुए भी धूम्रपान करना तो अपने विवेक का गला घोंटना है।

इतना ही नहीं बल्कि यह तो दूसरों के स्वास्थ्य कोभी आघात पहुँचाना है क्योंकि सिगरेट आदि के धुएँ से तो पास में बैठे उस व्यक्ति को, जोकि सिगरेट न पीता हो, भी कैंसर का रोग होने की संभावना होती है। फिर, आज जबकि संसार में करोड़ों लोग इतने निर्धन हैं कि उनहें दिन में दो बार किसी का बचा हुआ भोजन भी नसीब नहीं होता है तो पैसे को धुएँ में नष्ट करना एक प्रकार की निर्दयता ही तो है। अत युवक, इस स्वास्थ्यनाशक तथा समाज घातक विष से जग को बचाओ।

धूम्रपान से भी अधिक दयनीय स्थिति उस व्यक्ति की होती है जोकि द्रव्य पान करता है। किसी दोस्त या अपरिचित व्यक्ति के कहने से एक बार जब कोई व्यक्ति द्रव्य पान कर लेता है तो उसका प्राव उसे बार-बार उसका प्रयोग करने के लिए उसके मन में उक्साहट पैदा करता है। गोया वह नशीला द्रव्य मनुष्य के मन को अपना गुलाम बना लेता है।

उक्साहट महसूस होने के समय यदि वह प्राप्त नहीं होता तब भी मनुष्य को बहुत कष्ट अनुभव होता है और उसे खरीदने के लिए मनुष्य का जितना धन लगता है, उससे भी मनुष्य को बहुत दुःख होता है और सबसे बड़ी बात यह है कि यह द्रव्य मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को इतना झकझोर देते तथा उसे इतना निकम्मा कर देते हैं कि जिसका वर्णन कठिन है। अत युवक, कैसी भी मायूसी की परिस्थिति क्यों न आये, कितने भी दोस्त उसके लिए आग्रह क्यों न करें, नशीले द्रव्य को भूलकर भी सेवन न करना।

इन सभी बातों को देखते हुए भी यदि युवक मद्यपान, धूम्रपान या द्रव्यपान करता है तो गोया वह अपने विवेक को मारकर ही ऐसा करता है। वह दूसरों द्वारा यह सुनकर कि इसमें बहुत मज़ा आता है या इसके सेवन से उसे कुछ समय के लिए अपनी दुःखद परिस्थितियाँ, असफलताएं और मायूसियाँ भूल जोयंगी और मित्र होने के नाते भी उसे उनके साथ इनका प्रयोग करना चाहिए, वह उनके कुसंग के परिणामस्वरूप ही पहले पहल इनका शिकार बन जाता है।

अत युवक, यह सोच लो कि जो तुम्हें ऐसे पदार्थों के प्रयोग के लिए आमंत्रित करते, सुझाव देते या तुम पर दबाव डालते हैं वे तुम्हारे मित्र नहीं हैं क्योंकि वह तुम्हें अंधेरी गलियों में, भूल-भूलय्यों में ले जाकर गुमराह कर रहे हैं। अत उन नशीले पदार्थों के साथ उनकी दोस्ती भी छोड़ दो।

मनुष्य को सोचना चाहिए कि इन सभी प्रकार के नशों के सेवन से तो अतुल हानि है और सहज राजयोग द्वारा मनुष्य को जो आत्मिक आनन्द प्राप्त होता है तथा ईश्वरानुभूति द्वारा मनुष्य को जो नारायणी नशा उपलब्ध होता है, उनके सामने ये सभी नशे नहीं टिक पाते।

उनसे मनुष्य का ऐसा उमंग-उत्साह बना रहता है कि वह सभी विषय-परिस्थितियों को पार कर पाता है और मायूसी कभी भी उसके पल्ले नहीं पड़ती तथा यदि ये व्यसन उसे पहले से ही सता रहे हों तो वे उनसे मुक्त हो जाता है। अत युवा, जागो और अन्य युवाजनों को भी जगाओ ताकि देश में इन व्यसनों के कारण युवा वर्ग में यह जो नई बुराई आ गई है और उन्हें अपनी लपेट में लाकर निकम्मा, रोगी तथा निर्धन बना रही है, उससे वे छूट सकें।

