(भाग 6 का बाकि)
आज का मनुष्य करीब-करीब इसी हालत में है। हमारी माँगें,
हमारी इच्छाएँ कितनी साधारण हैं, कितनी तुच्छ हैं।
क्या हम इतने दीन-हीन हो गये हैं कि सौ पौण्ड से ही अपनी दरिद्रता
मिटान की सोचते हैं। देने वाला तो लाखों, करोड़ों, अरबों दे रहा है। माँग भी हमारी हो तो सम्राट की तरह हो, जो एक बार माँग लेने के बाद फिर बार-बार माँगने की ज़रूरत
ही ना हो।
परमात्मा ने जो हमें दिया है वह तो तिजोरी में बन्द पड़ा है और हम हैं कि दो-चार कौड़ी माँगे जा रहे हैं। जीवन की जो बहुमूल्य सम्पदा –– ज्ञान, शान्ति, खुशी और आनन्द जोकि स्वयं भगवान ज्ञान के सागर, शान्ति के सागर ने हमको दिया है, उस पर्स को तो हम खोलकर देखते तक नहीं। हमें जो मिला है और वह जो हम माँग रहे हैं, उससे प्राप्ति तो पद्मगुणा ज़्यादा है। लेकिन माँगने में हम इतने तल्लीन हैं कि हमें वह अपार सम्पदा दिखाई ही नहीं देती है। यह जो हम माँगते हैं कि थोड़ा बैंक बैलेन्स हो जाये, सुन्दर कार मिल जाये, मूल्यवान बंगले... और भी किसी सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति हो जाये।
लेकिन यह सभी माँगे क्षुद्र हैं, हमें वे
उनसे माँगनी नहीं चाहिये थी। ज़रा आँखें खोलकर अपने चारों तरफ झांक कर देखेंगे तो आप
पायेंगे कि अहर्निश उस प्रेम के, आनन्द के सागर परमात्मा से बिना
माँगे अमूल्य अमृतानन्द, निर्मल, पावन,
सदा के लिये तृप्त कर देने वाला सर्व सम्बन्धों का निस्वार्थ प्यार रिमझिम-रिमझिम बरस रहा है, जिसे पा लेने पर, पी लेने पर और सभी माँगें चिरकाल के लिए पूर्ण हो जाती हैं। हमारा मन दरिद्रता
से मुक्त सम्राट जैसा दाता बन जाता है।
कहावत भी है ––
बिन माँगे मोती मिले, माँगी मिले न
भीख
फिर वह माँग चाहे पैसे की हो या यश की हो, चाहे प्रतिष्ठा
की। माँगना ही है तो निरंतर उसकी याद, सर्व सम्बन्धों से उसका
सानिध्य माँग लो। फिर संसार की सभी अमूल्य प्राप्तियाँ भी आपके चारों ओर हाथ जोड़े
दासी की तरह खड़ी रहेंगी। यदि सर्व खज़ाने चाहिए तो उसकी चाबी है –– `परमात्मा'। माँगनी ही हो तो वह चाबी माँग लो।
6. व्याख्या के प्रति मतलबी दृष्टिकोण
उदाहरण –– बात उस समय की है जब स्वामी विवेकानन्द का सम्मान उनका ज्ञान, चरित्र और नाम अमेरिका में ऊँचाइयों पर था। स्वभावत कुछ पादरी उनसे इर्ष्या करने लगे थे। उन्होंने आपस में मिलकर एक योजना बना डाली कि किस भांति उनके ज्योतिर्मय चरित्र को कलंकित किया जाये। एक दिन रात्रि के 10 बजे जब वे अपने वेदान्त केन्द्र से अपना सार गर्भित प्रवचन समाप्तकर अपने विश्राम स्थली के ओर लौट रहे थे तो उन्होंने उस सुनसान सड़क पर किसी के कोमल हाथ के स्पर्श का अनुभव किया। उन्होंने पीछे मुड़कर उस नवयौवना के प्रणयभाव की दृष्टि को समझ वे क्षणभर ठहर गये। उन्होंने मातृत्व प्रेम की एक भरपूर और शक्तिशाली दृष्टि उस युवती पर डाली और बोले ``आहा! आज कितना सुखद क्षण उपस्थित हुआ है?
