दृष्टिकोण (Part 3)

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(भाग 2 का बाकि)

1. निन्दा का नकारात्मक दृष्टिकोण –– दृष्टिकोण वह दपर्ण है जो आपके मानसिक प्रतिबिम्बों को दर्शाता है। यह सभी जानते हैं कि ``परचिन्तन पतन की जड़ है''। अगर और लोगों की बात को छोड़ भी दें तो वे लोग जो समृद्ध जीवन के पथिक हैं, जिन्हें सम्पन्नता और सम्पूर्णता के शिखर पर पहुँचना है, उनके लिए तो यह बात अत्यधिक रूप से महत्त्वूपर्ण है।

परचिन्तन अर्थात् निन्दा-चुगली। अक्सर लोग निन्दा में बहुत अधिक रस लेते हैं, परन्तु क्यों? शायद गहरे में हमारी अन्तर-दृष्टि निन्दा से होने वाली हानियों को विस्तार से देखने में अति संवेदनशील नहीं है। तो आइये निष्पक्ष ढंग से इसके विभिन्न पहलुओं को अपने निर्मल-चिन्तन के आलोक में देखें।

नकारात्मक वक्तव्य को असिद्ध करना कठिन है, सकारात्मक वक्तव्य को सिद्ध करना कठिन है। नकारात्मक वक्तव्य अर्थात् अवगुण और हानिकारक पहलुओं की चर्चा।

निन्दा का अर्थ है –– नकारात्मक वक्तव्य। नकारात्मक वक्तव्य सदा सहज दिये जा सकते हैं। निन्दा का बड़ा सस्ता मनोविज्ञान है। इससे लोगों के मन में ऐसे भ्रम पैदा होते हैं जैसे हम सभी लोगों के सामने बड़े ही बुद्धिवान और प्रतिभा सम्पन्न हैं। न हींग लगे, न फिटकरी, रंग चोखा-ही-चोखा। इसलिए निन्दा में सभी लोग कुशल हैं। अब देखिये ना, किसी भी चीज़ के सकारात्मक पहलु को सिद्ध करना बड़ा ही कठिन कार्य होता है।

जैसे अब कोई कहे कि परमात्मा है और इसे सिद्ध करें, तो बड़ी ही कठिनाई है। सिद्ध करने वाले को पूरा जीवन ही तपस्या से गुजारना होगा और ये तपस्या है ––  अनन्त की शुद्धि करो, संस्कार परिवर्तन करो, ब्रह्मचर्य को धारण करो या मेडिटेशन करो इत्यादि... इत्यादि। तब कहीं जाकर कोई आनन्द को, प्रेम को, पवित्रता को उपलब्ध कर पाते हैं और उस आनन्द का अनुभव जब किसी को करा दिया जाये तब ही परमात्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया जा सकता है यदि परमात्मा के अस्तित्व को इंकार करना हो तो इसके लिए कुछ भी करना अनवार्य नहीं है। 

थोड़ी-सी तर्क कुशलता चाहिए। बुद्धिमानी की बात नहीं है। बुद्धु से बुद्धु आदमी भी नास्तिक हो सकता है। निन्दा का मनोविज्ञान है। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है मैं किसी से कम नहीं, मैं सबसे बड़ा हूँ। मेरे अहंकार को प्रतिष्ठा मिले और इसे सिद्ध करना बड़ा ही कठिन है क्योंकि अगर प्रत्येक व्यक्ति ये सिद्ध करने लगे कि मैं सबसे बड़ा हूँ, तो करोड़ों मनुष्यों के बीच एक घमासान युद्ध छिड़ जाये।

लाखों-करोड़ों के बीच, कौन किससे जीतेगा, तो हार निश्चित है। इसलिए मन ने एक चालाकी चली कि चलो यह तो सिद्ध करना कि मैं सबसे बड़ा हूँ यह तो कठिन है परन्तु यह तो सिद्ध किया जा सकता है कि मेरे से कोई बड़ा नहीं है और इस कारण निन्दा का एक नकारात्मक दृष्टिकोण लोगों का बन गया।

निंदा अर्थात् अपरोक्ष रूप से अपनी प्रशंसा –– जब भी हम कहते हैं कि फलां आदमी बुरा है तो अन्दर से हम यह कह रहे हैं कि हम इससे अच्छे हैं और आपने सिद्ध कर दिया कि मैं सच्चा हूँ। दुनिया में जितने भी बुरे लोग हैं, वे सभी निन्दा में संलग्न है। वे दूसरों की बुराई का इतना प्रचार-प्रसार करते हैं कि आप सोच भी नहीं सकते कि ये बुरे हो सकते हैं।

