जीवन में मौन का माधुर्य (Part 2)

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(भाग 1 का बाकि)

जुवाँ की खामोशी दिल को चैन देती है

जिह्वा का जितना संचालन बहुधा हम करते हैं काश! उतना यदि अपने हाथों और पैरों का करें तो न जाने भाग्य की रेखा कितनी लम्बी हो जाए। मौन के माधुर्य से आपका जीवन भरा रहे इसके लिए जीवन में खामोशी के हुनर में काबिलियत हासिल करना भी निहायत ज़रूरी है। वास्तव में इंसान को उतना ही बोलना चाहिए जितना अत्यन्त आवश्यक है। जिसे बोले बिना बिल्कुल ही काम नहीं चले, उतना ही संक्षिप्त बोले जैसा कि टेलीग्राफिक भाषा।

पूरे दिन के प्रयोग के बाद आप एक निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि जो नहीं बोला गया उसमें से 80 से 90 प्रतिशत तक निरर्थक ही था। यदि 10 शब्द के बदले में एक शब्द से काम चल जाता है तो हमें उतने से ही काम चला लेना चाहिए। जो एकान्त का उपासक नहीं वह दूसरों की उपासना काल में अनावश्यक हस्तक्षेप करता है। आपके बोल गिनती के हों, प्रेरणा के हों, उमंग-उल्लास पैदा करने वाले हों, परन्तु निरर्थक कदापि नहीं बोले तो बहुत अच्छा होगा।

डण्डे और पत्थरों से तो हड्डियाँ टूट कर रह जाती है, परन्तु शब्दों से तो प्राय दिल और रिश्ते ही टूट जाते हैं। आपके बोल में मधुरता, संतुष्टता और सरलता की नवीनता हो, व्यर्थ भाव से परे अव्यक्त भाव वाला हो, दिल का चुभोने वाला अपशब्द बोल के बदले सदा शुभभावना वाला मूल्यवान बोल हो। बोल में सत्यता और सभ्यता का संतुलन हो तब ही आपके बोल हीरे-मोती से भी अधिक मूल्यवान तथा महिमा योग्य माने जायेंगे।

इस जहान में शब्दों के प्रयोग का वास्तविक हकदार वही है, जो खामोशी की भाषा जानता हो। श्री अरविन्द के आश्रम की श्री माँ हमेशा कहा करती थी कि -- ``यदि कोई व्यक्ति 7 दिन गंभीरता में बिताए तभी वह एक घण्टा सार्थक बोलने योग्य माना जा सकता है और यदि उसे एक दिन बोलना है तो उसे एक वर्ष मौन में व्यतीत करना चाहिए''। अधिक बोलने वाले, अनर्गल प्रलाप करने वालों पर से प्राय सभी लोगों का विश्वास हट जाया करता है।

ऐसे लोग स्वत ही वाचाल की संज्ञा से जानें जाते हैं। अपशब्दों के प्रयोग का इतना ही अर्थ है कि आपके पास सही शब्द प्रयोग करने की समझ का अभाव है। वाचालता विनाशक है, मौन में बड़े गुण हैं। महान् विचारक पास्कलन ने कहा कि -- ``अगर दुनिया में लोग थोड़ा चुप रहें तो 70 प्रतिशत झंझट समाप्त हो जायें''। आपसी झगड़े को समझौते से मिटाया जा सकता है, परन्तु उसका मूल कारण वाणी के साथ ऐसा करना असम्भव है। यदि सामने वाले कि क्रोधाग्नि बुझाना चाहते हैं तो आप उस पर मौन और शांति का जल डाल दीजिए। एक पल का यह उपाय आपको और सामने वालों को दिन, महीनों और वर्षों तक उस जलन वाली पीड़ा से बचा देगा।

