(भाग 9 का बाकि)
क्या आपके पास शिक्षा का अभाव है? चिन्ता की कोई बात नहीं। यदि आपके पास धन की कमी है, फिर भी कोई बात नहीं। यदि आपको लोग नहीं जानते हैं तो भी विचलित होने की कोई ज़रूरत नहीं। बिना इन उपलब्धियों के भी सिर्फ आत्म-विश्वास के बल पर लोगों ने अपने जीवन के महान् उद्देश्यों को प्राप्त कर लिया। आप भी कर सकते हैं। महान् उद्देश्य से सम्पन्न उस कार्य को जिसे आप चुनते हैं, ईमानदारी से प्राप्त करने की सच्ची इच्छा होनी चाहिए। दृढ़ निश्चय और अटल विश्वास तथा बाह्य शक्तियाँ सक्रिय हो ही जायेंगी।
दूसरी ऐसी घटनाएँ घटेगा कि वे
सभी अदृश्य शुभ शक्तियाँ चुम्बक की तरह आपकी सफलता में आपको सहयोग देने के लिए अपने
आप आकर्षित हो जायेंगी, जो आपके प्रयत्न को और भी सक्रिय और शक्तिशाली
बना देंगी। यही तो प्रभु का सहयोग है। जैसे-जैस हमारा सम्पर्क
उस अदृश्य शक्तियों से होता चला जायेगा, वैसे-वैसे वे सभी अदृश्य साधन, जो इन आँखों से दिखाई नहीं
देते थे, अब दिखने लगेंगे। द्वंद्वों और शंकाओं वाली अनिर्णय
की स्थिति से निकल मनुष्य को अपने समय को आत्म-विश्वास को शक्तिशाली
करने में लगा देना चाहिए।
संसार में ऐसे लोगों की भी कोई कमी नहीं जो स्वयं तो हिम्मतहीन और असफल होते ही हैं दूसरे पुरुषार्थी को भी नकारात्मक सुझाव देने से बाज नहीं आते हैं। अक्सर वे यह कहते आपको मिल जायेंगे –– अरे भाई, यह आपके वश की बात नहीं है। आप में उन लोगों जैसी योग्यता और बल नहीं है जो दूसरे सफल लोगों में हैं। इस तरह के लोग अपने भाग्य और भगवान को कोसते हुए भी मिल जायेंगे।
वे अपनी असफलता के
कारणों का पुनर्मूल्यांकन नहीं करते कि सफलता के लिए जिन सभी आवश्यक सूत्रों की ज़रूरत
थी उसके अनुसार उन्होंने पुरुषार्थ ही नहीं किया। एक दृढ़ निश्चय वाले आत्म-विश्वासी व्यक्ति को अपनी दृढ़ता से उन कमज़ोर सुझावों को ठुकरा देना चाहिए।
एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा कि वही लोग आपसे प्रभावित होकर आपकी योग्यता पर विश्वास कर,
आपसे मार्ग-दर्शन की अपेक्षा करने लगेंगे।
खून को जमा देने वाली बर्फीली हवाओं में भी अति मुश्किल आल्पस की पर्वत-श्रृंखला को पार कर नेपोलियन ने संसार को यह दिखा दिया था कि आत्म-विश्वास के बल पर पर्वत जैसी समस्या को भी राई जैसा कर दिया जा सकता है। यदि वे अपने परामर्शदाता के कमज़ोर संकल्प को मान लेता तो शौर्य का ऐसा अद्भुत कार्य सम्भव नहीं हो सकता था।
``जैसा मैं करूँगा, मुझे
देख दूसरे भी वैसा ही करेंगे''। यदि आप आत्म-विश्वास के धनी है तो आपके चारों तरफ उसी तरह के वायुमण्डल का निर्माण प्रारम्भ
होने लगेगा। क्योंकि विचार और भावनाएं स्वत ही फैलकर अपने चारों ओर के व्यक्तियों में
