जीवन
में संतुलन
अचेतन भावावेश
क्या आप थोड़ी सी बात पर क्रोधित होकर अपना काम बिगाड़ लेते हैं? या लोग आपको क्रोधी समझकर आपकी उपेक्षा करते हैं? क्या
आप इच्छित परिणाम के अभाव में चिड़चिड़ा होकर कोई अवाँछित भूल कर बैठते है?
क्या दूसरे की सफलता को देख आप इर्ष्या की भावना से पीड़ित हो जाते हैं
और अन्दर-ही-अन्दर जलन सी अनुभूति करते
हैं? क्या मानसिक खिन्नता या चिन्ता से चिन्तित होकर जीवन से
नाउम्मीद हो गये हैं? वे लोग, जिन्हें समाज
से अपने अच्छे और प्रतिष्ठित होने का गौरव प्राप्त है, वह भी
यदा-कदा इस दुर्दान्त शत्रु, क्रोध के शिकार
हो भयंकर भूल कर बैठते हैं।
राष्ट्रीय कारागृहों में, बाल-सुधार गृहों में, पागल खानों में ही नहीं यत्र-तत्र-सर्वत्र आपको ऐसे लोग मिल जायेंगे जो इस क्षणिक आवेश से आवेशित हो हत्या तक कर बैठते हैं और जीवनभर अपनी स्वतंत्रता को खोकर पश्चाताप की अग्नि में सुलगते रहते हैं। थोड़े धैर्य के अभाव में वर्षों चिर प्रतिक्षित लक्ष्य के निकट पहुँचकर भी लोग इस क्रोध रूपी भूत के वश अपना सबकुछ चौपट कर लेते हैं।
मान, शान और झूठी प्रतिष्ठा के कारण जिस प्यारी-सी गुड़िया जैसी बेटी को पाल-पोस कर लोग बड़ा कर उसकी शादी की तैयारी करते हैं उसके प्यार की एक छोटी-सी नादानी से आग बबूला होकर उसकी हत्या तक कर बैठते हैं। परिणाम होता है –– पश्चाताप, समाज में घृणा और उपेक्षा का पात्र और जीवन भर जेल की हवा। क्रोध वह दुर्वासा है, जो जीवन को ही नष्ट कर देता है। क्रोध वह काली आँधी है, जो चरित्र को अन्धकार से ढक देती है। क्रोध वह भस्मासुर है जो खुद के जीवन को खाक में बदल देती है। मादक द्रव्यों तो जीवन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं, परन्तु क्रोध तो मनुष्य पर अपना प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।
स्नेह, सहयोग और सम्मान के अभाव में विचारों की असमानता से
कई परिवार ऐसे दिखाई पड़ते हैं जैसे वह प्यार और विश्राम स्थल नहीं होकर युद्ध का मैदान
हो गया हो। जहाँ गालीगलोज की दुदुंभी बजती रहती है। क्रोधावेश में तो कई लोगों के मुख
से झाग तक निकलने लगता है। ऐसे में क्रोध में उनका सारा शरीर काँपता रहता है। उन्हें
सामान्य होने में कई दिन लग जाते हैं। जो लम्बे समय तक ईर्ष्या, पश्चाताप, ग्लानि, चिन्ता और मानसिक
खिन्नता के रूप में जीवन में बना रहता है। ईर्ष्या वश कुढ़न और जलन भरे चित्त की यह
दशा मनुष्य के सकारात्मक दृष्टिकोण में भयंकर ज़हर घोल उसके सभी सकारात्मक दृष्टिकोण,
जैसे सृजनात्मकता, दिव्य कल्पना-शक्ति, स्मृति और दिव्य-बुद्धि
को पंगु कर व्यक्तित्व को हास्यास्पद बना देती है।
अपनी आत्मिक-शक्तियों को पहचानें
यदि आप इस भयानक स्थिति से निकलना चाहते हैं तो अपने अन्दर उस प्रबल इच्छा-शक्ति को जागृत कीजिए, ताकि ज्ञान और विवेक के द्वारा तथा आन्तरिक आलोक द्वारा आदत जन्य अज्ञान अन्धकार को मिटाकर जीवन में प्रेम, क्षमा और करुणा रूप सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् का भाव पैदा किया जा सके। पिछली असफलता से चिन्तित होने की कोई बात नहीं। एक बार पुन नये सिरे से अपनी बिखरी हुई सभी मानसिक शक्तियों को पुर्नसंगठित कीजिए।
आप के पास सागर के समान अथाह और आकाश के समान विशाल मानसिक शक्तियाँ विद्यमान हैं।
सिर्फ उन्हें एक बार व्यवस्थित करने की ज़रूरत है। थोड़े ही दिनों में आप पायेंगे कि
इन शक्तियों को सही मार्ग-दर्शन में प्रयोग करने से एक आश्चर्यजनक
सफलता का शुभारम्भ होने लगा है। इसके लिए जीवन में संतुलन की कला में दक्षता हासिल
करना भी निहायत आवश्यक है।
