(भाग 5 का बाकि)
10. सफलता की नई परिभाषा –– सच्चरित्रता : जीवन में बहुमंज़िला इमारत की आधारशिला निश्चय ही बिना श्रेष्ठ चरित्र के सम्भव
नहीं है। चरित्र शक्ति और प्रभाव का सुन्दर मिश्रण है। यह चुम्बक की तरह मित्रों,
सहायकों और संरक्षकों को अपनी ओर खींच लेता है और सफल जीवन का सुखमय
मार्ग प्रशस्त कर देता है।
चरित्र का परिवर्तन या उत्कर्ष वर्जन से नहीं होना, योग से होता है।
–– रविन्द्रनाथ ठाकुर
चरित्र ऐसा हीरा है जो अन्य सभी पाषाण खण्डों को काट देता है। दृढ़ चरित्र वाला
लक्ष्य की ओर सीधा जाता है।
–– अज्ञात
श्रेष्ठ व्यक्ति से श्रेष्ठ समाज का निर्माण होता है और श्रेष्ठ समाज एक श्रेष्ठ सभ्यता और संस्कृति को जन्म देता है। फिर प्रश्न उठता है कि श्रेष्ठ व्यक्ति का निर्माण कैसे होगा। आज, जबकि प्रत्येक व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकार कर रहे हैं कि आधुनिकता के इस बदलते परिवेश में मानवीय मूल्यों और उसका चरित्र पतन की ओर अग्रसर है।
व्यक्ति में श्रेष्ठ चरित्र का निर्माण हो इस दिशा में बहुत कुछ कहा तो जाता है परन्तु आचरण में आहत और गलत चरित्र के वशीभूत पुन पुन यही कहावत चरितार्थ होती है कि ––``पंचों की बात सर माथे, परन्तु परनाला वहीं बहेगा''। समाज और देश की दुर्दशा के कारणों को व्याख्या करने पर मनीषियों और विचारकों को एक ही मत प्रगट होता है, यह है ``चरित्रहीनता''।
चारों तरफ हो रहे भौतिक विकास और धन वैभव की समृद्ध मानव के सुख-सुविधापूर्ण जीवन के लिए आवश्यक भी है। और क्यों नहीं हो? लेकिन दुनिया के थोड़े से महान् शुभचिंतक लोग यह सोचकर अत्यधिक भयभीत हैं कि
कहीं यह सुन्दर सभ्यता मनुष्य के चारित्रिक पतन के कारण विनष्ट न हो जाए।
चारित्रिक पतन का तांडव, चोरी, झूठ, बेईमानी, हिंसा, भष्टाचार, पापाचार, अनीति, धार्मिक उन्माद, इन्द्रिय भोग की विवेकहीन उद्धाम लालसा, लालची प्रवृति, लक्ष्यविहीन अन्धी दौड़, काम भोग की विकृति इत्यादि चारों तरफ हो रहा है। लोगों के आगे सफलता के सामने उसकी परिभाषा बदल गई है। येन-केन-प्रकारेण किसी इच्छा या लक्ष्य की पूर्ति कर सफलता हासिल करना है। बस।
चाहे
वह धन, पद, प्रतिष्ठा कुछ भी हो और इसका
फल है –– अंतहीन दुःखों का चक्र। वास्तव में मनुष्य आज जितना दुःखी
और अशान्त है उतना पहले कभी भी नहीं था। तनाव इतना है कि आपको ढूँढ़ने से भी कोई व्यक्ति
ऐसा नहीं मिलेगा जो इससे मुक्त हो। आज विश्व क्रोध, हिंसा और
अंहकारवश दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति के कारण तीसरे विश्व युद्ध के कगार पर
है। ज़रा सोचिए, यदि सभ्यता ही नष्ट हो गई तो आपकी सफलता के क्या
मायने हो सकते हैं। क्या आप सफल होकर भी दुःख से मुक्त हुए? उत्तर
नहीं में ही अधिक होगा।
अब ज़रूरत है सफलता की पुरानी परिभाषा को बदल नई परिभाषा बनाने की। एक उन्नत, आदर्श चरित्र के निर्माण में सफलता पाने की अत्यधिक ज़रूरत है। प्रथम और अत्यधिक
ज़रूरत इस बात की है कि एक श्रेष्ठ और चरित्रवान व्यक्ति का निर्माण कैसे हो?