माँ शारदामणि की
याद ताजी हो गई है। माँ शारदामणि बडे ही प्यार से मुझे इस प्रकार स्पर्श किया करती
थी। बोलो माँ, हमारे लिए आपके उदगार को निसंकोच प्रगट करो''
उस युवती ने ग्लानि और पश्चाताप के भाव से कहा, ``मैं तो आपको पतित करने आई थी, परन्तु आपकी महान् और उदात्त
भावना ने नारी को कितना ऊँचा उठाया है, यह देख मैं ग्लानि और
पश्चाताप से भर गई हूँ। हे देव, मुझे क्षमा करें। बाद में उस
षड़यंत्र का उन्हें पता चला कि यह कुछ धर्मन्ध लोगों (पादरियों)
का आयोजन था।
w क्या हम चाहें तो अपने आदर्श दृष्टिकोण का निर्माण नहीं कर सकते? जो मानवता को शताब्दियों तक मूल्यनिष्ठ दृष्टिकोण की प्रेरणा देता रहे।
w क्या भोगवादी दृष्टिकोण को तिलांजली देकर देह से पार शाश्वत
आत्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण पैदा नहीं किया जा सकता है ताकि आज गिरते मूल्यों को
पुन ठौर मिल सके।
7. निराशावादी दृष्टिकोण
वे सदा नकारात्मक सोच के आदी होते हैं।
w उन्हें किसी व्यक्ति की विशेषता नहीं परन्तु उसकी कमज़ोरी दिखाई
देती है। क्योंकि तब उसे एक झूठा शुकून मिलता है कि इससे तो हम अच्छे हैं क्योंकि ये
कमी हमारे में नहीं हैं।
w वे गलत शंका, कुशंका में अपना
जीवन गवाँ देते हैं। सदा यही सोचते हैं कि कहीं ऐसा न हो जाये, कहीं वैसा न हो जाये।
कुशंका भरे दृष्टिकोण का परिणाम : एक थका-माँदा पथिक रास्ते में एक विशाल छायादार वृक्ष को देख उसकी शीतल छाया में विश्राम करने के लिए ठहर गया। उसे प्यास लगी थी, इसलिए सोचा काश! यहाँ शीतल जल मिलता तो उसकी प्यास बुझ जाती। ऐसा संकल्प करते ही शीतल सुखद जल से भरा जग उसके सामने प्रगट हो गया। उसने अपनी प्यास बुझाई। ख्यालों का सिलसिला आगे बढ़ा काश! भोजन भी मिलता तो भूख की जलन भी आज समाप्त हो जाती।
आश्चर्य! विभिन्न
स्वादिष्ट भोजन से भरी थालियाँ उसके सामने आ गईं। तृप्ति के बाद आलस्य का आना भी स्वाभाविक
था और उस संकल्प के साथ छोटा-सा स्वर्ण महल, आरामदायी पलंग और परिचारिकाएँ सभी भी उसके सामने प्रकट हुईं। अब उसके सामने
इस बात की शंका भी उपस्थिति हुई कि कहीं कोई राक्षस न आ जाये, जो हमारी इस सुख-सुविधा के नष्ट कर दे और सचमुच राक्षस
प्रकट हो गया। पथिक ने भय से सोचा कहीं वह मुझे मारकर खा न जाये और राक्षस उसे मार
कर खा गया। क्योंकि वह वृक्ष साधारण नहीं, परन्तु कल्प-वृक्ष था।
कल्प-वृक्ष का यह प्रतीक वास्तव में हमारी अन्तरिक