माँसाहार से भी मनुष्य में कई बुराईयाँ आती हैं। अपने स्वाद के लिये या उदरपूर्ति के लिये अर्थात् स्वार्थ के लिए वह दूसरों का खून किये जाने के निमित्त बनते हैं। वह जीयो और जीने दो के स्वर्णिम सिद्धाँत को एक ओर रखकर दूसरों के जीने के अधिकार को छीनता है और संसार में हिंसा-प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देता है। न केवल वह पेट को कब्रिस्तान बनाकर मुर्दों को पका कर उसमें दफनाता है बल्कि वह संसार के अच्छे-अच्छे पदार्थों को छोड़कर तामसिक भोजन का सेवन करता है। मन्दिर-सम शरीर में माँस डालकर वह भ्रष्ट भोजन करने की प्रथा का पक्षधर बनता है और कई प्रकार की शारीरिक हानियों को भी न्योता देता है। युवक तुम उस प्रकार की निकृष्ट सामग्री को हाथ भी न लगाओ और संसार के सिर से माँसाहार का अभिशाप मिटाओ।

ऐसी ही एक आदत फ़ैशन की भी है। अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए, उसे लोक-पसंद बनाने के लिए, सुन्दर दिखाई देने के लिये या आकर्षक महसूस कराने के लिए कितने ही युवक-युवतियाँ बनाव, शृंगार साधन या मेक-अप के साधनों का प्रयोग करते हैं, कई प्रकार के बहुत कीमती कपड़ों और वस्तुओं आदि का प्रयोग करते हैं और भाँति-भाँति के रासायनिक पदार्थ काम में लाते हैं।

उन रासायनिक पदार्थों का बाद में चेहरे पर जो बुरा प्रभाव पड़ता है, उससे तो वे अनभिज्ञ होते हैं। वे तो सिनेमा में देखकर या उन पदार्थों के इश्तिहार पढ़कर उनका प्रयोग शुरू कर देते हैं और फिर देखते हैं कि जिस दिन वे उनका प्रयोग नहीं करते, उस दिन उनका चेहरा बदसूरत लगता है। इस प्रकार, एक्टर और एक्ट्रेसिस की नकल करके उनके समान बनावटी सौंदर्य का स्वाँग रचना तो गोया कुत्रिमता को अपनाना और दूसरों को बनावट द्वारा धोखे में डालना रूप बुरी आदत अपनाना है।

अपनी प्राकृतिक सुन्दरता को छोड़ कर बहुत पैसे खर्च करके प्रतिदिन अपने मुख-मण्डल को बिगाड़ना तो गोया प्रकृति के पीछे छोड़कर स्वयं को उससे अधिक कलाकार मानना है। अन्यश्च, बहुत खर्चीली वेशभूषा आदि का प्रयोग करने की आदत डालकर अपने ऊपर ही खर्च का बोझ डालना और फिर उस खर्च को कर सकने की क्षमता प्राप्त करने के लिए रिश्वत लेना, गलत तरीके से पैसा कमाना तथा इन सबके लिये अन्तर्मन की आवाज़ को दबाना, दूसरों की दृष्टि में अपनी इज्ज़त गँवाना तथा उन द्वारा भ्रष्टाचारी कहलाये जाने के लिये भी तैयार होना है।

ज़रा सोचो तो सही कि दूसरों को रुला कर पैसा घर में लाना और फिर उसे इस तरह गँवाने में फायदा क्या है? अत युवक, जागो और दूसरों की देखादेखी तुम कुत्रिमता को मत अपनाओ, अपनी सामर्थ्य से अधिक खर्च मत करो और अपने श्रृंगार के लिए धन को गलत तरीके से कमाने की बुराई मत मोल लो। जन-जन की अन्तरात्मा को जगाते हुए उन्हें बताओ कि सादगी और स्वच्छता ही स्वास्थ्य का आधार है और स्वास्थ्य तथा सद्गुण ही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ श्रृंगार है।

चेहरे पर मुस्कान सर्वश्रेष्ठ पाउडर, आँखों में मासूमियत सबसे अधिक आकर्षण है और शान्ति, पवित्रता, संतोष, नम्रता तथा सरलता ही सबसे श्रेष्ठ सुगन्धियाँ हैं। इसका प्रयोग करने वाला न तो स्वयं देह-अभिमानी बनकर गिरावट की ओर जाता है न वह दूसरों को अपनी प्रकृति की ओर आकर्षित करके उन्हें गिराने के निमित्त बनता है। अत ऐसा ही श्रृंगार करो तो कल्याण के भागी बनेंगे।

इसी प्रकार यदि कोई युवती भी बनाव- श्रृंगार करके, भड़कीले कपड़े पहन कर या शरीर को ठीक रीति से न ढकते हुए मचल-मटक कर बात करती है जिससे कि पुरुषों, विशेष रीति से युवकों का ध्यान उसकी ओर आकर्षित होता है और उसके प्रति वे खिंचावट महसूस करते हैं तो वह भी समाज के पतन के निमित्त बनती है। यहाँ कोई घूँघट करने या बुर्का पहनने के लिये नहीं कहा जा रहा है परन्तु कुत्रिम साधनें का प्रयोग करके या कम ढकने वाले वस्त्रों का प्रयोग करने की आदत के विषय में कहा जा रहा है।