प्रवेश कर जाते हैं। इसलिए आपका आत्म-विश्वासी बनना स्वत ही दूसरे
के कल्याण के लिए प्ररेणा स्तम्भ का कार्य करने लगेगा।
आत्म-विश्वास का अर्थ है किसी कार्य को सफलतापूर्वक कर सकने में अपनी आन्तरिक शक्तियों पर विश्वास। स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे –– ``जिसमें आत्म-विश्वास नहीं है, उसमें अन्य वस्तुओं के प्रति विश्वास कैसे पैदा हो सकता है''। यही तो हमारी उन्नति का आधार है। जब कोई भी मित्र आपकी मदद नहीं करे तो अपने अन्दर के मित्र आत्म-विश्वास से मिलिए। वहाँ से आपको प्रतिपल हाँ में ही उत्तर मिलेगा।
आत्म-विश्वासी व्यक्ति में अपने कार्य
के लिए उमंग-उत्साह के बल का प्रवाह स्वत ही उसकी ओर मुड़ जाता
है। आत्म-विश्वास की ज्योति कभी मंद नहीं हो, इसकेलिए अपने आत्म-विश्वास को सतत् स्फूर्तिदायक नूतन
विचारों का घृत डालते रहिये। असफलता और कठिनाईयों के कार्बन को सतत् प्रयत्न द्वारा
उसके अग्र भाग से निकालते रहिये। सकारात्मक विचारों का काँच उस ज्योति को चारों तरफ से घेरे रहे, ताकि उसकी दीवारों से व्यर्थ संकल्पों का तूफान टकरा कर वापिस लौट जाये और उस निर्मल आलोक
में आपका जीवन-पथ ज्योतिर्मय रहे।
लोग चाहे हमारे विचारों की हँसी उड़ावें, हमें हवाई
किले बाँध ने वाला समझे, परन्तु यदि हममें पूर्ण आत्म-विश्वास होगा तो हम हवा में किला बनाकर भी उन हँसने वालों को लज्जित कर देंगे।
जब तक हममें आत्म-विश्वास है, तब तक हम
संसार में सबकुछ करके दिखला सकते हैं।
–– बालंगगाधर तिलक
ज़रा सोचिये, 50 वर्ष से भी अधिक समय हो गये इस आत्म-विश्वास से भरे हुए संकल्प को कहे हुए। आज तो हवा महल की कल्पना भी साकार हो रही है। अब तो लोग अंतरिक्ष की यात्रा कर रहे हैं। बस अब किराये की बात है। आप उड़ रहे किसी पंछी से भी अधिक कुशलता से उड़ सकते हैं। आप तैर रहे सागर की अतल गहराईयों में ह्वेल (मछली) से भी अधिक कुशलता से तैर सकते हैं।
उन बर्फीली उत्तंग हिमशिखरों को भी पार कर सकते हैं। क्या ये सभी मनुष्य
के आत्म-विश्वास का प्रतिफल नहीं है? आज
मनुष्य इस दिशा में प्रयासरत है कि टेलीपैथी के द्वारा दूर अतंरिक्ष में कैसे अपने
विचारों को संप्रेषित कर सूचना देने और लेने का कार्य किया जा सके। क्योंकि यदि सूचना
तकनीकी में कोई खराबी आ गई तो हमारा सम्बन्ध ग्रहों की यात्रा कर रहे व्यक्तियों से
विच्छेदित हो सकता है।
14. शक्तियों का सफलता के मार्ग में दुरुपयोग –– `चमत्कार' : यह आप पर निर्भर है कि उस शक्ति को श्रेष्ठ और शुभ फल पाने में लगाते हैं या अपनी निकृष्ट इच्छा को पूरा करने में। सफलता के मार्ग में अग्रसर होने वाले जितने भी पुरुषार्थी हुए हैं या अभी भी हैं उनके अंतर्मन में कहीं-न-कहीं भौतिक उपलब्धियों और अभौतिक सिद्धियों के प्रति एक सूक्ष्म आकर्षण अवश्य रहा है।
