जीवन में संतुलन (Part 3)

0

 


(भाग 2 का बाकि)

मन के मालिक बनें

अपने मन को प्रभु की अमानत समझें और सदा उसमें श्रेष्ठ संकल्पों का दीप जलाये रखें। इससे मन की स्थिति इतनी मजबूत हो जायेगी कि कोई भी परिस्थिति उसे हिला नहीं सकती, पिघला नहीं सकती।

सभी भौतिक और आध्यात्मिक उपलब्धियों का आधार मानसिक शक्ति ही है। मनुष्य को इसे अपने अधिकार में रखना चाहिए। जिसका मन पर काबू है वह जो चाहे सभी कुछ पा सकता है। दूसरे के लिए असम्भव कार्य भी ऐसे मन के मालिक व्यक्ति के लिए सम्भव है। कमज़ोर मन वाला व्यक्ति तो लक्ष्य पूर्ति कर ही नहीं सकता है। तो पहली बात हुई आप मन के मालिक बने।

दूसरी बात, मन शक्तिशाली अर्थात् निर्मल करें। यदि मन शक्तिशाली हो तो ही हम कठिन कार्य को उसके द्वारा सम्पन्न कर सकते हैं। लेकिन हमारी स्थिति इसके बिल्कुल विरुद्ध है। हम मन के मालिक कम, गुलाम अधिक हैं। आज इस बात का अनुभव ज़रूरी है कि मन की शक्ति को प्रयोग करने वाली अलग सत्ता है। उस सत्ता को जानने से ही हम सम्पन्न और सम्पूर्ण आदर्श चरित्र का निर्माण कर सकते हैं। आप शरीर और मन के मालिक आत्मा हैं। परमपिता परमात्मा की संतान हैं। आत्मा, जब तक शरीर और मन से अपना तादात्म्य नहीं तोड़ लेती तब तक वह अपने मालिक वाली पृथक सत्ता का अनुभव नहीं कर सकती है।

सकारात्मक सोच, भाव और आन्तरिक सुझाव तब तक पूर्ण सफल नहीं हो सकता जब तक कि मनुष्य की केन्द्राप्य सत्ता आत्मा का पृथक बोध मनुष्य को नहीं हो सकता। कुछ हद तक या अंशत तो यह कार्य होता भी है, परन्तु उसे नियंत्रणवाली पूर्ण सफलता नहीं कहेंगे। इसलिए आप देखेंगे कि लोगों के जीवन में समरसता नहीं आती है। जीवन अनेक विसंगतियों से भर जाता है, जिससे जीवन-गंगा में दुःख, चिन्ता, भय और अशान्ति का ज़हर घुल कर उसे पूरा ही प्रदूषित कर देता है।

हम जानते हैं कि शराब ज़हर है, फिर भी पीते हैं। जानते भी हैं कि यह नुकसानकारी है, नहीं पीने का संकल्प भी लेते हैं, फिर भी पीते हैं। चूँकि यह हमारे मन के अचेतन का हिस्सा या आदत का हिस्सा बन चुका होता है, जिसे पराधीन हो हमें दुहराना या करना पड़ता है।

यदि हमारे संकल्प में उसे न करने योग्य कार्यों के प्रति दृढ़ता हो तो ही हम सफल हो सकते हैं, लेकिन फिर वही यक्ष प्रश्न कि दृढ़ता भी कैसे हो? अनुभव कहता है कि बार-बार की प्रतिज्ञा भी आदत के आगे समर्पित हो टूट जाती है।

आज मानव जीवन में अनेक तरह के दुर्गुण या बुराईयाँ एक आदत की तरह हैं। जिसे शिक्षा मात्र या ज्ञान के माध्यम से निकालना असम्भव है। हाँ, यह सम्भव है कि समझ से सफलता प्राप्त करने के लिए वह उस दिशा में आवश्यक कदम उठा सकता है।

