प्राय: मौन का अर्थ लोग वाणी के विराम से लेते हैं, परन्तु मौन की यह सारगर्भित परिभाषा नहीं है। यदि मन में संकल्पों की आँधी चल रही हो, विषय-वासना, ईर्ष्या-द्वेष का ताण्डव चल रहा हो और बाहर जुबान बन्द हो तो क्या उसे आप मौन की संज्ञा देंगे? वास्तव में मौन की यह स्थिति खतरनाक हो सकती है। यदि एक प्रेशर-कुकर को जलते चुल्हे पर रख दें, अन्दर पानी उबल रहा हो और बाहर सेल्टी वाल्ब जाम हो जाए है तो क्या होगा?
प्रैशर-कुकर फट जाएगा और उससे भयंकर नुकसान हो सकता है। ऐसी ही स्थिति उन व्यक्तियों की भी होती है जिनका मुँह तो बंद रहता है मगर मन में तूफान होता है। इस मौन को `मौन' नहीं कहा जा सकता। मौन की सार्थकता तो शुभ-चिन्तन, प्रभु-चिन्तन, सकारात्मक चिन्तन और सद्गुणों के चिन्तन में है।
``बाह्य मौन से कोई आन्तरिक शान्ति नहीं पा सकता चाहे युगों तक वह मौन क्यों
न हो''।
-- नानक देव
मौन धारण करने मात्र से कोई अविद्वान मूढ़ मुनि नहीं हो जाता। जो पंडित मानों श्रेष्ठ
तुला लेकर दोनों लोकों को तौलता है और पाप को छोड़ देता है, वह इस कारण मुनि है और मुनि कहलाता है।
-- महात्मा बुद्ध
निरर्थक बोलने से मौन अच्छा है। मौन से श्रेष्ठ सत्य बोलना है और इससे भी श्रेष्ठ
सोच-विचार कर प्रिय एवं धर्म संगत बोलना है।
-- वेदव्यास
मौन की उपयोगिता तो विचारों की शान्ति तथा हृदय में इच्छाओं-लालसाओं की समाप्ति में हैं। तृष्णाओं और कामनाओं पर विजयी होने में ही मौन का महत्त्व है। अर्थहीन घण्टों बातचीत करने से तो कई गुणा अच्छा है मौन रहकर मात्र एक मिनट सारगर्भित बोलना। मौन का इतना ही मतलब है, जहाँ दुर्गुण और दुर्व्यसन, अहंकार और स्वार्थी वृत्तियों का लेशमात्र न हो, ताकि वे आन्तरिक भावनाओं को शान्त, निर्मल और निसंकल्प बनाने में सहयोग प्रदान कर सकें।
इस तरह मौन का सर्वांगीण आशय इन वाक्यों में ज़्यादा
श्रेयस्कर लगेगा -- जहाँ वाणी खो गई हो, जहाँ विचारों और भावों की समस्त बदलियाँ चित्त के आकाश से विलीन हो गई हो,
जहाँ चेतना का सूर्य अपनी शाश्वत शान्ति, शक्ति
और आनन्द की आभा से ज्योतिर्मय हो। चित्त की इस अकम्प दशा में आत्मा अपने ही स्वरूप
में अंतर्लीन हो, यही तो मौन है।
मौन, एकान्त और वाणी में घनिष्ठ सम्बन्ध
एकान्त
+ सृजनात्मकता = तल्लीनता, सफल और भव्य जीवन
एकांत का अभिप्राय है, जहाँ कोई शोरगुल और कोलाहल न हो, जहाँ मनुष्य द्वारा निर्मित कोई भी कृत्रिमता न हो, जहाँ
मन और इन्द्रियों की पुरानी आदतों को उत्तेजित या प्रेरित करने वाला कोई भी निमित्त
न हो। ऐसे शान्त उपवन, पहाड़ या सरोवर के तट को एकान्त कहा जा
सकता है। साधारणत ऐसे वास को एकान्तवास कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। थोरो
ने कहा -- ``एकान्त से बढ़कर कोई मिलनसार साथी नहीं''। निश्चित ही एकान्त से अच्छा कोई मित्र नहीं, परन्तु
तब जब आपका मन भी मित्रवत हो।
``एकान्त भगवान से मिलन कराता है''।
-- सर्वियन कहावत
``जो एकान्त सेवन नहीं कर सकता, वह कभी भी सोसायटी का स्वाद
नहीं ले सकता''।
-- फेरवेने
जिस प्रकार इच्छा, कामना और आंसू जुड़वा बहने हैं उसी तरह एकान्त, मौन और वाणी भी जुड़वा भाई हैं। इनके अयास में अन्योनाश्रय सम्बन्ध हैं। दिन के महत्त्व पर प्रकाश डालने के लिए जिस प्रकार रात की व्याख्या प्रासंगिक है सफेद चाक के लिए श्यामपट्ट (ब्लैक बोर्ड) प्रासंगिक है, उसी तरह जीवन के लिए मौन और वाणी दोनों में गहरा अन्तर सम्बन्ध है, इसकी व्याख्या भी प्रासंगिक है।
दोनों ही जीवन की महत्ता
से गहरी जुड़ी है। मौन और एकान्त यदि जीवन की पाठशाला है तो वाणी उसकी रंगशाला। मौन
