(भाग 1 का बाकि)
अच्छे दृष्टिकोण को जीवन में कैसे लाएँ?
फूल की सुन्दरता और उसकी खुशबू देखें, उसके काँटे को नहीं। सृष्टि विविधताओं का अनोखा संगम है। इस विराट रंगमंच पर जहाँ एक-दूसरे में जटिल, परन्तु आवश्यक अन्तर सम्बन्ध माला की तरह गुँथा हुआ है वहीं प्रत्येक चीज़ और प्रत्येक मनुष्य का अपना-अपना अलग ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। ऐसा लगता है कि रचनाकार ने अपनी अद्भुत कृति में विविध रंगों का इतना सुन्दर सामंजस्य बिठाया है कि प्रत्येक इकाई अद्भुत है, जो एक नहीं मिले दूसरे से।
चाहे वह मनुष्य हो या प्रकृति, ऐसा लगता है कि प्रत्येक का अभिनय आश्चर्यजनक, विलक्षण
और अनिवार्य है। यदि इसकी एक कड़ी का अभिनय भी समाप्त कर दिया जाये तो पूरी शृंखला
बिखर जायेगी। जगत-लीला सतो, रजो और तमो
का अद्भुत मिलन बिन्दु है।
यदि सबकुछ इतना अनिवार्य हो जाये, फिर क्यों न इसके
विशाल, परन्तु सत्य सिद्धाँत को स्वीकार कर विशाल और उदात्त दृष्टिकोण
बनाया जाये। फिर किसी में कोई बुराई हो या किसी में कोई चरित्रगत दोष चिन्ता कैसी?
क्यों नहीं उसकी गलतियों को देखना छोड़ उसके अच्छे गुणों को प्रकाश में
लाकर उसके आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास
को बढ़ाकर एक सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास किया जाय।
जैसे दृष्टिकोण की अपेक्षा हम दूसरों से अपने प्रति रखते हैं, क्या वैसा ही दृष्टिकोण हम दूसरों के प्रति नहीं रख सकते हैं? कितना अच्छा होता कि हमारी दूर की दृष्टि कमज़ोर और नज़दीक की दृष्टि शक्तिशाली होती। ताकि हम खुद की गलतियों का सुधार कर पाते। किसकी चादर में दाग नहीं? तभी तो गीता में कलियुग के अन्त में परमात्मा अपनी आने की घोषणा करते हैं।
लोग अगर पापी नहीं हों तो फिर परमात्मा को इस धरा पर अवतरित होने की क्या ज़रूरत है।
यदा-यदा-हि-धर्मस्य...
अवगुण और गलती ढूँढ़ने की आदत हम पर इस कदर हावी है कि इसे हम सभी व्यक्ति
में और सभी हालात में ढूँढ़ लेते हैं। सही चीज़ों पर तो हमारी नज़र ही नहीं पड़ती है।
इसका यह अर्थ भी नहीं है कि गलतियों, चरित्रगत दोषों या किसी
भी कमी का पुर्नमूल्यांकन, उसकी आलोचना और उसका विश्लेषण नहीं
किया जाये।
एक कहावत है कि –– ``बन्द घड़ी भी 24 घण्टे
में दो बार ठीक समय देती है''।
जब भी कोई समाज सुधारक या धर्म प्रवर्तक अपने महान् उद्देश्य के प्रति कार्य करते
हैं तो उन्हें अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है, परन्तु उनकी दृष्टि सदा श्रेष्ठ और शुभ व्यक्तित्व के निर्माण की ओर ही लगी
रहती है, ताकि एक सुन्दर और सुखद समाज की रचना हो सके।
जिस प्रकार एक श्रेष्ठ शिल्पी अनगढ़ पत्थर की फिक्र नहीं करता, उसकी नज़र तो उसके अमूर्त पर टिकी रहती है, जिसे उसको
उस पत्थर में उकेरना है। किसी बुद्ध की नज़र किसी बाल्मिकी पर लगी रहती है,
वे अंगुलीमाल डाकू की चिन्ता नहीं करते।
नकारात्मक दृष्टिकोण की सर्व व्यापकता
घर, दुकान, दफ्तर यत्र-तत्र सर्वत्र ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जो दूसरे में कमी निकालने में संलग्न नहीं रहते हैं। छ रसों की चर्चा तो आयुर्वेद में है, परन्तु लोग इस (निन्दा) रस को सब से ज़्यादा पसंद करते हैं जिसकी कहीं पर भी चर्चा नहीं है। निन्दा, परचिन्तन, परदर्शन तो कई लोगों का धंधा ही हो गया है। यह वह जोंक है जो लोगों का उमंग, उत्साह, हिम्मत और धैर्य रूपी खून चूसता रहता है।
वे अपनी कमी कमज़ोरी की ज़िम्मेदारी दूसरों पर थोप देते हैं। उनका दृष्टिकोण सारे संसार के प्रति पूर्णत नकारात्मक ही होता है। समाज तथा देश में ऐसे लोग छूत की बीमारी की तरह हैं। जो हतोत्साह और ना उम्मीद के रूप में अपना विषाणु अन्य लोग में फैलाते हैं। चाहे कितना ही अच्छा कोई क्यों न हो, अवगुणी दृष्टिकोण के इन रिसर्च स्कॉलर से कोई बच नहीं सकता। अच्छे-से-अच्छे में भी ये कोई-न-कोई कमी अवश्य ही ढूँढ़ निकालते हैं। दृष्टिकोण के प्रकार ––
1. निन्दा का नकारात्मक दृष्टिकोण।
2. स्थगित करने या टालमटोल का दृष्टिकोण।
3. जीवन के प्रति विधायक दृष्टिकोण।
4. दोहरा दृष्टिकोण।
5. अहोभाव और धन्यवाद का दृष्टिकोण।
6. व्याख्या के प्रति मतलबी दृष्टिकोण।
7. निराशावादी दृष्टिकोण।
8. संतुष्टता का दृष्टिकोण।