निन्दा का एक ही उद्देश्य है –– अपनी बुराई को छिपाना। जब हम दूसरे की बुराई को बहुत बड़ा करके बताते हैं, अपनी बुराई उतनी ही छोटी लगने लगती है। इसलिए ऐसा लगने लगता है कि चलो, दूसरों से तो हम बेहतर ही हैं। हमें किसी की कमज़ोरी देखने की आँखें बन्द कर मन को अन्तर्मुखी बनाना चाहिए। क्योंकि आत्म-चिन्तन उन्नति की सीढ़ी है, यही निन्दा का रस है। आज का समाचार पत्र इस निंदा रस पूर्ति का श्रेष्ठ साधन है।

हाँ, तो प्रतिदिन के जीवन में आप सभी देखते हेंगे कि ऐसे समाचार, चाहे वह किसी योगी का प्रेम प्रकरण हो, या कोई शिक्षा मत्री भष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार हो गया हो या किसी पड़ोसी की पत्नी भाग गई थी। ऐसी खबरें सुनते लोग कैसे पलक-पांवड़े बिछा देते हैं। आश्चर्य! सुनाने वाला यदि सार में कहकर जाने लगता तो सुनने वाले बड़े आग्रह से कहते हैं –– ज़रा विस्तार से सुनाइये भई, आराम से बैठो, चाय-पानी पीकर जाओ।

खोद-खोद कर लोग पूछते हैं। लोग कितने एकाग्र हो जाते हैं, चौकन्ने हो जाते हैं कि दुनिया तक भूल जाते हैं। लेकिन इस निन्दा में रस क्यों है? चाहे कोई बड़ा व्यक्ति अपने चरित्र से फिसल जाये, कोई मंत्री, कोई समाज-सेवक या कोई साधू-सन्त, कोई भी अच्छा आदमी छोटी-सी भी गलती भूल से करता है तो कैसे रातों-रात खबर फैल जाती है। जैसे सृष्टि में कोई अनूठी घटना घट रही हो। कैसे निन्दा का रस फैलता है। लोग एक का चार गुना, दस गुना बढ़ा-चढ़ाकर चर्चा करते हैं।

क्योंकि लोगों की यह आकांक्षा है कि तुम ज़रा फंसो, ज़रा फिसल कर गिरो। ताकि लोगों को यह पता चल जाये कि तुम बड़े कुछ भी नहीं हो। तुम्हारी प्रतिष्ठा कुछ भी नहीं है। तुम तो हमारे से भी गये-बीते हो। तुम्हारे से अच्छे तो हम ही हैं। और तब निन्दा से एक गलत सन्तुष्टि पैदा होती है। कमाल है लोग छोटी-छोटी बातों को बड़ी करके फैलाते रहते हैं और दूसरे उसे विश्वास से स्वीकार करते हैं।

नकारात्मक दृष्टिकोण : देखिये ना, यदि कोई कहता है कि फलां आदमी बहुत अच्छा प्रवचन करता है, तक्षण दूसरे लोग इस गुण को अस्वीकार कर देते हैं। कहते हैं। हाँ-हाँ ऐसे ज्ञान सुनाने वाले बहुत देखें हैं। अरे, अच्छे-अच्छे का पतन हो जाता है, कहने और करने में बड़ा अन्तर है। देखना, आज नहीं तो कल इसके संस्कार का भी पता चल जायेगा। मतलब उसकी अच्छाई स्वीकारने से यह लगता है कि मैं सबसे बड़ा नहीं हूँ। तो फिर निन्दा का रस...। दूसरी तरफ, कोई हमसे कहे कि फलां व्यक्ति चोर है, कल उसने गाली दी, किसी को ठग लिया तो हम उसी क्षण उसे स्वीकार कर लेते हैं। उसने ऐसा ज़रूर किया होगा। हम मान ही बैठे हैं कि हमारे सिवाए सभी बुरे हैं।

सिर्फ पता ही नहीं चलता है। समय पर सबका पता चल जायेगा। हमारी हालत तो ऐसी है कि जैसे ही कोई कहे फलां आदमी कितना अच्छा ज्ञान सुनाता है। तक्षण हम उसे अस्वीकार कर देते हैं। कोई--कोई कारण ढूँढ़ लेते कि क्या खाक ज्ञान सुनायेगा, कल तो यह फलाने व्यक्ति पर गुस्सा कर रहा था। लेकिन यदि कोई कहे कि फलां व्यक्ति गुस्सा कर रहा था तो हम यह नहीं कह पाते कि अरे वह इतना अच्छा ज्ञान सुनाता है कि लोग आनन्द में मगन हो जाते हैं फिर वह गुस्सा कैसे करता होगा?

