(भाग 3 का बाकि)
मन का महत्त्व
वास्तव में हमारा मन, हमारी मुक्ति और दासता दोनों का ही आगम बिन्दु
है। नर्क और स्वर्ग का प्रवेश द्वार भी यही मन है इसका यथार्थ उपयोग मनुष्य को अथाह
आनन्द के सागर में ले जाता है तो अयथार्थ उपयोग दुःखों की विषय-वैतरणी में। ठीक-ठीक देखें तो मन स्वयं न मित्र है,
न शत्रु। यह मात्र उपकरण है। यदि हम इसे अपना उपकरण, साधन, वाहन या नौकर बना सकें, तो
यह मार्ग बन सकता है –– उस चरम साध्य
तक पहुँचने का।
सभी प्रकार की तरकीबें, विधियाँ, प्रयास, नियम तथा धारणायें इसी समस्या के समाधान में जुड़ें हैं कि इच्छा-मात्रम्-अविद्या अर्थात् निर्विचार की स्थिति कैसे बनें? मन पर मालकियत या सही-सही उसका उपयोग कैसे हो? पागलखाने में बैठा व्यक्ति और निर्विकल्प समाधि में परम आनन्दित बैठा योगी, दोनों ने ही अपने मन का उपयोग किया है या ऐसा कहें कि एक को मन ने उपयोग किया, जो पागलखाने में बैठा है। सही उपयोग से व्यक्ति एक चित्त, एकरस, र्निसंकल्प मन की अवस्था को प्राप्त कर सदा आत्मा राजा की सीट पर उपस्थित रहता है।
दूसरे को कहेंगे
कि आत्मा ने मन का उपयोग किया। मन के गलत उपयोग से व्यक्ति विखण्डित चित्त में भीड़
की तरह परस्पर विरोधी संकल्पों के शोरगुल के साथ पागल मन के रूप में उपस्थित रहता है
और मालिक आत्मा अनुपस्थित- सी रहती है अर्थात् मन ने आत्मा का
उपयोग किया।
मन का अस्तित्व
इच्छाओं के समाप्त हो जाने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि मन का अस्तित्व आत्मा से मिट गया है। इसका अर्थ है मन का उपकरण की तरह हो जाना ताकि मालिक की तरह जब ज़रूरत है तब, उसका उपयोग किया जा सके। अन्यथा क्रिया-शून्य अवस्था में उसकी उपस्थिति होना मात्र रह जाता है।
इसलिए योगी जब अपने
आत्मिक-भाव में, समग्र रूपेण जागृत भाव
से स्थिर रहते हैं उस समय मन अनुपयोगी शान्त बना रहता है। साधारण जन में मन समग्र रूपेण
अनेक आकांक्षाओं, अपेक्षाओं से भरपूर बंटा हुआ सागर की अन्तहीन
लहरों की तरह तरंगित और अशान्त रूप से उपस्थित रहता है और आत्मा सुषुप्त, बेहोश या अनुपस्थित-सी रहती है।
मन का यथार्थ
उपयोग
अब प्रश्न उठता है कि कैसे मन का यथार्थ उपयोग कर उसके पार जाया जायें? अपने जन्मों-जन्मों के संस्कारों के कारण हम मन के गलत उपयोग के आदि बन गये हैं और दुःख का अनुभव करते रहते हैं अर्थात् मन मालिक बन जाता है और हम कहने वाली आत्मा दास। अन्त सत्ता अर्थात् आत्मा गुलाम बन छाया की तरह मन के पीछे-पीछे उसका अनुसरण करती रहती है।
जब आत्मा मन से कहती है –– रुको तो भी मन उसकी आज्ञा को नहीं मान, अतीत और भविष्य में चलता रहता है या दूसरे अर्थों में यह कहें कि मन आत्मा को ही आज्ञा देता है कि परछाई की तरह मेरे पीछे-पीछे चलो। मन जो एक उपकरण था, दास की तरह होना चाहिए था, वो आत्मा का मालिक बन गया। जैसे हाथ, पैर, तथा शरीर के अन्य अंग हमारी आज्ञा से गति करते हैं, यदि हम अपने पैर से कहेंगे कि रुको और पैर चल दें, हमारी आज्ञा को न मानें तो शरीर में एक भारी उत्पात मच जाये। एक अराजकता, फैल जाये।
उसी प्रकार हमारे जीवन में यदि अशान्ति है तो, उसका कारण
भी मन ही है, जिसने एक गहरी अव्यवस्था फैला रखी है क्योंकि लम्बे
समय से हमने उसे बहुत अधिकार दिये हुए रखे हैं, जो तानाशाह की
तरह कार्य करने लगा है। यदि मन को आज्ञा दो तो जीवन में बड़ा संघर्ष फैल जाता है,
परन्तु योगी-जन, मन का प्रयोग