सतत् प्रयत्नशील होने के लिए आवश्यक प्रेरणा पाना, उमंग-उत्साह और साहस को बनाये रखना उसके लिये समय का उचित समायोजन करना और उसमें ज्ञान का होना। इसके लिए जीवन में उसकी अपनी एक अलग और अहम भूमिका अवश्य है। लेकिन दुर्गुणों को मिटाना और गुणों को जीवन में धारण करना, इसके लिए सचेतन प्रयास की आवश्यकता है।

इसका समाधान या चिकित्सा मात्र अध्यात्म जगत के योगी-वैज्ञानिकों के पास है। आप मन से पृथक सत्ता हैं, प्राय लोगों को ये बातें समझ में नहीं आती हैं। यदि किसी बीमार व्यक्ति के पास सहानुभूति प्रगट करने आप जायेंगे, उससे उसका हाल-चाल पूछेंगे, उसे सान्त्वना के दो शब्द बोलेंगे कि चलो तुम्हारा शरीर खराब है, कोई बात नहीं, ठीक हो जायेगा।

बीमार व्यक्ति आपकी बातों से सहानुभूति का अनुभव निश्चित ही करेंगे। यह सोचकर कि आपने कहा था कि उसका शरीर खराब है। कहीं--कहीं लोग इस बात को भी समझने लगे हैं कि आत्मा से शरीर अलग है, परन्तु उसी बीमार व्यक्ति को यदि आप कहें –– तुम्हारा मन या दिमाग खराब है, तक्षण वह क्रोध से भर जायेगा, क्यों?

क्योंकि लोग मन और दिमाग से इतने तदरूप या एकता का अनुभव करते हैं कि अपने को मन से अलग आत्मा समझते नहीं, परन्तु मन ही समझते हैं। इस पृथक सत्ता का बोध कि मन आत्मा की एक शक्ति है, जीवन में चमत्कारिक रूपान्तरण लाता है। यह हमारा भी और दूसरों का भी अनुभव है। इसके लिए मन के रचनात्मक तंत्र को समझना अत्यन्त आवश्यक है।

मन का रचना तंत्र और उसकी समझ –– सफलता के लिए आवश्यक

परिवर्तन और सृजन शक्ति के विकास के लिए मौन नितान्त आवश्यक है। क्या अच्छा हो यदि हम अपने मन के रचना तंत्र को समझने का प्रयत्न थोड़ा मौन और एकान्त क्षणों में जाकर प्रारम्भ करें। यदि हम अपने पिछले जीवन का सिंहावलोकन करें, तो पायेंगे कि हमारा बहुत कुछ जीवन यांत्रिक सा हो गया है।

वही पुनरावर्तन, चाहे वृत्तियों या भावों का हो, चाहे कर्मेन्द्रियों के साथ बेहोशी से किया तादात्म्य। जिसके कारण जीवन में बहुत सारी व्यर्थताओं के संस्कारगत कारणों ने अपनी जड़ें जमा ली हैं और बहुत बार हम उसी व्यर्थता की चक्रीय शृंखला में बेवश, जीवन को यूँ ही व्यर्थ गवाँते रहते हैं। बेहोशी या अलबेलेपन की इस नींद को तोड़ने के लिए हम यह दृढ़ संकल्प करें कि हमें जीवन से इस व्यर्थता की जड़ता को तोड़कर हटाना है।

यांत्रिक जीवन का अर्थ हुआ कि संस्कारगत या आदतन नहीं चाहते हुए भी उन कर्मों और संकल्पों को बार-बार करना अर्थात् गुलामी की ज़िन्दगी जीना। जैसे घटना तो मन में होती है लेकिन उसका असर इन्द्रियों पर होता है। इस प्रकार कोई भी नहीं चाहने वाले कर्म किसी भी कर्मेन्द्रियों द्वारा आदतन सम्पादित होता रहता है, उसका स्त्रोत हुआ मन। इसलिये मन की इस यांत्रिकता को थोड़ा समझें।

शेष भाग - 4

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top