और वाणी की व्याख्या एक-दूसरे से ओतप्रोत है जो पूरे लेख में
जीवन और जगत के विषय में समानान्तर यात्रा करती रहेगी।
समस्त प्रतिभाओं का अजस्त्र स्त्रोत है
-- मौन
मौन और एकान्त आत्मा के सर्वोत्तम मित्र हैं।
-- विनोवा भावे
चींटी से अच्छा कोई उपदेश नहीं देता और वह मौन रहती है।
-- फ्रेंकलिन
मौन के वृक्ष पर शान्ति के फल लगते हैं।
-- लोकोक्ति
मौन आत्मा का शृंगार है, यह जीवन की दिव्य आभा है। मानव जीवन में जो भी उच्चतम और श्रेष्ठतम है उन समस्त प्रतिभाओं की अभिव्यक्ति और अभिबुद्धि मौन-शक्ति का ही जादुई परिणाम है। यदि आप जीवन-जगत के सभी रहस्यों के गूढ़ और सत्य पहलुओं का साक्षात्कार करना चाहते हैं तो स्वयं मौन हो जाईए। आप यह जान जायेंगे कि जिन-जिन महापुरुषों ने अपने महान् जीवन उद्देश्यों को पा लेने में सफलता हासिल की और उन उपलब्धियों को जन-कल्याण हेतु समर्पित कर दिया, उसके लिए जिस असीम सामर्थ्य की आवश्यकता थी वह उन्होंने इसी मौन और एकान्त के सेवन से पाया था।
महान् करुणा से निकले उनके वचन शाश्वत, अविनाशी, गौरवपूर्ण, मंगलमय, प्रेरणास्पद और चिर-नूतन बन गये। जिन्होंने भी इतिहास रचा वे प्राय वाणी में विनम्र तथा कर्मों में प्रचण्ड सामर्थ्य के धनी हुआ करते थे। जिन्हें युगों तक याद किया जाता रहेगा वे सभी मौन की गहराईयों से ही प्रगट हुए थे। चाहे वह धर्म हो, अध्यात्म हो, विज्ञान हो, कला हो या संस्कृति।
उन सभी नूतन और दिव्य भावों, विचारों
और दर्शनों के अवतरण और आविष्कार एकान्त और नीरव मौन में ही सम्भव हुए थे। मौन की गहराई
से अवतरित वे सत्य वचन आज भी इतिहास के पृष्ठों पर ज्योतिर्मय और कालातीत हैं। आज भी
वे उतने ही प्रासंगिक हैं जितने दो-ढाई हज़ार वर्ष पहले थे। बुद्ध, महावीर, जरथुस्थ, लाओत्सो,
क्राइस्ट इत्यादि अनेकों इसके उदाहरण हैं।
महावीर बाहर वर्ष मौन रहे, बुद्ध ने छ: वर्ष मौन की साधना की, लाओत्सो से मौन में ही महानताओं (सर्वोच्च सत्ता) का साक्षात्कार किया था। जीसस थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल पर अपने शिष्यों को छोड़कर एकान्त और मौन के लिए पहाड़ पर चले जाया करते थे। जिस अति मानसिक चेतना के अवतरण का अनुभव महान् योगी श्री अरविन्द ने किया, वह मौन का प्रतिफल ही था।
सन् 1926 से सन् 1950 तक के अंतिम परिनिर्वाण काल तक प्राय वे एक ही जगह मौन रहा करते थे। सूक्ष्म द्रष्टा पुरुष ही उनके इस मौन अनउदात्त को जानते थे। रमण महर्षि अक्सर मौन ही रहा करते थे। उनके सानिध्य से ही लोगों को `स्व' का बोध हो जाया करता था। महान् अंग्रेज कवि वड्सवर्थ घण्टों एकान्त में मौन होकर प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य को, उसकी अद्भुत सृजन डैफोडिल्स (फूल) को निहारते-निहारते आनन्द मग्न हो जाया करते थे।
अपनी अपूर्व रचना का सारा श्रेय वे मौन को ही देते थे। मौन के महान् उपासक राष्ट्रपिता बापू ने जिस विशाल अंग्रेज़ी साम्राज्य की नींव उखाड़ फेंकी वह मौन के बलबूते पर ही तो आधारित थी। उन्होंने मौन के महत्त्व की भूरि-भूरि प्रशंसा की और इसे जीवन में उतार कर लोगें को बताया कि इसके सेवन से कितना प्रबल और कालजयी आत्म-तेज़ पैदा किया जा सकता है।
लोग कहते हैं कि भारत के अखंड
और शक्तिशाली भविष्य की नींव रखने वाला तक्षशिला के आचार्य विष्णुगुप्त भी मौन और एकान्त
के उपासक थे। उसी मौन के महात्म्य से जिस अद्भुत ज्योतिर्मय व्यक्तित्व का जन्म हुआ,
उसका नाम पड़ा था -- चाणक्य। जिनसे महान् सिकन्दर को
भी मुँह की खानी पड़ी थी।