अब ज्ञान सुनाने में क्या अड़चन है उसके लिए। ठीक है कभी गुस्सा भी आ जाता होगा, परन्तु हम ऐसा नहीं सोचते यह सकारात्मक दृष्टिकोण का अभाव है।

इस पूर्व प्रतिबद्ध मान्यता को ``कि हमारे सिवाए सभी बुरे हैं'' जो भी सहारा दे देता हम तक्षण उसे स्वीकार कर लेते। दुनिया में जब किसी का पतन होता है तो लोगों को बड़ी राहत, एक हल्कापन महसूस होता है। लोग तो हाथ बांधे खड़े रहते हैं कि काश किसी का चरित्र भ्रष्ट हो जाये। चरित्र तो बनाना मुश्किल है, किसी के जीवन को महिमा मण्डित कर देना तो अत्यधिक कठिन है, लेकिन उसकी महिमा छिन जाये, इसके लिए बढ़ा-चढ़ा कर चर्चा करना आसान है।

निन्दा में जितनी दूसरे की बुराई होती है उतनी ही अपने भीतर अच्छाई के अहंकार की प्रतीति होती है। लोग दूसरों की प्रशंसा तो बड़े बेमन से करते हैं। या तो मज़बूरी में कभी कुछ पाने की आकांक्षा से या तो कभी किसी भय से। और गहरे में निन्दा चेतना पर सघ्ना अन्धकार की परत-दर-परत बनाती चली जाती है। नूतन स्वर्णिम-सृजन के लिए उमंग-उल्लास कारक जीवन रस समाप्त हो जाता है। यह नकारात्मक दृष्टिकोण धीरे-धीरे प्रेम और करुणा की संभावनाओं को समाप्त कर देता है। घृणा और निन्दा को देखते-देखते जीवन दीनहीन, दरिद्र हो जाता है।

परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि हम आँख बन्द करके जिए। सच्ची बात कही जा सकती है लेकिन उसे हम आलोचना कहते हैं। क्योंकि कभी-कभी दोनों समान लगते हैं –– निन्दा और आलोचना दोनों में सूक्ष्म भेद है। आलोचना होती है करुणा से, निन्दा होती है घृणा से। आलोचना तो किसी में शुभ जागरण का प्राण पूँकती है, जबकि निन्दा मिटाने का मूलमंत्र बन जाता है।

आलोचना का अर्थ है जीवन में सत्य के पहलुओं का अन्वेषण। यह कभी कठोर भी हो सकता है। लेकिन धूल में पड़े हीरे को धो देना, शुद्धि कर उसे अपनी गरिमा में प्रतिष्ठित कर देना ही आलोचना का वास्तविक लक्ष्य है। आलोचना तो मैत्रीपूर्ण है, जिससे व्यक्ति में सर्वांगीण रूपान्तरण हो जाता है। निन्दा का लक्ष्य है किसी के अहंकार को मिट्टी में मिला देना, उसे पैरों तले रौंद देना या फिर किसी तरह आत्मा को चोट पहुँचा देना।

निन्दा चाहे कितनी ही मधुर हो लेकिन वह ऐसे है जैसे शहद में लिपटा विष, उसे ऐसा समझे। जब चोर पर हमला करो तो निन्दा, चोरी पर हमला करो तो आलोचना। जब हम पापी पर हमला करते हैं तो निन्दा और जब पाप पर करते हैं तो आलोचना।

यदि निन्दा के इस विष-बेल से जीवन को बचाना है तो श्रेष्ठ और शुभ संकल्पों की अमरबेल जीवन में लगाइये। अपने सकारात्मक दिव्य-विचारों द्वारा सभी के अन्तर में उमंग-उल्लास की आशा का संचार कीजिये। अपने दीप्तमान तेजस्वी स्व-पर-हिताय संकल्प, बोल और कर्म के द्वारा विश्व-मानव का विश्वमंगल की कामना में यत्नशील हो जाइए। 

जीवन-निन्दा के विष से मुक्त हो जाये तब आप विलक्षण आनन्द से आत्म-विभोर हो जायेंगे, और सर्वत्र सफलता-ही-सफलता दृष्टिगोचर होने लगेगी। सर्व आत्माओं को राजी करने वाले ही विश्व का राजा बनेंगे। निमित्त अर्थात् निर्माण रहने वाला ही विश्व का नव-निर्माण कर सकता है।

शेष भाग - 4

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।

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