शक्तियों का द्योतक है। इस संसार में जो सबसे बड़ी शक्ति है वह विचार, इच्छा और भावना की शक्ति है। हम इन्हीं आंतरिक सामर्थ्यों द्वारा जो चाहे पा
सकते हैं। निराशवादी सोच भी उसी राक्षसी सोच की तरह है जो हमारी समस्त आन्तरिक शक्तियों
को नष्ट प्राय कर देती है।
w ऐसे लोग प्राय भूतकाल की कटु स्मृतियों से खोये-खोये दुःखी होते रहते हैं। अपनी सुखद स्मृतियों को उन प्राप्तियों को याद कर
खुशी नहीं मनाते हैं।
w कई लोग ऐसे है जो दूसरों को बीमार देख सदा यही सोचते हैं कि
कहीं यह बीमारी उसे नहीं लग जाये और कई बार ऐसा व्यावहारिक रूप से देखा गया है कि उन्हें
वे बीमारियाँ पकड़ भी लेती हैं जिसकी वे चिन्ता करते थे।
सकारात्मक दृष्टिकोण वाले लोग इन सभी बातों के विपरीत सदा भले सोच की ओर अग्रसर
रहते हैं। सदा प्रसन्न और स्वास्थ्यकर विचारों से अपने को भरपूर रखते हैं। करना, सोचना, देखना, बोलना इन सभी बातों
के प्रति उनका दृष्टिकोण होता है –– `अच्छे-से-अच्छा'।
8. संतुष्टता का दृष्टिकोण : संतुष्टता मनुष्य
को बेफिकर बादशाह बना देती है। कोई करोड़पति हो लेकिन अगर वह संतुष्ट नहीं हो वह करोड़पति
नहीं, परन्तु इच्छाओं का भिखारी है। इच्छा अर्थात् परेशानी। इच्छा
कभी अच्छा बना नहीं सकती। इसलिए संतुष्टमणि बन, इच्छा-मात्रम्-अविद्या बनें।
इस संसार सागर में जहाँ इच्छाएँ मानव अन्तर्मन में अन्तहीन समुद्र की लहरों की तरह प्रतिपल उठती रहती हैं, वहाँ, कहाँ बजती है अन्तर में सन्तुष्टता के खुशियों की शहनाई? चारों ओर गहन असंतोष का मातम छाया रहता है। अनन्त इच्छाओं की जंजीरों से जकड़ा मानव एक अतृप्त प्यास से छटपटा रहा है। अभी-अभी संकल्पित स्वप्न साकार भी नहीं हो पाते हैं कि पुन अनावश्यक नई इच्छाएँ लंका की राक्षसी सुरसा की तरह मुँह फैलाए चली आ रही होती हैं।
`यह भी चाहिए, यह भी चाहिए' की एक अन्तहीन शृंखला मानव मन को अप्राप्तियों के, असंतोष
के अंधकूप में धकेल रही है। भौतिकता की इस चकाचौंध में जहाँ प्रतियोगिताओं का बाजार
रंग-बिरंगी चित्ताकर्षक विज्ञापनों से गर्म है, वहाँ उपभोक्ता कल की अनावश्यक आवश्यकताओं को विज्ञापन के आकर्षण में आवश्यक
आवश्यकता समझ बैठता है। ऐसे में क्या वह सम्भव है कि व्यक्ति अनावश्यक इच्छाओं के इस
चक्रव्यू से मुक्त होकर अपने को थोड़ी-सी आवश्यकताओं में रख संतुष्टता
एवं प्रसन्नता का अनुभव कर सके? हमारा विरोध आवश्यक से नहीं है,
अनावश्यक का है। आइये, पहले यह देखें कि सन्तुष्टता
है क्या?