शक्तियाँ सदा निर्पेक्ष होती हैं। उनका प्रयोग निश्चित ही परिणामकारी है। आप क्रोधावेश में अपने उसी हाथ से किसी के गाल पर तमाचा मार सकते हैं या प्रेम और सहानुभूति से किसी को उसी हाथ से सहला भी सकते हैं। परिणाम सुखद और दुःखद दोनों ही दिशाओं में होंगे –– जो जीवन की सफलता को अवश्य प्रभावित करते हैं। इसके लिए विवेक बुद्धि को विकसित करना ज़रूरी है।
ऐसी बहुत-सी मानसिक शक्तियाँ या गुण हैं जिसको
यदि व्यवस्थित नहीं किया जाये तो मनुष्य अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकेगा। जैसे
स्वाभिमान और गर्व तो होना चाहिए लेकिन घमण्ड और अहंकार नहीं, मितव्ययी तो होना चाहिए परन्तु कंजूस नहीं, अटल संकल्पवान
तो होना चाहिए परन्तु जीवन में अड़ियल जिद्दी रवैया ठीक नहीं, शान्ति और धैर्य तो होना चाहिए किन्तु सुस्त और आलसी नहीं।
संतुलन –– सुन्दर जीवन की कारीगरी
हमारे प्रतिदिन के जीवन में आन्तरिक और बाह्य परिस्थितियों में बहुत ही तीव्रगति से परिवर्तन होते रहते हैं। उदाहरण, पारिवारिक सम्बन्धों और उत्तरदायित्वों में, जहाँ सामंजस्य की कला का होना आवश्यक है वही सामाजिक तथा ऑफिस में अपने पदों के अनुरूप उत्तरदायित्व को भी सामंजस्यपूर्ण ढंग से निभाना और इन सभी दायित्वों के बीच आदर्श व्यक्तित्व को भी संतुलित रखना भी महत्वपूर्ण, इसके लिए संतुलन शक्ति की अति आवश्यकता है।
इन सभी
सभी परिस्थितियों में यदि आप थोड़ा भी असंतुलित
होते हैं तो उसी अनुपात में सफलता और असफलता परिणाम लाती है। जीवन में संतुलन की कला
एक अभ्यास है। इसके आते ही जीवन में एक अनचाही खुशी, प्रफुल्लता,
एक अनिवर्णनीय आनन्द का प्रादुर्भाव होता है। सफलतापूर्वक जीने और जीवन
में सफलता हासिल करने के लिए संतुलन की कला एक आधार स्तम्भ है। इसके लिए एक कहानी प्रचलित
है ––
महात्मा बुद्ध का एक शिष्य था, श्रोण। भिक्षु बनने से पहले वह एक राजकुमार था। दीक्षा ग्रहण करते ही वह उग्र तपस्या में लीन हो गया। तन की सुधि को भी भूलकर वह मात्र तप.... और तप करता रहा। परिणाम यह हुआ कि उसका शरीर सूख कर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया। एक दिन अचानक बुद्ध की नज़र उस भिक्षु श्रोण पर पड़ी। उन्होंने उसे नज़दीक बुलाया और कहा, ``वत्स, जब तुम राजकुमार थे तब तुम वीणा बहुत ही अच्छी बजाया करते थे। आज भी एक राग बजाओ''।
उन्होंने एक भिक्षु से वीणा
मंगा कर उसके सभी तार ढीले कर श्रोण के हाथ में पकड़ा दिये। श्रोण ने कहा –– ``भंते, इसके तार बहुत ही ढीले हैं, इसका कसना आवश्यक है''। बुद्ध ने वापस वीणा अपने हाथ
में ले ली और उन सभी तारों को इतना अधिक कस दिया कि इसे छेड़ते ही तार का टूटना सम्भव
हो सकता था। ``अब बजाओ श्रोण'' बुद्ध ने
कहा। ``भन्ते, वह अब भी संगीत उत्पन्न करने
की दशा में नहीं हैं''। श्रोण ने कहा –– इन तारों को मध्य में रखने से या संतुलन में रखने से ही वीणा के स्वर झंकृत
होंगे।
एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ बुद्ध ने कहा –– श्रोण, यह जीवन भी वीणा के तार की तरह है, जैसे वीणा के तारों से कोई मधुर धुन निकालना हो तो उस तारों को तनाव के मध्य
में रखना आवश्यक है। ठीक उसी तरह जीवन-वीणा से आनन्द,
सुख, शान्ति और प्रेम के संगीत भी तभी झंकृत होंगे
जब वह मध्य में अर्थात् संतुलित हो। यही समृद्ध और शान्त जीवन का राज है। भावार्थ यह
है कि जीवन के विभिन्न पहलुओं में जब तक संतुलन नहीं होगा, तब
तक आप सफल नहीं हो सकते। इस विषय में कबीर का यह सुन्दर कथन है ––
``साधो यह तन ठाठ
तंबूरे का।
ऐंचत तार मरोरत खूँटी, हो गया धूरम-धूरे का।
कहें कबीर सुनो भाई साधो, अगम पंथ कोई
सूरे का''।
यह शरीर भी तम्बुरे की तरह है यदि इसका सही उपयोग नहीं किया जाये तो जीवन का लक्ष्य
बीच में ही छूट जाता है।