जिन्होंने भी इन आलौकिक शक्तियों
या सिद्धियों के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझा वह या तो सहज जीवन के मार्ग से भटक गये
या फिर जीवन के उच्च नैतिक जीवन के दिखावे वाली मदारीगिरी में फंस कर अपना जीवन तबाह
कर लिया। एक तुलनात्मक विवेचन द्वारा इस बात का और अत्यधिक स्पष्ट स्वरूप आपके सामने
हो ताकि आने वाले समय में हर सिद्धि के विभिन्न पहलूओं को अच्छी तरह जानकर अपने लक्ष्य
को पा सकने में सफलता प्राप्त कर सकें।
चमत्कारिक शक्तियाँ को प्राप्त करने का मार्ग : किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने का अनादि सत्य सिद्धाँत रही हैं –– शक्तियाँ। चाहे वह भौतिक हो या अभौतिक, तन की, धन की, जन की, मन की या विज्ञान की हो या अन्य कोई भी शक्ति हो, इन शक्तियों को प्राप्त करने का मौलिक आधार रहा है, चेतना या मन की एकाग्रता। जिसे हम संकल्प-शक्ति या मानसिक शक्ति कह सकते है।
इसकी साधना विधि है –– ``मन की एकाग्रता''। पौराणिक या वैदिक युग के ऋषियों ने एकाग्रता के द्वारा मानसिक शक्ति प्राप्त करने के कुछ सूत्र खोल लिए थे ताकि एक स्वस्थ मन वाले व्यक्ति का निर्माण हो। लेकिन काल-क्रम में परिवर्तन के साथ धीरे-धीरे यह महत्त्वपूर्ण सूत्र कुछ स्वार्थी तत्वों के हाथों में चला गया और सूत्रकार के मूल उद्देश्य खोते चले गये। सामाजिक जीवन से दूर ऐसे लोगों ने एक नये मार्ग की स्थापना की। हिन्दूओं ने इसे वाममार्ग कहा। बौद्धों में भी बौद्ध लामाओं ने भी इस तरह का मार्ग अपनाया।
इन दिनों का मिलाजुला मार्ग तत्र मार्ग,
मंत्र मार्ग, अघोर पंथ इत्यादि कहलाए। इसकी चर्चा
यहाँ हम विस्तार से नहीं करते। तंत्र, मंत्र, यंत्र अनेक तरह के अनुष्ठान, कर्मकाण्ड इत्यादि द्वारा
आसुरी मानसिकता के लोग मन को एकाग्र कर अनेक प्रकार की शक्तियों का संचय कर उसका दुरुपयोग
करते रहे हैं और इस तरह से प्राप्त सफलता अंतत उनके लिये विफल और दुःखमय जीवन की निष्पत्ति
बनी।
पहले शक्ति आवश्यक है या शुद्धि : अन्तकरण की शुद्धि
से पहले शक्ति प्राप्त करने वाले लोगों की शक्ति को प्राय लोग आसुरी शक्ति ही कहते
हैं। शुद्धि अर्थात् आत्मा की निर्मलता, मधुरता, कोमलता और शीतलता। इस गुण को प्राप्त करने के बाद शक्ति प्राप्त करने वाले
व्यक्ति की शक्ति को दैवी शक्ति कहते हैं। जैन आगमों में दो तरह के ध्यान की चर्चा
है –– अधर्म ध्यान और धर्म ध्यान अर्थात् शुभ संकल्प की एकाग्रता।
अधर्म ध्यान अर्थात् अशुद्धि संकल्पों की एकाग्रता। यदि अन्तर्मन शुभ नहीं है तो शक्ति
का दुरुपयोग अनिवार्य रूपेण सम्भव है।
