(भाग 5 का बाकि)
5. अहोभाव और धन्यवाद का दृष्टिकोण : जो हमारे पास नहीं है उसके लिए तो हम फिक्रमंद हो जाते हैं परन्तु जो हमारे
पास है, क्या हम उसके लिए अस्तित्व को धन्यवाद देते हैं?
क्या हम यह आभार प्रकट करते हैं कि हे करुणामय, तेरा अनुग्रह इतना है कि इसका अहसान मैं अपने सम्पूर्ण जीवन को भी आपकी सेवा
में अर्पण कर दूँ तो भी उसे चुका नहीं सकता। सदा याद रखें –– आपको मिला हुआ कार्य आपसे
अच्छा कोई नहीं कर सकता। मन का एक नियम है। वह हमेशा अभाव
की तरफ दौड़ता है। जो कुछ भी हमारे पास है यदि उसका महत्त्व दिया जाए तो हम संतुष्टता
और प्रसन्नता से भर जाए। जो है वह बहुमूल्य है। हम उस अमूल्य सम्पदा का मूल्यांकन नहीं
करते हैं, परन्तु जो नहीं है उसका ख्याल कर हम लोग अपने
पूरे जीवन का अवमूल्यन करते रहते हैं।
`स्व' का मूल्यांकन कीजिए
मनुष्य स्वभाव भी बड़ा विचित्र है। जो उसके हाथ में रहता है, उसकी कीमत नहीं होती और जो हाथ से चला जाता है, उसके
लिए बड़ा आकर्षण रहता है। जो है, उससे संतोष नहीं होता,
जो नहीं है, उसकी हाय-हाय
से मन तरसता रहता है। अपना सुख कोई नहीं गिनता, दूसरे का सब गिनते
हैं दूसरे का दुःख कोई नहीं देखता, अपना दुःख सब देखते हैं और
इसी चक्र में जीवन की शान्ति नष्ट हो जाती है और एक शाश्वत अतृप्ति, एक चिर असंतोष मन में घर कर लेता है और वही सारे असुख का कारण बन जाता है।
जो मन की शान्ति और संतोष पा लेता है, वही असल में जीता है। जीवन
संग्राम का विजेता वही है, फिर उसके पास मोटर या धन-संपदा हो या नहीं। मन की शान्ति न रही, तो सारे सुख-वैभव के बाद भी वह मनुष्य एक श्रापित व्यक्ति की तरह असंतृप्त है, सुखहीन है। जीवन का समस्त धर्म, आत्म-ज्ञान और नीतिशास्त्र इसी एकमात्र हेतु के लिए यह जो है मन की शान्ति की कुँजी
खोज निकालने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, वह जिसे मिल गई,
वही आत्म-ज्ञानी है, वही
साधक है।
– अनंत गोपालशेवड़े
इस विषय में एक प्रसंग है ö उस दिन रमेश एक छोटे से प्रोग्राम में भाग लेने जा रहा था। चप्पल पुराना था, घर से चलते समय ही वह टूट गया। उसने सोचा, चलो। जूता पहन लूं, परन्तु मौजा भी फट गया था। खिन्न मन से खाली पैर ही सम्मेलन की ओर चल दिया। गमगीन ख्यालों में डूबा रास्ते में एक जगह उसने देखा कि एक व्यक्ति बैशाखी के सहारे चला आ रहा था, वह वहीं ठिठक गया। उसके सजल नयन आकाश की तरफ उठ गये। प्रभु को धन्यवाद देता हुआ अपने आपसे बोल उठा –– प्रभु मैं व्यर्थ ही चिन्तित होकर दैवदोष के भाव से व्याकुल हो रहा था कि मेरे पास जूते और जुर्राब नहीं है, परन्तु इस व्यक्ति के पास तो पैर ही नहीं हैं।