संतुष्टता क्या है? कहावत है
–– `सन्तुष्टता बड़ा अनमोल रत्न, कब इसे तोल
सकता है धन' –– संतुष्टता का आधार परिपूर्णता है। परिपूर्णता
अर्थात् ईश्वरीय ज्ञान रत्नों से, गुणों से, स्नेह और शुभ भावनाओं से भरपूर जीवन और इस संतुष्टता से प्रकट होती है प्रसन्नता।
प्रश्नों से पार सन्तुष्टमणि आत्मा के मुख मण्डल से फूलों की सुगन्ध के मानिन्द सदाकाल
की प्रसन्नता झरती रहती है। सन्तुष्टमणि आत्मा के मुख मण्डल से निसृत ऊर्जा-तरंगें सहज ही अन्य आत्माओं को प्रसन्नता प्राप्त कराने की प्रेरणाश्रोत बन
जाती है।
कोई वृद्ध, असहाय, गरीब व्यक्ति कुछ कर नहीं सकता या करने के बाद सफलता प्राप्त नहीं कर सकता तो फिर वह सन्तोष कर लेता है, अपने को किसी भी तरह सन्तुष्ट कर लेता है। लेकिन यह सन्तुष्टता (Contentment) नहीं, बल्कि सांत्वना (Consolation) है, यह एक मज़बूरी है। सन्तुष्टता तो गुणों के साथ सूक्ष्म आन्तरिक शक्ति है, एक सकारात्मक ऊर्जा है। सन्तुष्टता अर्थात् जो मुझे चाहिए उससे कई गुण अधिक हमारे पास है। पाना था सो पा लिया –– यह तो परमात्मा के प्रति धन्यवाद का भाव है। सन्तुष्टता पराजित आत्म-भावदशा नहीं है।
यह तो विकारों पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त कर सभी आध्यात्मिक
सम्पदा से सम्पन्न आत्मा की उपलब्धि के विजय-भाव की स्थिति है।
सन्तुष्टमणि अर्थात् महान् आत्माओं की कमज़ोर और मूल्य-हीन आदतों
पर विजय की सम्पूर्ण यात्रा। जो सन्तुष्टता को प्राप्त कर लेता है वह सदाकाल की चिन्ताओं
से मुक्त हो जाता है। परमात्मा-प्राप्तियों की सम्पदा से सम्पन्न
सन्तुष्ट आत्मा के चेहरे से सूर्य को किरणों के मानिन्द बिखरती हुई प्रसन्नता की तरंगे
स्वयं और सर्व को सहज सुख-शान्ति की किरणों का अनुभव कराती रहती
है।
कैसे बनें सन्तुष्टमणि? हीरे-तुल्य जीवन का यह सुप्रभात कहीं व्यर्थ के प्रश्नों में उलझ कर अपनी प्रसन्नता न खो दे! अमूल्य ज़िन्दगी के ये चार दिन कहीं व्यर्थ ही न खो जाएँ –– दो दिन व्यर्थ के उपक्रम, मान-शान, धन, प्रतिष्ठता और अहंकार में और बाकी के दो दिन पश्चाताप में। जीवन के उत्सव में यदि हमने परम सन्तुष्टता की सम्पदा को नहीं बटोरा तो बाकी व्यर्थ के आँसू, मोती नहीं बनेंगे।
सिर्फ अन्त में रह जायेगी पश्चाताप की गीली और उदास आँखें। इच्छा हमें अच्छा नहीं बनने
देती हैं लेकिन पाने के लिये हाथ बढ़ाने पर कहीं भी कुछ नहीं आता है। इच्छाएँ दुष्कर
हैं। भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति की इच्छा का स्वभाव ही अपूर्ण है, परिपूर्णता नहीं है। जबकि सन्तुष्टता का आधार परिपूर्णता है।
सन्तुष्टता वह अनमोल रत्न है जो इच्छा-मात्रम्-अविद्या के मूल्य पर ही खरीदा जा सकता है। अनावश्यक इच्छाओं को अपने मन के
पर्स से खाली करते जाईए और इस अमूल्य रत्नों से अपना खज़ाना भरते जाइए।
