(भाग 4 का बाकि)
3. जीवन के प्रति विधायक दृष्टिकोण : न्यूनतम जानकारी, अपूर्ण दृष्टिकोण को पैदा करता है जैसे
एक नेत्रहीन व्यक्ति स्पर्श द्वारा यह अनुभव करता है कि यह कौन-सी वस्तु है, इसकी क्या उपयोगिता है इत्यादि अर्थात्
ऐसे लोगों को उसकी समस्त जानकारियों का आधार होता है वृत्ति और स्पर्श। किसी विषय के
प्रति उसका सर्वांगीण दृष्टिकोण इन्हीं सीमित जानकारी के आधार पर निश्चित होता है।
फिर भला वह सम्पूर्ण दृष्टिकोण कैसे कहलाया जायेगा?
विचारों और भावों का जैसा चश्मा चढ़ा होता है वैसा ही हमें दिखाई देता है। यदि वह उदात्त और महान् है तो जगत उसी के अनुरूप दिखाई पड़ता है। ऋषियों की वर्ण व्यवस्था के पीछे एक स्वस्थ, उपयोगी और सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् वाले समाज की स्थापना का दृष्टिकोण था। उन्होंने वर्ण व्यवस्था का निर्माण विभिन्न व्यक्तियों में विकसित उनके प्राकृतिक गुण और क्षमता के आधार पर किया था। न कि निम्नता और उच्चता के आधार पर। जैसे ब्राह्मण का कर्म शिक्षा था तो क्षत्रियों का समाज की सुरक्षा।
ब्राह्मण में जन्मजात अन्तर्मुखी वृत्ति थी तो क्षत्रियों में शौर्य, साहस और निर्भयता की बहिर्मुखी प्रवृत्ति। कुछ स्वार्थी तत्वों ने रुढ़ी क्रिया-काण्डों के आधार पर इस सुन्दर दृष्टिकोण वाली वर्ण व्यवस्था को निम्न कोटि में बदल लोगों में गलत दृष्टिकोण का चश्मा चढ़ाने में सफलता हासिल कर ली। जिसके भयंकर परिणामों से हम अभी तक भी उबर नहीं पा रहे हैं। दोषपूर्ण दृष्टिकोण की यह प्रवृत्ति देश और समाज के कई केन्द्रां पर संव्याप्त है। जैसे छूत-अछूत, विकसित-अविकसित, नीच जाति-ऊँच जाति, ब्राह्मण और शूद्र तो दूसरी तरफ हिन्दू-मुस्लिम, क्रिश्चियन, गोरा-काला और भी बहुत कुछ देशों के नाम पर, जैसे मैं अमरिकन हूँ, जर्मन हूँ, ब्रिटिश हूँ, फ्रांसीसी हूँ, चायनीज़ हूँ, मैं भारतीय हूँ... इत्यादि।
आज की सभी लड़ाइयाँ वे सभी तरह के मतभेद
और समस्त आतंकवाद इसी नपुंसक दृष्टिकोण की वर्णशंकर उपज है। समस्त जगत इसी अर्ध विक्षिप्त
सोच से त्रस्त और भयग्रस्त है कि कहीं लालच और शक्तियों के प्राप्ति की होड़ में ये
भस्मासुर अपनी ही सुन्दर संस्कृति और सभ्यता को खुद ही भस्म न कर लें।
देखिए! हमारे पूर्वजों ने संसार को अद्भुत सौंदर्य
बोध से अलंकृत और सुन्दर भावों से ओतप्रोत कितना सुन्दर मंगलमय दृष्टिकोण दिया था कि
यह
वसुन्धरा तुम्हारा परिवार है `वसुधैव कुटुम्बकम्',
`सर्वभूतहितेरता' अर्थात् सर्व प्राणियों का कल्याण
हो कि कैसी विश्व-कल्याणकारी अन्तर्दृष्टि थी। जिन्होंने अनुभव
किया उन्होंने कितना सुन्दर दृष्टिकोण दिया था। हिन्दू-मुस्लिम,
सिक्ख, ईसाई, आपस में सब
भाई-भाई है। जाति समाज और राष्ट्रों से ऊपर उठकर उन्होंने जिस
शाश्वत, सनातन रहस्यमय सत्य को देखा वह यही था कि हम भिन्न-भिन्न शरीरों में ज्योति पुँज आत्मा है। इसलिए आपस में भाई-भाई हैं। जबकि हमारा वास्तविक स्वरूप प्रकाश है तो क्यों नहीं उस प्रकाश की
विशेषता को स्मरण में लाएं, प्रकाश की एक अपनी अलग विशेषता है।
w किसी अन्धेरे कमरे में दो दरवाजे से यदि कोई दो व्यक्ति एक साथ
दो प्रकाशित मोमबत्ती को लेकर प्रवेश करें तो क्या दोनों मोमबत्तियों के प्रकाश आपस
में टकराते हैं? नहीं बल्कि दोनों प्रकाश मिलकर प्रकाश की गुणवत्ता
में और भी संवर्धन करते हैं।