यदि मैं इसके जैसी अवस्था में होता तो किसे दोष देता? किस अदालत में किसके प्रति शिकायत करता? अहो भाग्य! मैं कितना भाग्यशाली हूँ। रमेश ने सोचा, क्यों न इस व्यक्ति के पास जाकर सहानुभूति प्रगट करें। रमेश ने उसके पास जाकर अपनी सहानुभूति प्रगट की। अपंग व्यक्ति बहुत ही प्रसन्नता से रमेश से मिला और उससे कहा –– आपको आपकी सहानुभूति के लिए धन्यवाद परन्तु मैं दुनिया के प्रसन्न व्यक्तियों में से एक हूँ।
मेरी पत्नी बहुत ही सुशील, कर्त्तव्यपरायण,
प्रेमपूर्ण और मृदुभाषी है। मेरा फूलों की माला का व्यवसाय है,
प्रभु की अनुकम्पा से सभी कुछ अच्छा चल रहा है। मैं तो खुद ही दूसरे
लोगों को सहयोग देने के ख्याल से भरा रहता हूँ''। यह है जीवन
के प्रति उस अपंग व्यक्ति का प्रभु के प्रति धन्यवाद का दृष्टिकोण।
ईश्वर के प्रति अंतिम भेंट की तैयारी : क्या प्रभु को आप कोई निकृष्ट वस्तु अर्पण करते हैं? या उन्हें अपशब्द कहते हैं? नहीं ना। इस साधारण जीवन में भी जब हम उन्हें ऐसी भेंट नहीं देते फिर जीवन के अन्त में जब हम उन्हें अपने आपको अर्पित करेंगे तो क्या खुद को अच्छे लौटाने का ख्याल नहीं करेंगे। संत कबीर ने कितना अच्छा भाव व्यक्त किया है जीवन के अंतिम पड़ाव पर `ज्यूँ की त्यूँ धरि दीन्ही चदरिया'।
आइये, अपने आत्म-विश्वास परमात्मा की अनुकम्पा की छत्रछाया में अपने नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों
की तुलिका से जीवन के कैनवास पर दिव्यगुणों के और अपरिमित सृजनात्मक क्षमताओं के रंगों
से अपना दिव्य रूप सजाएँ ताकि एक बेहतरीन सौगात अपने प्रभु को पेश कर सकें और अपना
दोनों ही जीवन सफल कर लें।
यदि आप परिवार में और समाज में सभी लोगों से मृदुभाषी तथा धन्यवाद के भाव से भरपूर, विनम्र और शालीनता का व्यवहार करते हैं, किसी से बिना
अपेक्षा रखे, जितना कुछ उनसे मिलता है उसके लिए धन्यवाद का भाव
रखते हैं तो यह महान् जीवन दृष्टि आपके जीवन की सफलता में भी चार चाँद लगा देंगे।
प्राय लोगों का इस तरफ ध्यान ही नहीं जाता है कि उनके पास बहुत कुछ है ––
1. कुछ अंगों का प्रत्यावर्तन तो होता है परन्तु कुछ का नहीं, फिर भी यदि कोई आपसे यह कहे कि आप अपना एक हाथ हमें दे दीजिए। हम आपको दो लाख
रुपया दे देते हैं, क्या आप ऐसा करेंगे?
2. यदि कोई आप से कहे, आप अपने दोनों पैर हमें दे दीजिए
हम आपको दस लाख दे देते हैं, क्या आपको ऐसा सौदा मंजूर होगा?
3. यदि कोई आप से दोनों आँखें मांग ले और मुँह मांगा मूल्य चुकाने के लिए तैयार
हो जाये तो क्या आप इस शर्त को स्वीकार कर लेंगे?
4. यदि कोई आप से कहे चलो जी एक किडनी ही दे दीजिए तो क्या आप तैयार हैं इसके
लिए!
