सच्ची सफलता (Part 5)

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(भाग 4 का बाकि)

7. सफलता के लिए परिश्रम आवश्यक

परिश्रम सबसे बड़ा धर्म है, वह सौभाग्य की किरण है। अथक परिश्रम और सहनशीलता सफलता की कुँजी है।

उद्योग और कठिन परिश्रम से ही मनुष्य के कार्य सिद्ध होते हैं, केवल इच्छा करने से नहीं। जैसे सोते हुए सिंह के मुख में मृग नहीं घुस सकता, उसी प्रकार किसी कार्य को सफलता की मंज़िल तक पहुँचाने के लिए उसे समुचित योजनापूर्वक, सतत् परिश्रम करने से सम्भव हो सकता है। ज्ञान और योग की उपलब्धि भी बिना कठोर परिश्रम के सम्भव नहीं है।

आप आदर्श व्यक्ति की सूची में तभी आ सकते हैं, जब आप अपनी उन्नति के लिए सबसे अधिक परिश्रम करते हैं। जन साधारण को सफलता इसलिए नहीं प्राप्त होती है क्योंकि वे अपेक्षित परिश्रम से जी चूराते हैं। अन्यथा उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि किस्मत के दरबाजे की चाबी परिश्रम ही है। इसलिए हे नींद को प्यार करने वालों उठो, आँखें खोलो और डटकर परिश्रम करो। तुम सभी प्रकार की गरीबी से मुक्त हो जाओगे।

आपका यह परिश्रम दिशा और लक्ष्यविहीन नहीं होना चाहिए। बहुत से लोग है, जो परिश्रम तो अति करते हैं, लेकिन कहाँ और कितना करना है इस ज्ञान के अभाव में उन्हें सफलता नहीं मिल पाती है। परिश्रम के साथ सतत् शब्द जुड़ा है। सफलता का सूत्र है सतत्। अक्सर लोगों को टाल-मटोल करने की आदत होती है और कार्य को कल के लिए स्थगित कर देते हैं। कल पर छोड़ देने से बड़ा ही नुकसान उठाना पड़ता है। जो काम करना है उसे आज करें।

परिश्रम : सफलता मात्र चाहत से ही हासिल नहीं होती यह कोई नदी-नाव संयोग नहीं है। इतिहास कहता है यह उसी को वरमाला पहनाती है, जो उसके पूर्व इसकी पूरी तैयारी कर चुका होता है और वह तैयारी है आवश्यक अभ्यास, कठोर परिश्रम, योजना, धैर्य, अनुशासन और समर्पण। भाग्य कठोर परिश्रम की परछाई है जो मनुष्य के पीछे हाथ बांधे खड़ा रहता है। इसलिए लक्ष्य तक पहुँचने के लिए परिश्रम से उपयुक्त अन्य कोई भी तीव्र वाहन इसका विकल्प नहीं बन सकता है।

नौकरी पाने वाले आवेदनकर्त्ता से एक सक्षात्कार में जब उसके निर्देशक ने उसके कार्य करने के अनुभव के बारें में पूछा तो उसने जवाब दिया मेरा पिछला अनुभव इस कार्य का दो वर्षों का है, जो इस शहर का एक प्रमुख फार्म है। निर्देशक ने फोन के माध्यम से उस फार्म के अधिकारी से सम्पर्क कर आवेदनकर्त्ता के इस बात की सत्यता का प्रमाण मांगा। उस फार्म के अधिकारी ने कहा –– ``यह बात ठीक है कि वह व्यक्ति हमारे साथ दो वर्ष रहा है परन्तु कार्य, वास्तव में उसने दो महीना ही किया है''

ईमानदारी के साथ किया गया परिश्रम अच्छी महसूसता को जन्म देता है। गुरूनानक जी ने कहा कि परिश्रम से कमाई गई सूखी रोटी भी दूध के समान है, परन्तु बेइमानी से कमाई गई हलवा-पूरी भी खून के बराबर।

दुनिया में ऐसे बहुत लोग आपको मिल जायेंगे, जो अत्यन्त प्रतिभावान होते हैं फिर भी किस्मत उनसे रूठी रहती है, परन्तु इसके विपरीत साधारण प्रतिभा वाले ऐसे मनुष्य भी होते हैं जो मात्र परिश्रम के बल उस सौभाग्य को उपलब्ध कर लेते हैं, जो बड़े-बड़े प्रतिभाशाली को भी नहीं मिल पाता है। कारण हैं –– मात्र परिश्रम।