हो सकता है ऐसा करने वाली युवती के अपने मन में कोई भी बुरे विचार न हों परन्तु उनकी यदि ऐसी जीवन-पद्धति से दूसरों के मन में अशुभ, अश्लील या तमोगुणी विचार आते हैं, तब लोक हित को सामने रखते हुए भी इसका त्याग करना चाहिए। ऐसा कर्म करने से क्या लाभ जिससे कि कोई उसके ज़ेवरों को छीनने की बात सोचे, उसके अपहरण की गंदी बात सोचे या अन्य कोई नीच विचार अपने मन में लाये?

अत यधपि हमने इस पुस्तिका में जहाँ कहीं भी युवक शब्द का प्रयोग किया है, वहाँ-वहाँ वह शब्द युवक ओर युवती दोनों ही के लिये है, तो भी हम यहाँ युवती के लिये यह बात अलग से लिखकर विशेषतौर पर उसे सम्बोधित करके कहना चाहते हैं कि -- युवती, तू तो स्वयं ही पवित्रता का स्वरूप है। तेरा नाम ही सादगी है। तू तो संसार में सादगी की चेतन मूर्ति बन, पवित्रता की सजीव प्रतिमा बन। तेरा सही रूप जन-जन के मन में देवी के दर्शन के तुल्य होता है।

परन्तु प्रश्न उठता है कि व्यक्तित्व में निखार कैसे आये? दूसरों पर हमारा प्रभाव कैसे पड़े? हम अन्य लोगों के मन को कैसे जीत लें? हम मद्यपान, धूम्रपान, द्रव्यपान आदि व्यसनों से कैसे छूटें? हम जीवन में असफलताओं और मायूसियों का सामना कैसे करें? हम अनेक प्रकार की चिन्ताओं तथा आकर्षणों के बीच रहते हुए मन को समतल मन कैसे बनाये रखें और एकाग्रता को कैसे कायम रखें?

हम कामोत्तेजक परिस्थितियों के बीच युवावस्था में अपनी शक्ति को कैसे सुरक्षित रखें? संसार में अन्याय को देखते हुए भी हम क्रोध और आक्रोश के ज्वार भाटे का सामना कैसे करें? विशेष बात यह कि हम सत्य का कैसे साक्षात्कार करें?

हम आत्मानुभूति और परमात्मनुभूति का सौभाग्य कैसे प्राप्त करें? आज संसार में अनेकानेक पंथ और वाद हैं, उन सभी के होते हुए हम कैसे जानें कि किधर जायें? हम अपने प्रश्नों का तर्क-संगत हल कैसे पायें तथा वैज्ञानिक रीति से उनकी व्याख्या कहाँ से प्राप्त करें? हम अपने संवेगों का नियंत्रण कैसे प्राप्त करें और जीवन में सफलता तक कैसे पहुँचें?

युवा वर्ग के बहनो और भायो, उसके लिये सहज ईश्वरीय ज्ञान और सहज राजयोग तथा दिव्य गुणों की धारणा ही एक सार्वभौम जीवन दर्शन है जो इन सभी प्रश्नों का एक साथ समाधान करता है। दो-चार दिन आज़मा कर देखो। फिर उसके बाद तुम स्वतंत्र हो। युवा, जागो और जाग कर इसे प्राप्त करो वर्ना वक्त हाथ से निकलता जा रहा है।

जागो, युवा जागो

जलते हुए अँगारों में तुम्हें शीतल जल बरसाना है

जागो युवा जागो, ज़रा खोलो अपनी आँखें,

तुम्हें सारे जग को जगाना है.....

देख ज़रा क्या कह रहा है, धरती की आँख का पानी

आह भरे गीत गाती है, शिव के बच्चों की कहानी

आँसू भरे इन आँखों में, तुम्हें खुशियाँ भरके जाना है

जलते हुए अँगारों में.....

उलझनों में उलझता मानव, उसको देना आत्म ज्ञान

पीड़ित औरसिसकता हर मन, तू कर उसको करुणा दान

मुरझाये चेहरों पे, तुम्हें मुस्कुराहट लाना है

जलते हुए अँगारों में.....

छूट गया है दामन, इनसे, सुखों भरे संसार का

खो गया नज़रों से जिनके, सागर वो कहीं प्यार का

उस सागर का ज्ञान अमृत, जन-जन को पिलाना है

जलते हुए अँगारों में.....

युवा तू बन सर्व महान्, तू है सारे जग की शान

युवा बदलेगा तो युग बदलेगा।

(समापत)


प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।

आपका तहे दिल से स्वागत है।

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