इतिहास साक्षी है, दुनिया की बहुत सारी मुसीबतें, युद्ध, उपद्रव बोलने के कारण ही पैदा हुए और आज भी पैदा हो रहे हैं। अक्सर आदमी बोलकर मुसीबत मोल ले लेता है और बाद में पश्चाताप करते हुए यही सोचता है काश! चुप रह जाते तो कितना अच्छा होता। चुप्पी जिह्वा पर नियंत्रण स्थापित करती है। जैसे ही वाणी बेलगाम हुई नहीं कि उसके भयंकर दुष्परिणाम सामने प्रगट हो जाते हैं। कटु व्यवहार और कटुतापूर्ण वाणी अनेक बार भीभत्स परिणाम लेकर फैलती है। नंद ने चाणक्य का उपहास नहीं उड़ाया होता तो मगध सम्राट नंद का समूल नाश न होता। यदि द्ऱौपदी ने दुर्योधन का अपमान नहीं किया होता तो उसका चीर हरण नहीं होता।

 

जब हम कहीं अपमानित होकर तिलमिलाते हैं तो अत्यन्त कष्ट का अनुभव करते हैं और हज़ार बार अपमानित करने वाले को नष्ट करने की शपथ खाते हैं, परन्तु हमारी मूर्खता तो देखिए कि हम फिर भी दूसरों का अपमान करना नहीं छोड़ते हैं।

-- अगस्त्य

वाणी की तुलना में मौन रहना अधिक प्रमाणिक है

समाज में ऐसे बहुत से मौके पर आप पाएंगे कि ईमानदारी से बोलना और प्रमाणिकता दोनों असम्भव सा लगने लगता है। क्योंकि जैसे ही हम बोलना प्रारम्भ करते हैं, दूसरा तक्षण महत्त्वपूर्ण हो जाता है। लोकाचार, शिष्टाचार, सभ्यता और न जाने कितनी मर्यादाओं के बन्धन को निभाने में आदमी वाणी की शुद्धिता और प्रमाणिकता को खोने लगता है, जो सामने वाले को प्रिय और रुचिकर लगे, वे ही बोल फैल कर परचिन्तन और प्रदर्शन के रूप में वाणीदोष बनकर चरित्र को कलुषित कर देता है। भूल हुई, कृपया माफ करें, इस तरह के शब्दों का प्रयोग मौन पुरुष नहीं के बराबर ही करते हैं।

मौन इसलिए प्रमाणिक होता है कि वहाँ आपके सिवाय दूसरा कोई भी नहीं है। इसलिए वहाँ झूठ बोलने की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती है। बोलने में झूठ और सच का प्रश्न उठ सकता है। मौन तो सच्चा है, प्रमाणिक है। जैसे ही चेतना पर खामोशी छाने लगती है, वह भीड़ में एकान्त का अनुभव करने लगता है। अब तो भरे बाजार में भी उसे हिमालय की नीरवता का बोध प्रारम्भ हो जाता है। इसलिए दिव्य और सृजनात्मक विचारों में समाहित व्यक्ति कभी भी अकेला नहीं हो सकता है।

जो व्यक्ति मौन की कला सीख लेता है उसे पहाड़, निर्जन नदी, तट या वन में जाने की ज़रूरत नहीं रह जाती है। वह अपने आप में डूबकर ही सत्य के उस प्रमाणिकता के संसार को पा लेता है। हज़ारों लोगों को खुश करना, संतुष्ट करना, ऐसा सोचने वाला बहुत बड़ी उलझन का जाल पैदा करता है और उसी में फंस कर रह जाता है। जगत में इतना झूठ, धोखा और पाखंड का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है। साधारण लोग और महापुरुषों में जो सबसे बड़ा अन्तर है, उसमें मौन और एकान्त का ही महत्त्व है।

प्राय साधारण लोग और महापुरुषों में जो सबसे बड़ा अन्तर है, उसमें मौन और एकान्त का ही महत्त्व है। प्राय साधारण लोग भीड़ का जीवन जीते हैं इसलिए उनके जीवन में एक उथलापन-सा रह जाता है कोई गंभीरता नहीं रह जाती। जबकि मौन और एकान्त का जीवन व्यतीत करने वाला जीवन में गुणों की ऊँचाई और अनुभवों की गहराई पा लेता है और महापुरुष कहलाता है। यदि निद्रा की विवशता मनुष्य की नहीं होती तो वह 24 घण्टे ही बोलता रहता। मनुष्य के सतत् बोलने की इस आदत को देखकर ऐसा लगता है कि शब्दों से उसका छुटकारा पाना असम्भव-सा है।

