जीवन में मौन का माधुर्य (Part 4)

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(भाग 3 का बाकि)

सभी इन्द्रियों की खामोशी मौन के लिए अर्थपूर्ण है

मौन के लिए होठ का बन्द होना ही काफी नहीं है। दूसरी अन्य इन्द्रियाँ भी बन्द हों तो अच्छा है। जैसे आँख को ही लीजिये। मुख के बाद सबसे ज़्यादा आँख ही बोलती है। जो नैनों की भाषा जानते हैं वे अपने समस्त अन्तर भावों को इसी माध्यम से बोल देने में सक्षम हैं। नयनों का संकेत भी मनुष्य के बोलने का एक माध्यम है और उन इशारों में मनुष्य प्रेम भी प्रगट कर देता है तो घृणा भी।

यदि आपको कुछ चाहिए और वह चीज़ आपके सामने हो तो बस उस पर अपनी आँखें गढ़ा दीजिए। बोलने की ज़रूरत नहीं। सामने वाला समझ जायेगा कि आपको क्या चाहिए। क्रोध प्रगट करना हो तो आँखें तरेर दीजिए, बस आपने काफी क्रोध प्रगट कर दिया। क्रोध, काम, लोभ, शत्रुता, मित्रता, उपेक्षा और न जाने क्या-क्या, आदमी इन्हीं आँखों के इशारे से बहुत कुछ प्रगट कर जाता है।

हाथ से भी बहुत इशारे हो सकते हैं। शरीर भाषा विशेषज्ञ (बॉडी लैंग्वेज) जिन्होंने पश्चिम में इस पर बहुत खोज की है, उनका कहना है कि आदमी के उठने-बैठने और चलने के ढंग से भी बहुत कुछ पता चल जाता है। आपकी यथार्थ पहचान आपके सजीले पोशाक से कहीं अधिक आपके बोल और भाव भंगिमा से होती हैं। कई लोग कान से ही नहीं अपितु आँख से भी सुन लेते हैं।

आपके होठों के कम्पन से वे यह बता देंगे कि आप क्या बोल रहे हैं। अब देखिए, ऐसे लोग भी हैं जो स्पर्श के माध्यम से रंग तक बता देते हैं। बिथोबन कान के बहरे थे, परन्तु सारा संसार जानता है कि उन्होंने कितनी अद्भुत धुनों का योगदान संगीत जगत को दिया। ध्यान की समस्त मुद्राओं का विकास इसी बाडी लैंग्वेज को दर्शाता है। मतलब जिन्हें मौन की गहराई में प्रवेश करना हो वे व्यर्थ न बोले, न कि मात्र जबान से, परन्तु सभी इन्द्रियों से भी।

व्यर्थ वाणी से नुकसान इतना अधिक होता है कि जिसकी क्षतिपूर्ति कई बार असम्भव हो जाती है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ``प्रतिदिन हमारी बुद्धि पर लाखों संस्कारों का प्रभाव पड़ता रहता है''। इसलिए लोगों को इसे स्वच्छ बनाने के लिए व्यर्थ संकल्प रूपी भोजन से परहेज करना ज़रूरी है। जन्मों की लम्बी यात्रा के कारण हमारे मन पर प्याज के परत की तरह व्यर्थ विचारों की, संस्कारों की परत-दर-परत जमी है।

बुद्धि व्यर्थ के कचरे से लदी हुई है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं इस छोटे-से मस्तिष्क में कोई छ-सात अरब कोशिकायें हैं और एक-एक कोशिका में करोड़ों संस्कार इकट्ठे किये जा सकते हैं। सारी दुनिया का ज्ञान एक आदमी की बुद्धि में समा सकता है। इन इकट्ठी संस्कारों की धूल की परतों के कारण आपकी प्रतिभा का आलोक कहें या आत्मा का मूल संस्कार कहें वह ढका हुआ है, उसे हटाना पड़ेगा, इन परतों को तोड़ना पड़ेगा। इसलिए मननशील साधक को चाहिए कि मौन की साधना में कुछ दिन के लिए उतर कर योग का स्नान करे और अपनी बुद्धि को स्वच्छ एवं निर्मल बना दे।