सभी आवश्यक उपलब्धियाँ, कर्मों और प्रयास के पीछे
उच्च आध्यात्मिक तथा नैतिक गुणों के पालन का अनिवार्य नियम हो। उच्च चरित्रवान व्यक्ति
के निर्माण को लक्ष्य मानकर ही हम सफलता के लिए पुरुषार्थ करें तो निश्चय ही भौतिक
समृद्ध के साथ जीवन में सच्ची सुख-शान्ति और आनन्द के स्वर्ण
कमल खिलेंगे।
सफलता के लिए चरित्रवान बनें : ऊँचे चरित्र के
बिना सफलता की ऊँचाई उस गिद्ध की तरह है जो उड़ता तो ऊँचाई पर है, परन्तु उसकी नज़र जमीन पर मांस के लोथड़े पर जमी रहती है।
दुनिया के समस्त महापुरुषों का जीवन चरित्र पढ़ने पर एक गुण सभी में सामान्य रूप
में पाया गया है और वह गुण है –– स्वाभिमान या उसे आप आत्म-सम्मान भी कह सकते हैं। चाहे उनके जीवन में कैसी भी विषम परिस्थितिया क्यों न उत्पन्न हो गई हो। उन्होंने
अपना स्वाभिमान नहीं खोया। उन्होंने सभी असुविधा, भौतिक सम्पन्नता
का अभाव या अन्य किसी दूसरे अभाव को स्वीकार कर लिया, परन्तु
स्वाभिमान से कभी भी समझौता नहीं किया। इसी कारण से उनका ऐसा ज्योतिर्मय व्यक्तित्व
सर्व के लिए सम्माननीय और अनुकरणीय रहा।
प्राय ऐसा भी देखा गया कि कई लोग सफलता के लिए अनीतिपूर्ण ढंग से कार्य कर सफलता के शिखर पर पहुँच गये, परन्तु समय के अन्तराल में वे मुँह के बल गिरकर नष्ट हो गये। यदि सफलता की ऐसी बहुमंज़िली इमारत, अनैतिकता और चरित्रहीनता पर खड़ी है तो वह जल्द ही गिर जाने वाली है।
यदि जीवन में आपने किसी महान्
उद्देश्य को धारण किया है तो आत्म सम्मान के रास्ते के सिवाये इसका दूसरा कोई विकल्प
नहीं। यदि आप अपने जीवन में सफलता पाना चाहते हैं तो कभी भी इस गुण से समझौता मत कीजिए,
अन्यथा सफलता असम्भव है।
आदमी की खुशहाली उसकी सच्चरित्रता का फल है।
–– इमर्शन
चरित्र ही सफलता अथवा असफलता का द्योतक है। चरित्र सफल तो जीवन भी सफलता की ओर
बढ़ेगा, किन्तु चरित्र असफलता की ओर अग्रसर है तो जीवन
अवश्य पतनोन्मुख होगा।
–– रोमों
मनुष्य की महानता उसके कपड़ों से नहीं, अपितु उसके
चरित्र से आंकी जाती है।
–– महात्मा गाँधी
फूल खिलने दो मधुमक्खियाँ अपने आप उसके पास आ जायेंगी। चरित्रवान बनो, जगत अपने आप मुग्ध हो जायेगा।
–– रामकृष्ण परमहंस
हमारी प्रथम और प्रधान आवश्यकता है –– चरित्र गठन।
–– स्वामी विवेकानन्द
चरित्र वृक्षवत है और यश उसकी छायावत। हम किसी विषय में जो सोचते हैं, वह तो छाया है, वास्तविक तो वह वृक्ष है।
–– अब्राहम लिंकन
क्या है आदर्श चरित्र? जिसके अंतकरण, मन, वाणी,
कर्म और सम्बन्ध-सम्पर्क में सभी दिव्य मानवीय
गुणों, सत्य निष्ठा और अटल विश्वास से प्रतिष्ठित है उसे ही आदर्श
चरित्र कहा जाता है और सभी बातें सदा जिसके आचरण में विश्व-कल्याण
के भाव से प्रवाहित होता रहे हो वही पुरुष चरित्रवान कहलाता है। इन्हीं मूल्यों के
आधार पर प्राप्त उपलब्धियाँ सच्ची सफलता कहलाती है।
जैसे किसी कार को पाने में सफल होना और उसका उपयोग करना महत्त्वपूर्ण है उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है उसके रख-रखाव (मेन्टेनन्स) पर ध्यान रखना, उसी प्रकार किसी उद्देश्य में सफलता हासिल करने की योग्यता के साथ आवश्यक चारित्रिक विशेषता का होना भी आवश्यक है।
चारित्रिक सफलता को बनाये रखने वाला अर्थात् उसका रख-रखाव (मेन्टेनन्स) जैसा है। इसलिए चरित्र सोने जैसा है और मुश्किलें उसकी कसौटी। जिस प्रकार आग से सोना गुजर कर अपनी परिपूर्ण शुद्धता में प्रगट होता है, यदि वह नकली है तो जलकर भस्म हो जाता है, ठीक उसी प्रकार कठिनाईयों में चरित्र और भी ज्योतिर्मय हो जाता है अन्यथा टूटकर छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाता है।
ये गुण हैं ––
1. पवित्रता, 2. धैर्य, 3.