उदाहरण : रासपुतनिक का नाम तो आप सबने सुना ही होगा। बड़ा ही शक्तिशाली मन वाला व्यक्ति हुआ था रूस में। उसने ज़ार और उनकी पत्नीयों को सम्पूर्ण रूप से प्रभावित कर रखा था। कहते हैं कि ज़ार के राजतत्र पर उसका सम्पूर्ण प्रभाव था। ज़ार का एक ही लड़का था जो अस्वस्थ रहा करता था। रासपुतनिक ने अपने पराशक्ति या संकल्प-शक्ति से उसे स्वस्थ कर दिया था। वह चमत्कारिक शक्तियाँ उसने पूर्व के सभी योग की पद्धतियों पर, यहाँ तक कि तिब्बत के लामाओं के योग की पद्धतियों को गहरी साधना करके हाशिल की थी।
उसके इस अनूठी शक्ति के दुरुपयोग और अन्तर्मन की अशुद्धि के कारण ज़ार की राजाई और पूरे रूस को तवाही के कगार पर पहुँचा दिया था। कहते हैं जब वंति के बाद उसे सजा-ए-मौत मिली तब उसे इतना ज़हर पिलाया गया कि जिससे 500 आदमियों की मृत्यु हो सकती थी। लेकिन आश्चर्य! वह बेहोश तक नहीं हुआ। उसे करीब 20-22 गोलियाँ मारी गईं लेकिन फिर भी वह नहीं मरा। अन्त में रस्सियों से जकड़ कर पत्थर के साथ उसे वोल्गा नदीं में फेंक दिया गया।
आश्चर्य! जब उसकी लाश परिक्षण के लिए डॉक्टर
को मिली तब तक उसने रस्सियों से अन्तत अपने को मुक्त कर लिया था। आप अनुमान लगा सकते
हैं कि कितनी चमत्कारिक शक्ति उसने एकाग्रता के बल पर इकट्ठा कर ली थी। लेकिर अफसोस
कि उसने अपना अन्तर्मन शुद्ध नहीं किया। इतना शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति
भी हृदय शुद्धि के अभाव में विनाश को प्राप्त हुआ।
चमत्कारिक शक्तियों का स्थान बिना शुद्धि के अर्थहीन है। चमत्कारिक शक्तियों से पहले आत्मा की शुद्धि का स्थान महत्त्वपूर्ण है। आन्तरिक शुद्धि साधना का प्रथम अपरिहार्य अंग है। इसलिए बुद्ध ने अपने भिक्षुकों को चार ब्रह्म-विहार को पहले साधने को कहा था : करुणा, मैत्री, मृदिता और उपेक्षा। फिर योग की साधना के लिए उन्होंने अपने भिक्षुओं को कहा था। पतंजलि ने भी पहले हृदय शुद्धि के लिए अष्टांग योग में प्रथम उन पाँच बातों को रखा है : यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार। उसके बाद उन्होंने धारणा, ध्यान और समाधि की चर्चा की है।
सर्वशक्तिवान परमात्मा ने जो सहज राजयोग सिखाया है, उसमें उन्होंने सबसे अधिक बल पहले शुद्धि को दिया कि आत्माओं, पहले अपने संस्कारों को शुद्ध करो, अन्न को शुद्ध करो, मन को शुद्ध करो और विचारों को शुद्ध करो। यदि साधक के जीवन में आत्मा की पवित्रता से पहले संकल्प-शक्ति चमत्कारिक सिद्ध के रूप में हासिल हो जाए, फिर उसके क्या गहरे परिणाम हो सकते हैं उसे एक बात से स्पष्ट करते हैं।
