(भाग 6 का बाकि)
सफलता के लिए धैर्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है –– जब तक श्रद्धा, विश्वास और ज्ञान का आलोक अन्तस में नहीं
फैलता तब तक मनुष्य धैर्य और संयम को उपलब्ध नहीं हो सकता है और जब तक असंयम की इस
प्रवृत्ति को पूर्णत त्यागा ना जाये तब तक मनुष्य आध्यात्मिक जीवन को भी उपलब्ध नहीं
कर सकता है।
कहते है एक संत ने अपने आश्रम में कुछ वर्षों से रह रहे अपने एक शिष्य की धैर्य और संयम की परीक्षा लेने के लिए अपने पास बुलाया। क्योंकि वह धर्म की अन्तिम दीक्षा पाने के लिए अत्यन्त उतावला था। उन्होंने एक बन्द सन्दूक उस शिष्य को दी और उसे किसी अन्य व्यक्ति के पास पहुँचाने की आज्ञा दी। रास्ते में शिष्य अपने कौतुहल पर नियंत्रण नहीं रख सका और उसने सन्दूक को खोल कर देख लिया कि इसमें क्या है?
उस सन्दूक से एक छोटा सा खरगोश का बच्चा बाहर कूद कर भाग गया। खाली सन्दूक
पाकर उस व्यक्ति ने उस शिष्य से कहा –– साधक अफसोस है कि अभी तक भी अन्तिम दिक्षा की पात्रता तुमने हासिल नहीं की
है। यही हुआ जब वह वापस लौटा तो मुस्कुराते हुए संत ने कहा –– वत्स जाओ और तब तक वापिस नहीं लौटना जब तक असंयम पर पूर्ण विजय नहीं पा लिया
हो।
कर्त्तव्य तो हमारे हाथ में है, परन्तु फल तो अनेक संयोगो से निर्मित होते है। इसलिए अलग-अलग कर्मों का अलग-अलग फल भिन्न-भिन्न समय पर अलग-अलग ढंग से मिलता है। मनुष्य को चाहिए कि धैर्य से उसकी प्रतिक्षा करें। आज के इस वैज्ञानिक युग में मनुष्य के कार्य करने की गति अति तीव्र है। इसके बहुत ही अच्छे परिणाम भी हैं। लेकिन इसका एक गलत परिणाम भी निकला, जो है –– अधैर्यचित्त या चंचलता। कार्य में तीव्रता तथा फल के आने में धैर्यता का संतुलन कर्म की सफलता के लिए अति आवश्यक है।
जब कर्म के जगत में प्रत्येक कर्म
का फल निश्चित है, फिर धैर्य को खोकर चंचलता के वश फल की जल्दी
कामना द्वारा चित्त को अशान्त करना कहाँ की बुद्धिमानी है। प्रकृति भी हमें धैर्य का
पाठ सिखाती है। बैंगन और हरी साग-सब्जी को आने में 3-4
महीना लगता तो आम के पेड़ को फल देने में कुछ साल और नारियल को फल देने
में उससे भी अधिक, इस दौरान धैर्य से उन पेड़ों को सम्भालना पड़ता
है।
``धीरे-धीरे रे मना, धीरे सबकुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होये''।
दवाई भी अपना प्रभाव छोड़ने में समय लेती हैं। भोजन करने के बाद वही भोजन पचकर शक्ति और खून बनने में समय लेता है। धैर्य को खोना अपनी शान्ति को नष्ट करना है। और जिस व्यक्ति के मन की शान्ति खो जाती है उसका पूरा जीवन ही खो जाता है। च
य, इनस्टेन्ट कॉफी के ढ़ंग से ही जीवन को नहीं देखें। धैर्य के साथ अपने कर्म