इसलिए सफल व्यक्तित्व के निर्माण में मौन का इतना अधिक महत्त्व है। मौन का मतलब है बाहर और भीतर के व्यर्थ का बोलना बन्द हो जाये। क्योंकि बोलने में मन और बुद्धि का बहुत हाथ है। बहुत से संस्कार मन-बुद्धि प्रतिपल जमा करती रहती है। यदि कोई व्यक्ति एक ही बात को बार-बार बोलता है या अखबार पड़कर व्यर्थ बातें दूसरों को सुनाता है, तो इसका इतना ही नुकसान नहीं होता कि उसका टाइम व्यर्थ हो रहा है, बल्कि वह दूसरों की बुद्धि में भी गलत संस्कारों का कचरा भर रहा है।

अगर कोई व्यक्ति अपने सारे दिन के बोल का विश्लेषण करें तो वह पायेगा कि उसमें से 90 प्रतिशत तो मात्र व्यर्थ ही था, जिसे नहीं बोलते तो काम चल जाता। हमेशा यह ख्याल बना रहे कि जिन बातों को बोलने से किसी का कोई लाभ नहीं होने वाला है तो उससे हानि निश्चित है। जितना अनिवार्य हो, जहाँ बिना बोलें नहीं चला जा सकता, उतना ही तौलकर बोलें। आपके सामने कोई कितना ही व्यर्थ बोले, लेकिन आप व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन कर दें। 

व्यर्थ को अपनी बुद्धि में स्वीकार नहीं करें। अगर एक भी व्यर्थ बोल आपने स्वीकार कर लिया तो एक व्यर्थ अनेक व्यर्थ को जन्म देगा। आप एक भी व्यर्थ बोलेंगे तो उसे सिद्ध करने के लिए अनेक बोल बोलने पड़ेगे। दुनिया में बड़ी शान्ति और सुख फैल जाये यदि आदमी व्यर्थ के बोल को बोलकर झंझट न पैदा करें। हमेशा आप बोलकर फंसते हैं (हमेशा ऐसा नहीं होता) क्योंकि फिर दूसरा जवाब भी देता है। उपद्रव से बचने के लिए वापस हमें फिर से बोलना पड़ता है और इस तरह जीवन में बोलने का एक दुश्चक्र पैदा हो जाता है।

 

जितना बोलना उचित है उतना ही बोलना श्रम साध्य माना गया है। सार्थक और चमत्कार भरे वचन को भी अधिक बोलना उचित नहीं।

-- विदुर

जो अधिक बोलता है, वह पाप करता है।

-- टालमड

सच्चा एकान्त कब हो! जब ओछे और निम्न जीवन से परे हो जाओ।

-- जुन्नन

बाहरी एकान्त वास्तविक एकान्त नहीं है, मौन में चिन्ता और शंका का प्रवेश न हो।

-- आविस

 

एकान्त और मौन का महत्त्व

w मौन में असीम शक्ति है। मौन व्यक्ति स्वाभाविक रूप से शक्तिशाली होता है। उत्तेजनात्मक प्रतिक्रिया का महौल पैदा होने पर भी प्राय वे अपनी शान्ति, सभ्यता, शालीनता और सहानुभूति नहीं खोते हैं।

w मौन और शान्ति से वे सभी आन्तरिक शक्तियाँ बढ़ती और सुरक्षित रहती हैं, जिसका उपयोग बुद्धिमान मनुष्य रचनात्मक कार्यों में उपयोग कर समाज और स्वयं का कल्याण करते हैं। वाणी के संयम का यथार्थ नियत्रण मानसिक संतुलन और बुद्धिमानी से शुरू होता है, जो सिर्फ मौन के अभ्यास से ही सम्भव है।

w वे लोग जिन्होंने अपने जीवन का महान् उद्देश्य निर्धारित कर लिया है, उन्हें ज्ञान, गुण और आन्तरिक शक्तियों की अत्यधिक ज़रूरत पड़ती है और इस ज़रूरत की पूर्ति बिना मौन और एकान्त के सम्भव ही नहीं है।

w मौन के महान् उपदेशक महात्मा बुद्ध वाद-विवाद के समय अक्सर मौन हो जाया करते थे। स्वामी विवेकानद जी कहा करते थे -- ``किसी बात पर वाद-विवाद बढ़ा कि मन का संतुलन नष्ट हुआ''

w कहावत प्रसिद्ध है -- ``भौंकने वाला कुत्ता कभी काटता नहीं'', ``गरजने वाले बादल बरसते नहीं'', ``जहाँ नदी गहरी होती है वहाँ प्रवाह शान्त होता है''। महान् शक्तियों के स्वर प्राय मंद होते हैं, इसलिए शक्तिशाली व्यक्ति का पहला लक्षण होता है -- धीरता, गम्भीरता।