(नोट : यदि एक पढ़ा-लिखा युवक
अथवा युवती के समक्ष यह प्रश्न हो तो स्वाभाविक है उत्तर `नहीं'
में ही होगा)
सोच को विशाल पृष्ठ-भूमि में देखने पर आप पाएंगे कि अक्सर हमारा
दृष्टिकोण अपने स्वाभिमान और महत्त्व के प्रति धन्यवाद पूर्ण नहीं होता है। हमारे पास
जो है उससे और अधिक के लिए प्रयास किया जा सकता है, यह और बात
है।
इस उदाहरण का यह अर्थ कदापि नहीं हैं कि आप अपना मूल्यांकन सामान या रूपये पैसे
से करें। यह उदाहरण इसलिए दिया गया है कि आपका मूल्य रूपये पैसे के तराजू में तोला
नहीं जा सकता है। आप अमूल्य हैं, इसका सम्मान करें। आप जो भी
जैसे भी है, महान् हैं। इसलिए अपने आपको भरपूर प्यार करें। आप
इस बात को जानें कि आप अनमोल हैं।
संसार के सभी अलग-अलग प्राणियों से यदि मनुष्य की शक्तियों की तुलना की जाये तो आप पायेंगे कि आदमी सबसे कमज़ोर जीव हें। फिर भी सबसे श्रेष्ठ, महान् और शक्तिशाली क्यों कहलाता है? उसका कारण क्या है –– मानसिक शक्तियाँ और मन-बुद्धि की श्रेष्ठता। मनुष्य को मात्र अपने दृष्टिकोण को बदलने की ज़रूरत है फिर जो है वह इतना अधिक है कि प्रभु के प्रति उसका अनुग्रह और धन्यवाद का सकारात्मक दृष्टिकोण स्वत ही बन जायेगा।
इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि जो आपके
पास नहीं है उस अभाव को पूरा करने का प्रयास ही नहीं करें और आत्म-संतोष धारण कर लें। संतुष्टता अलग बात है, संतोष करना
अर्थात् सान्त्वना अलग बात है, संतुष्टता का अर्थ है बस और अधिक
नहीं चाहिए। संतोष का अर्थ है –– इस बात से समझौता करके जीना कि यदि हमारे पास नहीं है तो कोई बात नहीं शायद
हमारे भाग्य में इतना ही है।
हम माँगते भी क्या हैं : एक समृद्ध महिला अपना चित्र बनवाने एक गरीब चित्रकार के पास पहुँची। कुछ दिन पश्चात् जब वह अपना चित्र लेने वापस पहुँची तो चित्र देखते ही वह मत्रमुग्ध होकर उसे निहारती रह गई। इतना सौन्दर्य! रंग और तूलिका का इतना विलक्षण संयोग! वह तो ठगी-सी परन्तु अति प्रसन्न मूर्तिवत उसे निहारती ही रह गई। बाद में उसने उस गरीब चित्रकार से कहा आज तुम दिल खोलकर इस चित्र का पारितोषिक माँग लो। खुशी से फूला उस गरीब चित्रकार का दिल धौंकनी की तरह चलने लगा।
सोचा, कितना माँग लूँ? इच्छाओं से, आकांक्षाओं से भरा गरीब माँगेगा भी तो कितना? चित्रकार ने सोचा शायद वो इतना नहीं दे सके! सौ पौण्ड माँगू, दो सौ पौण्ड ले लूँ, तीन सौ, पाँच सौ...। फिर तो उसके संकल्प हिलने लगे। उस गरीब चित्रकार ने सोचा –– शायद वे इतना नहीं दे सके! बाद में उसने यही निर्णय लिया कि यह ज़्यादा अच्छा होगा कि पुरस्कार की राशि उस महिला की इच्छा पर ही छोड़ दी जाये। उसने महिला से कहा कि आपकी जो इच्छा हो वह दे दीजिये। महिला के हाथ में पर्स था उसने कहा कि यह पर्स तुम रख लो, यह बड़ा ही मूल्यवान है। उस गरीब चित्रकार का तो दिल ही बैठ गया।
वह मन ही मन सोचने लगा –– माना कि पर्स मूल्यवान है,
लेकिन मैं यह लेकर क्या करूँगा। इससे अच्छा तो मुझे सौ पौण्ड ही दे दो
तो अच्छा होगा। उस महिला ने कहा –– ``फिर तेरी जैसी मर्जी''
उसने एक लाख पौण्ड से भरे पर्स में से 100 पौण्ड
निकाल कर उस चित्रकार को दे दिये और पर्स लेकर चली गई। वह गरीब चित्रकार छाती पीट-पीटकर रोने लगा कि –– ``हाय मैं भी कितना अभागा निकला जो इतना बड़ा भाग्य गवाँ बैठा''।