के फल को पकने दें। उसे अधैर्यता में कच्चा ही तोड़कर नहीं खा लेना चाहिए। परिणाम होगा
–– पेट में दर्द और पीड़ा की अनुभूति। धैर्य ही प्रत्येक घाव
का मरहम है।
धैर्य ही हमारे जीवन के लक्ष्य का द्वार खोल देती है क्योंकि सिवाय धैर्य के उस
द्वार की और कोई कुँजी नहीं है।
–– शेख साढ़ी
जो व्यक्ति स्वभाव से धैर्यवान है वह महान् विपत्ति के समय भी अधीर नहीं होता।
–– भृर्तहरि-नीतिशतक
संकट के समय धैर्य धारण करना मानो आधी लड़ाई जीत लेना है।
–– प्लाटस
अपने धैर्य के बिना और कोई संकट से मनुष्य का उद्धार नहीं कर सकता।
–– योगवशिष्ठ
सज्जनों का धन तो धैर्य ही है।
–– वाणभद्रक कादम्बरी
जिसके पास धैर्य है वह जो भी इच्छा करता है प्राप्त कर सकता है।
–– बैंजामिन फ्रैंकलीन
11. सफलता में बाधक : लोभी प्रवृत्ति –– लोभी नर कंगाल (लालच बुरी बला) जहाँ लक्ष्य पूर्ति में आकांक्षा का महत्त्वूपर्ण स्थान है वहीं लोभवश उत्पन्न आकांक्षा मनुष्य को लालची बनाकर पतन के मार्ग पर पहुँचा देती है। शुभ और श्रेष्ठ की आकांक्षा बुरी नहीं है, परन्तु निकृष्ट की आकांक्षा बुरी है।
भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है –– जिस व्यक्ति में लोभ है उसे दूसरे अवगुण की क्या आवश्यकता है। कहते है लोभ पाप का बाप है। महात्मा बुद्ध ने कहा –– लोभ के पैंदे में फंसा हुआ मनुष्य कभी हिंसा करता है, चोरी करता है, पर-स्त्राr गमन भी करता है, झूठ भी बोलता है और दूसरों को भी वैसा ही करने को प्रेरित करता है। इसलिए सभी अनर्थ लोभ से ही पैदा होते हैं।
विवेकानन्द के कथन को देखिये –– लोभ
से बुद्धि नष्ट हो जाती है, बुद्धि नष्ट होने से लज्जा नष्ट हो
जाती है और लज्जा नष्ट होने से धर्म नष्ट हो जाता है और धर्म नष्ट होने से धन और सुख
नष्ट हो जाते हैं।
मनुष्य लोभ का प्याला पीकर मूर्ख और दिवाना बन जाता है। वह सारा संसार प्राप्त
कर लेने पर भी भूखा रह जाता है, परन्तु संतोषी एक
रोटी से ही पेट भर लेता है।
–– शेख साढी
सम्पूर्ण पापों का पिता बस लोभ ही को जानिए। वह कौन-सा दुष्कृत्य है – जिसको न करता लालची।
–– रामचरित उपाध्याय (मुक्त मंदिर) पृष्ठ-18
आजकल की मानसिकता यह है कि रातोंरात करोड़पति कैसे बन जायें। अब एक चरित्रवान व्यक्ति तो इस लक्ष्य को पाने में सफल नहीं हो सकता। इसके लिए अनैतिकता जैसे चोरी, ठगी, जुआ, प्रपंच, कुटिलता आदि दुर्गुणों को अपना कर ही यह सम्भव है।
लोभी व्यक्ति का लक्ष्य
होगा 'किसी तरह सफलता पाना है। लालच के भयंकर परिणाम निकलते हैं।
आज देश में फैले जितने भी घोटाले हैं वह सभी इसी लालच के परिणाम हैं। किसी का पेट तो
भरा जा सकता है, परन्तु पेटी नहीं। आदमी को कितना चाहिए?