यदि कोई एक बार भी मौन के सागर में गोता लगा ले फिर उसके अनुभव में एक गहराई आ जाये। उसे ऐसा अनुभव होने लगता है जैसे किसी ने उसके प्राणों की मन्द हो रही ज्योति को थोड़ा प्रज्वलित कर दिया हो, हृदय वीणा पर शान्ति के स्वर गूंजने लगे हों, रोम-रोम अभूतपूर्व आनन्द से भर गया हो। इसी मौन से आत्मा को दिव्य शक्तियों का पोषण मिल जाता है।

निरन्तर बोलने की आदत के पीछे क्या कारण है?

मनुष्य के सतत् बातचीत के पीछे कई कारण हैं। उसका बोलना कभी डायलॉग होता है तो कभी मोनोलोग होता है। मनुष्य बिना बोले रह ही नहीं सकता। साधारणत दैनिक जीवन में उसका बोलना --

w उसकी आदत हो सकती है।

w उसकी बेचैनी या मज़बूरी हो सकती है।

w उसका बोलना अनेक तरह की इच्छाओं, कामनाओं और वासनाओं की विवशता के कारण भी हो सकता         
है
--

w किसी कार्य के प्रति उत्तरदायित्व या अन्य कार्य की आवश्यकता के कारण भी वह बोल सकता है।

w करुणावश दूसरों को परामर्शदाता के रूप में भी उसका बोलना सम्भव है।

प्राय लोग दो कारणों से बोलते हैं। पहला कामना या वासना के वश बोलते हैं जबकि दूसरा (महान् आत्माएं) करुणावान होकर बोलते हैं। पहले का बोलना उसकी विवशता है जबकि दूसरे का चुप रहना उसकी विवशता है। पहला बोले बिना नहीं रह सकता जबकि दूसरे की वाणी मौन की गहराई से प्रगट होती है। रास्ते चलते आपका मित्र आपको मिल जाये और आपसे हेलो, हाय नहीं करे अर्थात् बोले नहीं तो हो सकता है आप अपने को उस मित्र द्वारा तिरस्कृत अनुभव करें, बिना यह सोचे कि नहीं बोलने के पीछे उसका कोई कारण या फिर उसकी विवशता हो सकती है।

हो सकता है कि वह इन दिनों मौन का प्रयोग कर रहा हो। इसलिए बिना बोले ही उसने नैनों द्वारा मौन में ही अपने प्रेम का भाव सम्प्रेषित कर दिया हो और आपने उसकी मौन भाषा को नहीं समझा हो। मौन स्वागत-सम्मान हो सकता है, परन्तु आज मनुष्य की सभ्यता की बदकिस्मती ही कहेंगे कि वह उस अपूर्व मौन की भाषा को समझने का सामर्थ्य खोता जा रहा है। जैसे आदर-अनादर, सम्मान-अपमान, ईर्ष्या-प्रेम इत्यादि। मौन स्वागत भी हो सकता है और उत्तर भी। कुछ प्रश्नों का तो मौन ही उत्तर होता है।

कई बार तो मौन स्वीकृति का लक्षण समझा जाता है। उच्चतम मानवीय और आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना करने के लिए लोगों को, यही समझना पर्याप्त नहीं है कि कहाँ कब और क्या बोलना चाहिए अपितु यह सीखना भी अत्यन्त आवश्यक है कि कहाँ चुप रहें। जयशंकर प्रसाद ने इसके लिए बहुत ही अच्छा कहा है -- ``प्रत्येक स्थान और समय बोलने योग्य नहीं होता। कभी-कभी मौन रह जाना बुरी बात नहीं''। मौन के प्रतिष्ठा की भाषा तो जैसे हमने खो दी है, हम मात्र शब्दों तक सिमट कर रह गये हैं।

शेष भाग - 3

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।

आपका तहे दिल से स्वागत है। 
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