सेवा और सहयोग : श्रम में शर्म कैसी? किसी भी अच्छे उद्देश्य के लिए किये गये श्रम में आप प्रसन्नता और गौरव को महसूस करें। ईमानदारी के किया गया श्रम गर्व की आन्तरिक विनम्रता और प्रसन्नता का द्योतक है। यह निर्मित वस्तु की गुणवत्ता और निर्माता के चारित्रिक गुण दोनों को ही प्रगट करता है।

इस विषय से सम्बन्धित एक कहानी है –– कहते हैं एक जगह भव्य भवन का निर्माण हो रहा था। एक संत वहाँ से गुजर रहे थे। सहज जिज्ञासावश वहाँ काम कर रहे एक मजदूर से पूछ बैठे, भाई, तुम क्या कर रह हो अर्थात् यहाँ क्या हो रहा है? उसने क्रोध और खीझ भरा उत्तर दिया। तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा है कि मैं पत्थर तोड़ रहा हूँ। संत मुस्कुराते हुए थोड़ा आगे बढ़ गये और यही जिज्ञासा उन्होंने दूसरे मजदूर के आगे भी प्रगट की। कुछ थके कुछ उदासचित्त से उस मजदूर ने कहा, ``बाबा, भाग्य में ज़िन्दगीभर यही मजदूरी लिखी है, पेट पालने के लिए रोजी-रोटी कमा रहा हूँ''

संत यथावत थोड़ा और आगे बढ़ गये। यही बात उन्होंने तीसरे युवा मजदूर से भी पूछी। युवक जिसके चेहरे पर श्रम से पसीने की नन्हीं बुन्दें छलक आई थी बड़ी ही प्रसन्नता भरी चमक से कहा, ``बाबा यहाँ एक भव्य मंदिर का निर्माण हो रहा है। जहाँ प्रतिदिन प्रभु की प्रार्थना और आनन्द उत्सव मनाया जायेगा, बस जल्दी-से-जल्दी यह महान् और शुभ कार्य पूरा हो जाये इसके लिए अपना छोटा-सा योगदान दे रहा हूँ''

कार्य के प्रति तीसरे मजदूर की अर्न्तदृष्टि क्या गौरव, आत्म-विश्वास और खुशी से भरपूर नहीं है? क्या हम उसके जीने के इस ढंग से कुछ प्रेरणा ले सकते हैं? यदि हाँ, तो सफल और दिव्य-जीवन निश्चित है।

8. व्यवहारिक समझ

सद्-व्यवहार, परोपकार और ऊँचे विचार सर्वश्रेष्ठ कलाएँ हैं।

व्यावहारिक समझ को यदि छठी इन्द्रिय कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। साधारण शिक्षा के बावजूद भी व्यावहारिक समझ वाले लोगों ने इस संसार में अद्भुत कार्य कर महान् सफलताएं अर्जित की। जबकि दूसरी तरफ, इसके अभाव में अक्सर अच्छी शिक्षा वाले को नाकामयाबी का मुख ही देखना पड़ता है इसलिए ज्ञान अपने आप में शक्ति नहीं है। उसे प्रयत्न और अनुभव के माध्यम से शक्ति बनाया जा सकता है।

समझदार उसी को कहा जाता है जो ज्ञान को व्यावहारिक धरातल पर बार-बार उपयोग कर सकता है। समझदार उसी को कहा जाता है जो ज्ञान को व्यावहारिक धरातल पर बार-बार उसका उपयोग कर, उसका अनुभवी बने। जीवन-भर आध्यात्मिक ज्ञान देने से कहीं अच्छा है एक वर्ष आध्यात्मिक जीवन जीना। क्योंकि ज्ञान का वास्तविक उद्देश्य उत्थान में सृजनात्मक प्रयास है, न कि ज्ञानी बनने में। यह व्यवहारिक होने के बाद ही महत्त्वपूर्ण बनता है।

