(भाग 2 का बाकि)
मौन के प्रति हमारी समझ उतनी गहरी नहीं
है जितना आज अपेक्षित है
यदि कोई चुप रह जाये तो हम यही समझते हैं कि या तो इसने हमारे प्रश्नों को महत्त्व ही नहीं दिया या फिर यह समझ बैठते हैं कि इसको पता नहीं होगा, बेचारा मूर्ख होगा। हमारी मौजूदगी में उसकी चुप्पी तो हमारे अन्दर एक बेचैनी पैदा कर देती है। इस तथ्य से भी हम लोग प्राय परिचित है कि जो नहीं जानते हैं वे भी बहुत बोलते हैं। क्योंकि जिन्हें कहना कम है प्राय वे भी अधिक-से-अधिक बोलते हैं।
उसे ऐसा लगता है कि यदि वह नहीं बोलेगा तो लोग उसे क्या समझेंगे। इसलिए वह व्यर्थ में ही वाद-विवाद और हठ पर उतर आते हैं और ज्ञानियों के सामने अपने क्रोध और मूर्खता के पक्के प्रमाण छोड़ जाते हैं। जिस प्रकार समझदार माली बंजर भूमि में पौधे नहीं लगाता है। होशियार धोबी गंदे और मट मैले पानी में वस्त्र धुलाई नहीं करता। क्योंकि ऐसा करने से समय, शक्ति और धन का व्यय होता है।
ठीक उसी प्रकार श्रेष्ठ जन अर्थहीन बातचीत
से, कुतर्क और अनर्गल प्रलाप से प्राय कतराते हैं। इस प्रकार
वे व्यर्थ में अपनी मानसिक शक्ति का हास होने से बचने के लिए मौन तथा विनम्रभाव से
हार को स्वीकार कर लेते हैं। यदि कहीं कोई कमी उन्हें दिखाई देती है तो उसे स्वीकार
कर बदलने तथा समझदार बनने का सुनहरा अवसर कभी नहीं चूकते हैं। स्वीकारभाव मनुष्य को
क्रोध, तनाव व अहंकार से बचाता है। जिसके कारण समय और मानसिक
शक्तियों की बचत हो जाती है। मौन मनुष्य उन्हीं बची हुई शक्तियों का उपयोग अपने को
सुधारने तथा नये सृजन में लगाकर अपने तथा दूसरे का हित साध लेते हैं।
आज मौन की सकारात्मक दिशा कहीं खो गई है
वास्तव में जीवन में सभी महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर मौन में ही सुलझते हैं, परन्तु खेद की बात यह है कि आज मौन की भाषा और उसका उद्देश्य लगभग खोता जा
रहा है और इसके सभी अयथार्थ संयोग जीवन से जुड़ते जा रहे हैं। क्योंकि आज यदि कोई चुप
हो जाये तो उसके अनेक अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं। लोग हज़ार गलत
कारणों से चुप हो जाते हैं। जैसे --
w यदि उसे किसी का अपमान करना हो तो।
w तिरस्कार दिखाने का सबसे अच्छा ढंग
है ö मौन।
w जब लोग उदास हो जाते हैं तब वे मौन
हो जाते हैं।
w अचानक घबराहट में हक्का-वक्का हो चुप हो जाते हैं।
w अति क्रोध की अवस्था में भी वाणी
नहीं निकलती है।
w अति क्रोध में कही मूढ़ता न जाहिर
हो जाय इसलिए भी चुपचाप मौन साधे रहते हैं।
w कई बार इसलिए भी लोग नहीं बोलते
कि वे उस प्रश्नों के उत्तर नहीं जानते हैं। साथ ही वे लोगों को अपनी अज्ञानता का अहसास
भी नहीं कराना चाहते हैं कि लोगों की नज़र में वे कही हीन न हो जाये। यदि इन अवस्थाओं
में वे चुप नहीं रहे तो फिर आप ही बताइये वो क्या करें?