सहनशीलता, 4. सरलता, 5. क्षमाशीलता, 6. विनम्रता, 7. सत्यता, 8. स्वाध्याय अर्थात् आत्म-चिन्तन और आत्म-निरीक्षण तथा 9. आत्म-विश्वास और स्वमान।
स्वाभिमान –– सोचें तो पता चलेगा
कि सफल व्यक्ति अपने चरित्र के कारण ही महान् बनते हैं।
–– स्वेट मॉर्डन
इसलिए जिसके व्यक्तित्व में चरित्रगत विशेषता नहीं वह कभी भी सफलता को प्राप्त नहीं कर सकता है। दुनिया के सभी महान् चिन्तक, खास भारत के मनीषियों ने चारित्रिक विकास के महत्त्व की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। सफलता का यह मतलब कदापि नहीं है कि आपने अत्यधिक धन हासिल कर लिया या उच्च पदों पर पहुँच गये। हाँ यह सत्य है कि बिना धैर्य, सतत् परिश्रम और दृढ़ता आदि गुणों से यह उपलब्धि संभव नहीं है, परन्तु आज अपने इन अमूल्य गुणों के बदले वह घटिया सौदा तय नहीं करें।
इस तरह की उपलब्धियों के परिणाम बड़े ही भयंकर होते हैं। क्या आप
समझते हैं इससे आत्म-संतोष का धन, सच्चा
सुख या सच्ची शान्ति मिलेगी? अनुभव कहता है, कदापि नहीं। इसके विपरीत अपराध बोध कहीं-न-कहीं आपके अन्दर हीनता की ग्रंथि पैदा कर देगा। आपका व्यक्तित्व मुखौटे वाला,
दोहरा हो जायेगा।, इन दो चेहरों के बीच आप भ्रान्तिपूर्ण
जीवन जीयेंगे। इसलिए आपको गुणमूर्त्त अवश्य बनना है जिससे आपका उदात्त चरित्र समाज
के सामने प्रकाश-स्तम्भ बन औरों को चरित्रवान बनने की प्रेरणा
दे सकें।
साहस और धैर्य : जब गंगा, गंगोत्री से निकलती है तो मार्ग में कितने विहंगम दृश्यों का निर्माण करती
है। कितना मधुर संगीत पैदा करती है। कभी मनोहारी झरने के रूप में तो कभी मर्र...
मर्र... कल-कल नादों के रूप
में। समतल भूमि में ऐसा कुछ भी नहीं होता। उबड़-खाबड़ घुमावदार
चट्टानी रास्ते में ही वह सुन्दर परिदृश्यों का निर्माण करती है। जीवन प्रवाह के साथ
भी कुछ ऐसा ही सत्य है बस धैर्य और साहस की आवश्यकता है।
किसी भी कार्य की योजना को पूर्ण करने के मार्ग में उत्पन्न संकट से विचलित नहीं होना `साहस' कहलाता है। कई बार परिस्थिति इतनी कठिन होती है कि व्यक्ति घबरा कर उस काम को बीच में ही छोड़कर बैठ जाता है। वह सोचता है अब मैं और अधिक परिश्रम नहीं कर सकता। उसे अपने सामर्थ्य पर संदेह होने लगता है जो उसे निराश कर देता है।
ऐसी स्थिति में उस कार्य को छोड़कर व्यक्ति
पलायन कर जाता है। जीवन में संघर्ष की क्षमता चूक जाती है और व्यक्ति हिम्मतहीन होकर
असफलता के गहन अन्धकूप में चला जाता है। हज़ार असफलता के बाद भी जो हार मानने के लिए
तैयार नहीं होता, जिसके अन्दर प्रबल आत्म-विश्वास कूट-कूट कर भरा है, जिसे
अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं पर ज़रा भी अविश्वास नहीं है, सफलता निश्चय ही उसके कदम चूमती है। मनुष्य के सभी गुणों में साहस जड़ मूल
है।
हिम्मत का पहला कदम आगे बढ़ाओ तो परमात्मा की सम्पूर्ण मदद मिलेगी।
साहस और धैर्य ऐसे गुण हैं जिनकी कठिन परिस्थितियों में आ पड़ने पर बड़ी ज़रूरत
होती है।
–– महात्मा गाँधी
बिना निराश हुए पराजय को सहन कर लेना, धरा पर साहस
की सबसे बड़ी परीक्षा है।
–– इंगरसोल
बदला साहस नहीं, उसका सहना साहस है।
–– शेक्सपीयर