एक आदमी को कितनी जमीन चाहिए
एक बार एक साधु किसी गरीब किसान के घर रात्रि विश्राम के लिए ठहरा। रात बातचीत के दौरान उसे पता चला कि यह किसान गरीब है। संन्यासी ने उस किसान से कहा, मैं उस प्रदेश को जानता हूँ, जहाँ थोड़े से पैसे में बहुत ज़्यादा जमीन मिल जाती है और वे जमीनें बहुत ही उत्तम किस्म की है इसलिए यहाँ की जमीन बेचकर वहाँ खरीद लो। किसान को वासना जागी, लालच आ गया।
सचमुच बात तो सही निकली। जब उसने अपनी इच्छा गाँव वालों से कही तो गाँव के लोगों ने
कहा, तुम सारा पैसा दे दो और सूर्योदय से चलकर सूर्य ढलने तक
जितनी जमीन घेर सकते हो, घेर लो। शर्त बस एक ही है कि जहाँ से
चले थे वहीं एक सूर्य ढलने से पहले पहुँच जाना है। कितनी जमीन घेरनी है, कैसे चलना है इसी उधेड़बुन और योजना बनाने में उसकी सारी रात निकल गई।
दूसरे दिन नियत जगह से गाँव के लोगों ने खुशी-खुशी उसे विदाई दी। उसने सोचा-चलने से कितनी जमीन मिल सकेगी? क्यों न दौड़ लगाऊँ दौड़ के साथ उसने अपनी यात्रा प्रारम्भ की। भागा और तेज भागा.... भागता गया। दिन के 12 बज गये। अब वह दौड़-दौड़ कर काफी थक भी गया था। उसने सोचा अब उसे वापस भी लौटना चाहिए। लेकिन लालच ने उसे फिर आ घेरा। क्योंकि आगे की जमीन और भी अधिक सुन्दर थी। उसने सोचा क्यों न थोड़ा और घेर लें। ज़िन्दगी भर तो विश्राम ही करना है।
लालचवश अपने सामर्थ्य को भूल उसने और तेज दौड़ लगाई। अब तो दिन के दो बज रहे थे....। सूरज ढलान पर था। `अब उसे वापस लौटना चाहिए', उसने ऐसा सोचा, परन्तु लौटने की तो उसे इच्छा नहीं हो रही थी, लेकिन उसे लौटना ही पड़ा। सारे दिन की तेज दौड़ से उसकी सारी ताकत समाप्त हो चुकी थी। फिर भी हिम्मत करके दोड़ा, भोजन-पानी भी फेंक दिया।
सोचा, खाने-पीने में भी थोड़ा समय लगेगा। आज ही तो भूखे रहना है, फिर ज़िन्दगी भर खाता रहूँगा। सूरज ढलने के समीप था। घबराहट और थकान से उसकी साँसें टूटने लगी थीं। अब तो उसे गाँव के लोग भी दिखाई दे रहे थे, तथा उनके `जल्दी दौड़' और `तेज दौड़' की, उमंग-उत्साह की आवाज़ भी उसे सुनाई दे रही थी।
अपनी निर्धारित दूरी से कुछ फासले
पर वह बदकिस्मत किसान गिर गया। घिसटते-घिसटते जब वह निश्चित जगह
पर पहुँच ही रहा था कि उधर सूरज डूब गया। वह शर्त पूरी तरह हार चुका था। आखिरी श्वास
ने भी उसका साथ छोड़ दिया। शायद अत्यधिक मेहनत के कारण उसका हार्ट फेल हो गया था। सभी
लोग आपस में हँसने-बोलने लगे, पागल लोगों
की इस दुनिया में कोई कमी नहीं।
देखो! कोई भी इस जमीन का मालिक नहीं बन सकता। यही तो आम लोगों की ज़िन्दगी की कहानी है। सुबह-दोपहर-शाम, लोग पूरी ज़िन्दगी दौड़ते रहते हैं। कल जी लेंगे, आज थोड़ा बैंक-बैलेन्स हो जाए। थोड़ी जमीन और घेर लें, कल जीयेंगे और कल तक कोई भी नहीं जीता। चाहे वह गरीब हो या अमीर, सभी अतृप्त कामना के साथ ही मर जाते हैं। भरपूर जीवन कोई भी नहीं जीता।
इसके लिए चाहिए, थोड़ा विश्राम, थोड़ी शान्ति, थोड़ी समझ और थोड़ा बोध कि मैं आत्मा हूँ,
प्रभु की सन्तान हूँ, शान्ति, आनन्द मेरा स्वभाव है। जगत का समस्त वैभव इन्द्रियों की तृप्ति की सुविधा और
आश्वासन तो दे सकता है, परन्तु सच्चा सुख नहीं। ज़रा सोचिए,
आपको कितना चाहिए।