इस तरह जीवन में चुप रहने के सभी गलत संयोग जुड़ गये और मौन के माधुर्य से हमारा
`सत्य' सुखद और सकारात्मक सम्बन्ध छूट गया
है।
मौन और करुणा में सम्बन्ध
सतत् बातचीत के प्रवाह में उलझ कर लोग बहुधा इस भ्रान्त धारणाओं के शिकार हो जाते हैं कि यदि वे दूसरों से नहीं बोले तो शायद वे करुणावान और सहृदय वाला व्यक्ति नहीं समझा जाये। प्राय लोग यह समझ कर बोलते हैं कि उसका लोगों से बहुत प्यार है। यद्यपि बात ऐसी नहीं है। जैसे आकाश में बादल यत्र-तत्र-सर्वत्र उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं, ऐसे ही मनुष्य के चिदाकाश में भी व्यर्थ के शब्दों और विचारों के बादल मंडराते रहते हैं।
जब तक उसे निकाल कर बाहर न कर दें, किसी को बोलकर बता न दे तब तक उसके अन्दर एक बेचैनी छायी रहती है। गहराई से देखने पर आपको यह पता चल जायेगा कि बहुत से मौके पर आप वही अभिव्यक्त करते हैं, जो वास्तव में आप करना चाहते हैं। जो आपके अन्दर भरा है उसे ही आप अभिव्यक्त करना चाहते हैं। क्योंकि उन संकल्पों ने ही आपको बेचैन कर रखा है।
बातचीत में दूसरा महत्त्वपूर्ण नहीं है वह तो आपके लिए मात्र बहाना है। उसे तो आप कूड़ेदान की तरह उपयोग करते हैं। ध्यान देने पर आपको पता चलेगा कि कई बार आप उसके कल्याण के लिए कदापि नहीं बोल रहे हैं, परन्तु अपने भार-मुक्ति के लिए बोल रहे हैं। यदि बोलने से आप एक आन्तरिक उत्ताप और बेचैनी से मुक्ति या हल्कापन अनुभव करते हैं तो उस बोलने से दूसरा लाभान्वित कैसे होगा?
ज़रा सोचिए जिस विचार से
आप खुद को बोझिल अनुभव करते हैं, बेचैनी महसूस करते हैं,
तो क्या उसे दूसरे को देने से उसको शान्ति मिलेगी? नहीं न। नहीं-नहीं.... आप वह भी
अपने लिए ही बोलते हैं। यदि दूसरा नहीं मिले तो यह डायलॉग मैनोलॉग में बदल जायेगा अर्थात्
आप अपने आपसे बातचीत शुरू कर देंगे।
यद्यपि आज प्राय लोग मीडिया से जुड़े हुए हैं। अखवार, रेडियो, टी.वी. इत्यादि समाचार के अनेक स्त्रोत सभी को उपलब्ध हैं। लोग जानते भी हैं कि, जो समाचार मैंने सुबह में पढ़ा है उसे दूसरों ने भी पढ़ा होगा, परन्तु लोग फिर भी वही सूचनाएं दूसरों को सवेरे से शाम तक चटकारे ले-लेकर सुनते और सुनाते रहते हैं।
यदि आप ऐसा सोचते हैं कि दूसरों से आप अपनी बात कह कर अपना प्रेम या करुणा जाहिर कर रहे हैं तो आप भूल में हैं। प्रेम के सम्बन्ध में आपकी यह मान्यता तो बिल्कुल ही भ्रान्ति पूर्ण है। दरअसल प्रेम के सम्बन्ध में जो गहराई से जानते हैं वे इस तथ्य से अवगत है कि जब दो प्रेमी आपस में मिलते हों तो उनके बीच शब्दों के व्यापार बन्द हो जाते हैं और मौन का सम्वाद घटित होने लगता है।