w प्रकाश सदैव शुद्ध ही होता है। वह गंदी से गंदी चीज़ों से टकरा
कर भी जब वापिस लौटता है तो उस गन्दगी को बिना लिए ही अपनी परिपूर्ण शुद्धता में वापस
लौट जाता है।
w प्रकाश सदा भारहीन अर्थात् हल्का होता है। इन तथ्यों को देखने से ऐसा लगता है यदि मानव इस तथ्य या ज्ञान को अनुभव कर व्यावहारिक जीवन में लाये तो लगता है संसार में समस्त बुराईयों का तम्बू आज ही उखड़ जाये। इससे तो ऐसा लगता है कि सभी बुराईयों की जड़ यही दैहिक दृष्टिकोण है। यदि हमारी आत्मिक-दृष्टि जागृत हो जाये कि हम ज्योति स्वरूप आत्मा हैं, तो थोड़े समय में ही जगत समस्त अच्छाइयों के रंग-बिरंगे प्रकाश से जगमगा उठे।
ज्ञान-योग के माध्यम से उस प्रकाश स्वरूप आत्मा का अनुभव सम्भव हो सकता है। इसकी
अनुभूति के लिए शायद आपको राजयोग के अभ्यास की ज़रूरत पड़े। वैसे यह ब्रह्माकुमारी
ईश्वरीय विश्व विद्यालय द्वारा भी सिखाया जाता है। देखिए, सोचिए
और स्वस्थ दृष्टिकोण पाने का उपाय आप स्वयं ही ढूँढ़िये।
4. दोहरा दृष्टिकोण : कुछ लोगों का दृष्टिकोण स्वयं के प्रति दोहरा होता है। वे प्राय अच्छा सोचते हैं और अक्सर बुरा करते हैं। ऐसे लोग भूल करके उसके लिए माफी मांगते हुए मिल जायेंगे। उनका सोचना है कि वे क्रोधी है नहीं परन्तु गलती से उनके मुख से अपशब्द निकल गया या उन्हें थोड़ा ऐसे ऊँचे स्वर में बोलने की आदत है। वास्तव में वे इतने बुरे नहीं है। परिणाम यह होता है कि ऐसे लोग खुद की गलती को उनके खुद के चरित्र का दोषपूर्ण होना महसूस ही नहीं करते हैं और अपने को अच्छा समझने का भ्रम पाल लेते हैं।
ज़िन्दगी भर,
वे अपने प्रति अच्छा सोचते रहते हैं और बुरा करते रहते हैं। जिसके कारण
उनके व्यक्तित्व का परिवर्तन असम्भव-सा हो जाता है। क्योंकि `मैं बुरा हूँ' इस महसूसता का उनमें सदा ही अभाव बना रहता
है। परिवर्तन और बदलाहट का प्रश्न तो तब उठता है जब इन्हें यह बोध हो कि उनमें अमुक
कमी है।
यदि उन्हें चरित्रगत दोष से मुक्त होना है तो निश्चित ही अपनी उन भूलों को जो उनसे
लाचारीवश या आदतवश होती रहती हैं उसके प्रति उन्हें पुनर्मूल्यांकन करना पड़ेगा। उन्हें
इस बात को स्वीकार करना पड़ेगा कि उन्होंने खुद को गलतफहमी में रखकर इस बुरी आदत का
निर्माण कर लिया है। इस मुक्ति का प्रयास असम्भव तो नहीं परन्तु मुश्किल अवश्य है।
क्योंकि आदत उस रस्सी की तरह है जिस पर प्रतिदिन एक और वट पड़ जाती है। इस तरह दृष्टिकोण
का व्यापक प्रभाव जीवन की सफलता और असफलता पर पड़ता रहता है।
वृत्तियाँ अन्दर से रंग कर आती हैं : सत्य जब भी झूठे व्यक्ति द्वारा कहा जाता है, तक्षण उसकी
ज्योतिर्मय आभा मंद पड़ जाती है उसी तरह जिस तरह दूषित वृत्तियों से रंगकर आने वाले
सुन्दर विचार।
दृष्टिकोण आन्तरिक वृत्तियों का प्रेक्षण है। इसलिए यदि वृत्तियाँ पूर्वाग्रह से
ग्रसित हों तो दृष्टिकोण दोषपूर्ण और पक्षपात पूर्ण हो ही जाता है। दृष्टिकोण सही और
शुद्ध भी हो सकता है और अशुद्ध, दोषपूर्ण और त्रुटिपूर्ण भी।
सकारात्मक दृष्टिकोण उसका भौतिक पहलू है और शुद्ध दृष्टिकोण उसका आध्यात्मिक पहलू है।
जब तक सकारात्मक और शुद्ध दृष्टिकोण का समन्वय नहीं होगा तब तक सम्पूर्ण सफलता बाधित
होती रहेगी।
जब तक दृष्टि नैतिक रूप से शुद्ध और आध्यात्मिक रूप से आत्मिक नहीं होगी तब तक
आपका दृष्टिकोण सर्वांगीण उदात्त, सत्य और सफलतामूर्त जीवन दृष्टिकोण
वाला नहीं हो सकता है।