जिसे दूसरे शब्दों में भोजन को पचाना कहते हैं। अन्यथा, ज्ञान और भोजन दोनों ही अर्थहीन हैं। व्यावहारिक समझ प्रतिदिन के सकारात्मक सोच रूपी भोजन खाने तथा उसका अभ्यास, चिन्तन, मनन, अध्ययन और विश्लेषण करने से आती है।

सफलता प्राप्त करने वाले अच्छी समझ के कारण यह जानते हैं कि उनकी कमज़ोरी की सीमा कहाँ तक है। फिर भी वे अपना सारा ध्यान इसी बात पर लगाये रहते हैं कि किस प्रकार उनकी शक्ति की सीमा बढ़े। जबकि असफल हुए लोगों का ध्यान सदा उनकी कमज़ोरियों के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है।

चाहे कोई भी कार्य हो –– शारीरिक या मानसिक, उससे सम्बन्धित सभी बातों की जानकारी जिसका उस कार्य से सम्बन्ध हो, साथ ही उस कार्य को कर देने के बाद क्या परिणाम फलित होगा इसका पूर्वानुमान लगाना ही व्यावहारिक समझ कहा जाता है। जिस व्यक्ति के पास जितना व्यावहारिक ज्ञान होगा उसे अपने लक्ष्य-पूर्ति में तुरन्त सफलता प्राप्त होगी।

बोलना, चलना, खाना, पीना, कार्य का पूर्वानुमान करना, निर्णय लेना, अलग-अलग परिस्थितियों में धैर्य, शान्ति और विवेक का प्रयोग करना, लकीर के फकीर नहीं बनना इत्यादि बातों का व्यावहारिक ज्ञान रहने से व्यक्ति सहज ही सफलता को प्राप्त कर लेता है। किसी कार्य की योजना बनाते समय, उसके क्रियान्वयन के समय उस अनेक तथ्यों की जानकारी होने के कारण उस कार्य के चुनाव में उसका विवेक और उसकी निर्णय शक्ति सहज ही कार्य करके व्यक्ति को सफलता प्राप्त करा देती है।

जैसे बोलने के बारे में इस बात का व्यावहारिक ज्ञान उसमें अवश्य ही होना चाहिए कि कहाँ चुप रहना है और कहाँ सम्मान और सभ्यतापूर्वक बोलना है। कहाँ मीठे तो कहाँ अधिकार पूर्ण ढंग से बोलना है। भोजन के मामले में भी उसे इतनी जानकारी अवश्य रखनी चाहिए कि क्या खाना उसके स्वास्थ्य के लिए अनुकूल है और क्या प्रतिकूल। अन्यथा अत्यधिक और अनुपयुक्त भोजन उसे बीमार कर सफलता के महत्त्वपूर्ण कारक समय रूपी धन को नष्ट कर देगा। इन सब बातों की व्यवहारिक समझ सफलता के लिए आवश्यक है।

9. जीवन के लिए दृढ़ इच्छा-शक्ति भी आवश्यक है

किसी भी भौतिक वस्तु, चारित्रिक गुण और शक्तियों को पाने के लिए तीव्र इच्छा का होना अति आवश्यक है।

किसी भी लक्ष्य की पूर्ति के लिए तीव्र और दृढ़ इच्छा-शक्ति आवश्यक है। उसे हासिल करने के लिए व्यक्ति को महत्त्वाकांक्षी होना चाहिए। महत्त्वाकांक्षा हमेशा बुरी नहीं होती। निम्न कोटि की गलत आकांक्षा हमेशा त्याज्य है परन्तु श्रेष्ठ और शुभ की आकांक्षा तो हमें करनी ही चाहिए। (इसकी व्याख्या हम आगे संदर्भ में करेंगे कि इच्छा अच्छी और बुरी कैसे होती है) इच्छा को विचार के माध्यम से बार-बार पुनरावर्तन करने से तरंगित होकर अन्तर जगत में उठने लगती है।

अचेतन तक पहुँच कर यह उस वृत्ति का निर्माण कर देती है, यही है कामना का लगन में बदल जाना अर्थात् उस लक्ष्य पूर्ति के लिए हम लगन में मगन हो जाते हैं। अब यही इच्छा भाव क्रिया का रूप ले लेती है जो न चाहते भी हमारे अचेतन मन से चेतन मन में प्रगट होती रहती है। जाने अनजाने प्रतिपल उसी दिशा में हमारे सूक्ष्म भाव, इच्छा और विचार शक्ति के साथ स्थूल में इन्द्रियों द्वारा क्रिया-शक्ति को प्रगट करती रहती है।