यदि हम आदत या मज़बूरीवश बोलते हें तो निश्चय ही इससे न तो खुद का और न ही जगत का कल्याण सम्भव है। हाँ यदि मौन के गहरे तले से वाणी की सुगन्ध उठ रही है, तब दूसरा व्यक्ति आपके लिए अवश्य ही महत्त्वपूर्ण हो जायेगा। जहाँ चित्त के आकाश में विचारों के बादल नहीं है, आकाश शान्त है, आपको बोलने के लिए न तो कोई बेचैनी है और न ही कोई मज़बूरी, चित्त की उस अवस्था में तब दूसरों का हित आपको दिखना प्रारम्भ हो जायेगा और सही अर्थों में तब आपका बोलना करुणापूर्ण और सार्थक हो जायेगा।
जगत के समस्त महत्त्वपूर्ण
और हितकारी विचार मौन से पैदा हुए हैं। इसलिए यदि कोई व्यक्ति थोड़े-थोड़े समय के लिए पूर्णत मौन हो जाए तो प्रेमपूर्ण और करुणावान बन सकता है।
चेक करें कि बातचीत में कौन महत्त्वपूर्ण
है
ज़रा साक्षी होकर लोगों की आपसी बातचीत पर गौर कीजिए तो आप पाएंगे कि जब पहला बातचीत करता है तो दूसरा सुनता नहीं है। मात्र हाव भाव से यह धोखा पैदा करता है कि मैं सुन रहा हूँ। दरअसल वह चुप इसलिए है कि कब आप चुप हों और वह अपनी बात प्रारम्भ करें। इस बीच प्राय उसे क्या बोलना है वह इसकी तैयारी में लगा रहता है।
कई बार तो बेसब्री के वश बीच में ही अपनी बात कहना शुरू कर देता है और पहले को यह कहना पड़ता है कि आप पहले हमारी बात सुन लो फिर बोलना और जब दूसरा बोलना शुरू करता है तो पहला सुनने का बहाना प्रारम्भ कर अपने आगे की बोलने की तैयारी करता है।
यदि एक बोलता रहे और दूसरों को बोलने
का मौका ही नहीं दे, तो दूसरा क्या कहता है -- ``अरे भाई, आज तुमने बड़ा ही बोर कर दिया''। और सम्भव है वह कल उसके पास नहीं आये। एक-दूसरे की
बात चुपचाप सुनना तो एक आपसी समझौते के तहत एक करार है।
कई बार तो आपको इस बातचीत में एक आश्चर्यजनक बात दिखाई देगी और लगेगा कि कहीं ये असन्तुलित लोग तो नहीं हैं। क्योंकि उनके बातचीत के विषय का आपस में कोई भी सम्बन्ध नहीं होता है। इसलिए जिसे आप पढ़ा-लिखा और सभ्य कहते हैं वे भी बातचीत के इसी नियम के तहत थोड़ा बोर होते और दूसरों को थोड़ा बोर करते हैं। गपशप का यह विराट सतसंग सब तरफ चलता रहता है।
वास्तव में यह व्यक्ति के रुग्णचित्त की दशा है। इसलिए मौन रहने वालों को अर्थहीन बातचीत के इस दृष्टिकोण से ऊपर उठ जाना चाहिये। बातचीत, प्रेम और करुणा पूर्ण हो। यदि दूसरा उन्हें ऐसा समझते हैं तो देर-सबेर उनकी वे भ्रान्त धारणाएँ धूमिल हो जाने वाली है। आज नहीं तो कल उन्हें इस बात का बोध हो जायेगा कि मौन रहने वाला ही वास्तविक रूप से करुणामय और दूसरे के लिए हितकारी है।
उनकी करुणामय
वाणी किसी के लिए चिकित्सा की भांति महत्त्वपूर्ण है। उसका बोलना उसकी आन्तरिक ]़ज़रूरत-सी है। परन्तु दूसरे को उसकी ज़रूरत है जो करुणावश
मौन से अभिव्यक्त होती है। वाणी में वह शक्ति है जो आपके लिए अनन्त सम्भावनाओं का द्वार
खोल सकती है। उसकी दिशा सही और गलत दोनों हो सकती है सवाल आपके उपयोग के ढंग पर निर्भर
करता है। यदि वह मौन और करुणा से प्रकट होती है तो उसकी दिशा सही है और तब...
हमें भी ऐसा ही करना चाहिए।
शेष भाग - 4