w मौन ही व्यक्ति का सबसे बड़ा शिक्षक है। वह दूसरों द्वारा स्वयं की निन्दा, टीका-टिप्पणी सुनकर भी मौन रहकर उन लोगों को अपनी गलती का अहसास करा देता है।

w मौन महान् इसलिए भी है कि उसमें न सिर्फ मानसिक शक्तियों का संयम होता है, बल्कि शारीरिक शक्तियों की भी बचत होती है। ज़्यादा बोलने वाला कई बार अपने को थका हुआ और कमज़ोर महसूस करता है, जैसे चली हुई खाली कारतूस। जबकि मौन वाला व्यक्ति अपने को उसकी तुलना में स्वस्थ और शक्तिशाली महसूस करता है। जिस प्रकार पर्वतारोही के लिए उस काल में मौन रखना महत्त्वपूर्ण माना जाता है ऐसा ही कुछ सफल जीवन के गौरीशंकर पर पहुँचने के लिये भी मौन का यह गुण धारणीय है। क्योंकि यह उसके संकल्पों के अनुशासन का परिणाम है।

w मौन व्यक्ति संसार रूपी सागर के कोलाहल के बीच अपने अन्दर उस शान्त और एकान्त द्वीप का निर्माण कर जब चाहे भीड़ और बाजार से निकल कर वहाँ आसीन हो, शान्ति और आनन्द का मधु रसपान कर                लेता है।

w जिस प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य के लिए संतुलित भोजन और गहन निद्रा की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के लिए सम्यक विचार, निसंकल्पता, मौन और एकान्त आवश्यक है।

w जब बाह्य भौतिक सुख मृगतृष्णा साबित हो, सभी सुख छलाव लगे, नये मित्र, नई उत्तेजनाएँ, सुख के नये प्रलोभन में, जब लेश मात्र भी सच्चा सुख व आत्मिक विश्रान्ति नहीं मिले, तब मनुष्य के पास जो एक मात्र सहारा बचता है, वह है -- मौन और एकान्त। एकान्त और मौन आत्मिक शान्ति का वह निर्मल निर्झर है जिसकी एक बूँद से ही जन्मों की लालसाओं और तृष्णा रूपी संचित हलाहल का प्रभाव क्षणभर में नष्ट हो जाता है।

w मौन और एकान्त ऐसे अनेक चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता रखते हैं? जिससे व्यक्ति अनेक विषम परिस्थितियों में भी अपनी बौद्धिक क्षमता का विकास कर सफलता हासिल कर लेता है।

w जिन महापुरुषों ने एकान्त की महना को स्वीकारा है वे जानते हैं कि जब मनुष्य भौतिक उत्तेजनाओं से विवेकशून्य इन्द्रियसुख-भोग से त्रस्त होकर थक जाता है, हताशा, निराशा, उदासी और अनेक मानसिक विकृतियों के भंवरकूप में फंस जाता है, तो उसे फिर से इसी अमृत औषधि, एकान्त और मौन का सेवन करना चाहिए। यही वह रामबाण औषधि है, जो उसे फिर से नूतन शक्तियों से भर देगा।

w एकान्त और मौन के बदौलत ही व्यक्ति अनेक अदृश्य और अव्यक्त शक्तियों जैसे विचार-शक्ति, इच्छा-शक्ति, क्रिया-शक्ति, सहन और परखने की शक्ति, एकाग्रता की शक्ति इत्यादि प्राप्त कर जीवन की अनेक उच्चतर सम्भावनाओं के द्वार खोल देते हैं।

    w एकान्त और नीरव मौन में ही प्रत्येक व्यक्ति अपनी वास्तविकता का साक्षात्कार कर सकता है क्योंकि जीवन में अन्तहीन तृष्णाओं और लालसाओं के परस्पर विरोधी स्वर इतने तीव्र होते हैं कि आत्मा का वास्तविक मंद स्वर सुनाई ही नहीं पड़ता है। जीवन में उच्चतम शक्तियों के स्पन्दन मृदुल और मंद होते हैं। यदि उसे महसूस कर जीवन के धरातल पर प्रगट करना हो तो नीरव मौन और एकान्त का अभ्यास अपरिहार्य हो जाता है।

शेष भाग - 5


प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।

आपका तहे दिल से स्वागत है।
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