मंत्र विज्ञान भी इसी कंपन के संघात से चीज़ों को पाने में सफलता दिलाता है। यह सूक्ष्म ज्ञान है। यह किस प्रकार सूक्ष्म में प्रतिक्रिया करता है। हम यहाँ इसकी व्याख्या नहीं कर रहे हैं, परन्तु सफलता के लिए इच्छा-शक्ति लगन में मगन होकर अपना कार्य सिद्ध कर ही लेती है। यह सफलता के अर्न्तनियम हैं। जो भौतिक और आध्यात्मिक जगत की समस्त उपलब्धियों का कारक तत्व है।

कामनायें जो श्वास की तरह लगने लगे –– एक नवयुवक को प्रभु-प्राप्ति की तीव्र कामना उत्पन्न हुई। उसने अपने यह विचार संत फरीद के सामने रख दिए। संत फरीद अक्सर उस निवेदन को मुस्कुराकर अनसुना कर जाया करते थे, परन्तु नवयुवक के बार-बार इस निवेदन को वे टाल न सके। प्रभु-मिलन की इच्छा की तीव्रता को जानने के लिए एक दिन वे उसे अपने साथ सरोवर में स्नान करने ले गये। थोड़ा गहरे पानी में वे दोनों पास-पास ही स्नान कर रहे थे कि अचानक मज़बूत कद काठी के संत ने नवयुवक को पानी में अन्दर दबोच लिया।

पानी के अन्दर युवक की व्याकुलता (श्वास के लिए) बढ़ने लगी। उसकी कोशिश पानी से बाहर आने की सफल नहीं हो पा रही थी, क्योंकि फकीर पूरी ताकत से उसे पानी में दबोचे हुए थे। अचानक उसने अन्दर से एक तीव्र झटका फकीर को दिया और पानी से बाहर निकल आया। दो-चार श्वास लेने के बाद युवक ने फरीद से कहा आप हत्यारे मालूम होते हैं। आज तो मेरी जैसे समाधि हो जाती। मैं जिस उद्देश्य को पाना चाहता था आप उसे भी मिटा देना चाहते थे, परन्तु आश्चर्य आपने ऐसा क्यों किया?

संत मुस्कुराए और बोले –– इस बात को छोड़ो, पहले तुम यह बताओ कि जब तुम पानी के अन्दर थे उस क्षण तुम्हारे अन्दर कौन-से विचार चल रहे थे। उसने कहा उस समय मेरे समस्त विचार शान्त थे। बस कण-कण में एक ही संकल्प तरंगायित हो रहा था कि किस भांति एक श्वास लूं और मैने अंतिम शक्ति लगा दी और आप मुझे बाहर आने से रोक नहीं सके।

संत ने कहा –– युवक जिस दिन तुम्हारे चित में परमात्मा को पाने का एक मात्र संकल्प इतनी तीव्रता से तरंगित होने लगेगा, उसी दिन तुम अपने उद्देश्य को पाने में सफल हो जाओगे। इसी मूल्यवान सूत्र को सफलता के लिए जीवन में धारण करो और अपने प्राणों में बस इसी प्यास को तीव्र करने में लगा दो।

जिस प्रकार रेल के इंजन में 100 डिग्री गर्मी से उत्पन्न भाप इंजन को नहीं चला सकता उसके लिए 212 डिग्री गर्मी वाला खौलता पानी चाहिए ताकि उस तीव्रता से उत्पन्न भय से ही इंजन गतिशील हो सकता है।

ठीक उसी प्रकार उन समस्त उपलब्धियों को, जिसे आप पाना चाहते है हासिल करने के लिए तीव्र और व्याकुल कर देने वाली अभिलाषा उत्पन्न होनी चाहिए। फिर चाहे कोई भी मंज़िल क्यों न हो। चाहे वह अध्यात्म हो या विज्ञान या और कुछ, परन्तु नियम सभी जगह एक जैसे ही लागू होंगे।

शेष भाग - 6

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।

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