एक व्यक्ति से हमने पूछा –– ``मान लिजिए, आपको यह शक्ति मिल जाये कि आप जो संकल्प करेंगे वह पूरा हो जाये या फिर आप जब चाहो अदृश्य होकर कहीं चले जा सकते हो तो फिर आप सबसे पहला काम क्या करेंगे?'' वह हँसने लगा और बोला ––``भाई, सबसे पहले तो मैं बैंक से अदृश्य होकर पैसा ले आऊँगा, फिर दूसरा काम यह करूंगा कि वह व्यक्ति जो कांटा बनकर मेरे मार्ग अड़ा है, उसे हटा दूंगा''।
मैं सुनता रहा, वह कहता रहा। काम, क्रोध, मोह, लोभ अहंकार सभी विकारों के वश उसने अपनी महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने की बात कही। फिर जब मैंने कहा –– मित्र, तुमने यह तो नहीं बताया कि मैं अदृश्य होकर किसी रोगी की सेवा कर आऊँगा, किसी प्यासे को पानी पिलाऊँगा, किसी अशान्त आत्मा को शान्ति प्रदान कर आऊँगा, यह सुन वह बड़ा शर्मिन्दा हुआ। मैंने अपने आपसे कहा, वाह रे अशुद्ध मन वाला व्यक्ति।
आप भी सोचिये,
कोई भी सोचे या मनोविकारों पर बहुत कुछ विजय प्राप्त कर लेने वाला एक
साधक भी सोचे कि यदि उसे वह चमत्कारिक सिद्ध मिल जाए तो वह दूसरे का कल्याण कितना और
अनर्थ कितना करेगा?
वैसे तो मानव मात्र के कल्याण के लिए श्रेष्ठ संकल्प और श्रेष्ठ कर्म की सफलता एक अनादि सत्य सिद्धाँत है, लेकिन ऐसी चमत्कारिक शक्तियों से होने वाले अनिष्टों से हमें दूर रहना चाहिए। एकाग्रता भी परमात्मा के स्वरूप और मंगलकारी विचारों पर ही हमें करना चाहिए। उस एकाग्रता से प्राप्त शुभ संकल्पों की शक्ति जीवन में शान्ति और दिव्यता को जन्म देगी।
मानव देवत्व की सम्पूर्ण मंज़िल उपलब्ध कर लेगा। जब तक ये सभी दिव्य गुण और दिव्य शक्तियाँ जो जीवन के व्यवहार और संस्कार को सम्पूर्ण रूप से परिमार्जित नहीं कर दे तब तक हमें इस चमत्कारिक शक्तियों के प्रति स्वप्न में भी आकर्षित नहीं होना चाहिए। उन्हें यथार्थ के धरातल पर कर्मयोगी जीवन द्वारा दुनिया के सामने एक निष्कलंक, प्रमाणिक जीवन जीना है। जिससे आने वाली दैवी दुनिया या स्वर्णिम दुनिया का सम्पूर्ण आदर्श स्थापित हो सके।
वैसे जिसका
जीवन संकल्प तक भी मानव कल्याण के लिए समर्पित हो जाता है उन्हें यह चमत्कारिक शक्तियाँ
परमात्मा से प्रसाद रूप में अवश्य ही प्राप्त हो जाती है, लेकिन
फिर परमात्मा जैसी वह आत्मा भी उन शक्तियों को अकल्याण के लिए कभी भी प्रयोग नहीं करता।
अन्तकरण की शुद्धि के अभाव में इन चमत्कारिक शक्तियों से आत्माओं को जितनी खुशी का
अनुभव होता है उससे भी अनन्त गुण अविनाशी खुशी मात्र परमात्मा की याद से, ईश्वरीय सेवा से, दिव्यगुणों की धारणा से तथा श्रेष्ठ
ज्ञान की स्मृति से सम्भव है। फिर उस नुकसान भरी प्राप्तियों के लिये क्या सोचना। कलियुगी
जीवन के अन्त में प्रभु-मिलन और प्रसन्नता भरे जीवन की उपलब्धि
भी किसी चमत्कार से पद्मगुणा चमत्कारी है।