ज़िन्दगी में बार-बार के अनुभव से हमने यह जान लिया है कि जिन इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति से जितनी सुख की कामना हमने पाने की सोची थी क्या उसके उपलब्ध हो जाने से उतना सुख हमें मिला? सुख का प्रक्षेपण पुन दूसरी इच्छाओं ने ले लिया, जिसे हम `निन्यानवे का चक्कर' कहते हैं। राजाओं और धन्नासेठों का इतिहास इस बात का साक्षी है कि भौतिक सम्पदा से सम्पन्न होने के बावजूद भी उन्होंने अपने जीवन के अन्त में एक असन्तोष, एक खालीपन महसूस किया। मात्र परमात्मा-प्राप्ति से ही
आत्मा परिपूर्णता तृप्ति, सुख-शान्ति और बेहद अलौकिक प्रसन्नता की अनुभूति कर सकती है। मनौवैज्ञानिक कहते
हैं ö आज के अरबपति भी यह पूछते हैं कि आज जीवन अर्थहीन क्यों
लगता है? जितने भी दुःख है, जितनी भी चिन्ताएं
हैं सभी असन्तोष के गर्भ से ही पैदा होती हैं। जो हमें चाहिए यदि वह प्राप्त नहीं हुआ,
फिर इस अभाव से असन्तोष प्राप्त होता है।
असन्तुष्टता अर्थात् भिखारी और सन्तुष्टता अर्थात् सम्राट : सन्तुष्टता अर्थात् बेगमपुर का बादशाह। यही लक्षण वास्तव में सफलता पाने वाले
का भी होना चाहिए। ऐसे सन्तुष्ट दृष्टिकोण वाले लोग हर परिस्थिति में सन्तुष्ट रहते
हैं। उनका जीवन के प्रति देखने का दृष्टिकोण सदा सकारात्मक और शुभ भावनाओं से ओतप्रोत
होता है। कोई निन्दा करे या क्रोध, सन्तुष्ट व्यक्ति
यदि निन्दा सही है तो वह उस व्यक्ति को धन्यवाद देगा और गलत है तो उसके प्रति सदा रहम
और कल्याण का दृष्टिकोण रखेगा कि नाहक इसने निन्दा या क्रोध में इतने कष्ट उठाए। लेकिन
सन्तुष्ट व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में क्रोधित नहीं किया जा सकता। वह व्यक्ति
हर परिस्थिति में शुभ बिजली की चमक को देख लेता है। सन्तुष्ट दृष्टिकोण वाले लोग गहन
अंधकार में भी आ रही सुबह की नन्हीं किरण का साक्षात्कार कर लेते हैं। सब परिस्थितियाँ
उसे स्वीकार है –– न कोई आकांक्षा है, न
कोई अपेक्षा। इस सार-सूत्र में वह सदा मणि की तरह जगमगाता रहा
है। यह भी सत्य है कि आलौकिक खज़ानों से सम्पन्न सन्तुष्ट मणि आत्माओं को लौकिक या
भौतिक प्राप्तियों का भी अभाव नहीं रहता है। आलौकिक सम्पत्ति, ईश्वरीय स्नेह, खुशी, ज्ञान इत्यादि
को बाँटने या दूसरों की सेवा में लगाने से और बढ़ता है। पूर्ण से पूर्ण और `परिपूर्ण' होता चला जाता है, कभी
कम नहीं होता है इसके बाद और जितनी भी सम्पत्ति है वह तो बाँटने से घट जाती है।
ऐसी सन्तुष्ट
दृष्टिकोण वाली आत्मा सदा दूसरों को भी सन्तुष्ट रखने की सेवा स्वत करती है। स्वयं
परमात्मा भी ऐसे सच्चे सेवाधारी सन्तुष्टमणि को स्वत सन्तुष्टता का, दुआओं का गुप्त मैडल प्रदान करते रहते हैं। लोक-पसन्द, मन-पसन्द और प्रभु-प्रसन्द का गुप्त मैडल प्रसन्नता के महाप्रसाद के रूप में उन्हें स्वत ही प्राप्त
होता रहता है। इसलिए यदि हमें प्रसन्नपूर्ण जीवन व्यतीत करना है तो अनेक वैर-विरोध, असन्तोष का ज़हर हृदय से निकाल सन्तुष्टता की
विश्व-कल्याणी अमृतधारा बन जनमानस में उतरना पड़ेगा। तब ही मानव-हृदय के सुखे उपवन में सन्तुष्टता के स्वर्णकमल खिलेंगे और विश्व के नये क्षितिज
पर सर्वत्र प्रसन्नता की मुस्कराहट वाला दैवी साम्राज्य उभर कर आयेगा।
(समाप्त)