भी पैर की तरह अर्थात् एक इन्द्रिय की भांति ही करते हैं क्योंकि आत्मा में मन भी एक
सूक्ष्म इन्द्रिय की तरह अविनाशी है।
मन उपकरण या
सूक्ष्म इन्द्रियाँ हैं
मन अर्थात् स्मृति। मालिक आत्मा किसी से बातचीत करे, ज्ञान सुनाये तो उसे स्मृति अर्थात् मन की ज़रूरत तो पड़ेगी ही। लेकिन वे मात्र उपकरण की तरह उसका प्रयोग कर फिर उसे रख छोड़ते हैं। उसका मन दर्पण की तरह रहता है। लेकिन सर्वसाधारण का मन फोटो फिल्म रील की तरह है। यदि आपके सामने कोई आ जाये तो उसके जाने के बाद आपके मन में उसकी बातचीत, उसकी तस्वीर की यादें चलती रहती हैं।
वह स्मृति में छप जाती है, परन्तु महान् आत्माओं का
मन दर्पण की तरह होता है। व्यक्ति या बातें आई तो आई, गई तो गई।
इसलिए मन जो आत्मा की सूक्ष्म इन्द्रियाँ है उस पर आत्मा का स्वामित्व बनाना ही मनुष्य
की सफलता है। मन की समाप्ति से हमारा तात्पर्य है मन की मालिक के रूप में समाप्ति और
उपकरण के रूप में, दास के रूप में रहने जैसी उपस्थिति है। इसलिये
मन के इस रचना तत्र को हमें अच्छी तरह समझना होगा।
मनोवैज्ञानिक आजकल एक नये शब्द का प्रयोग करते हैं –– मन शरीर अर्थात् मन शरीर से जुड़ा है या ऐसे कहें कि मन अति सूक्ष्म सत्ता
है जो आत्मा और शरीर के बीच स्थित है। इसलिए मन का असर शरीर पर पड़ता है और शरीर का
असर मन पर। मन पर हमारी मालकियत हो, इसके लिये हम बहुत से ज्ञान
बिन्दूओं का विश्लेषण करेंगे। लेकिन हम यहाँ पर लक्ष्य प्राप्ति को साधना की एक महत्त्वपूर्ण
बात पर व्याख्या करेंगे। वह है मन के रचना-तत्र की यथार्थ समझ।
मन का उपयोग
वाहन की तरह करें
यह अर्थ नहीं है कि मन जागरुकता का हिस्सा है। नहीं, जागरुकता मन के द्वारा बहती है। वह मन का हिस्सा नहीं है। मन एक बल्ब की तरह है और जागरुकता बिजली। यदि बल्ब टूट जाता है तो इसका यह मतलब नहीं कि बिजली टूट जाती है। बिजली की अभिव्यक्ति में रूकावट आ सकती है। क्षमता तो बनी रहती ही है, बस बल्ब लग जाये और बिजली प्रवाहित हो जाये। मन मात्र वाहन है, उपकरण है, साधन है। जागरुकता उसके द्वारा प्रवाहित होती है।
जब दो आत्मा बातचीत के माध्यम से जुड़ती हैं तो दो अन्त करण से प्रवाहित होने वाली
बाह्य ऊर्जा के लिए मन माध्यम बन जाता है। कार में घूमना, हवाई
जहाज में उड़ने का अर्थ यह नहीं है कि हम कार या हवाई जहाज हैं। वह वाहन है। इसी भांति
मन भी वाहन है। लेकिन हम इसकी पूरी क्षमता का उपयोग नहीं करते हैं। इसकी पूरी क्षमता
का उपयोग ही सत्य ज्ञान का लक्षण है।
मन का उपयोग हम ऐसे करते हैं जैसे हवाई जहाज का उपयोग कोई बस की तरह कर रहा हो। हवाई जहाज के पंख को हटाकर, बस की तरह उसे रोड़ पर चलाया जा सकता है। लेकिन यह विवेक सम्मत नहीं है। ठीक उसी प्रकार बस की तरह हम मन का उपयोग इच्छा, कामना, दिवा स्वप्न देखने में करते हैं। लेकिन यदि मन को सत्य ज्ञान के अनुसार उपयोग करें तो यही मन आत्मा को सुन्दर जीवन जीने की कला में ले जाने वाला हवाई जहाज जैसा वाहन बन जाता है।
ध्यान रहे जीवन को उड़ती कला में ले
जाने वाली आत्मा, सवार या मालिक है जो इसके पीछे साक्षी है। वह
इसे भी (मन को) साधन की तरह, वाहन की तरह प्रयोग करती है। आत्मिक-स्वरूप के अनुभव
का अर्थ है एक सीमा पर इस उपकरण (मन) के
उपयोग का भी बन्द हो जाना है। मात्र आत्मा की चैतन्यता का अनुभव करना है ––
कभी आनन्द का, कभी प्रेम का, कभी शान्ति का।
आनन्द के इस जागरुक क्षण में आत्मा मन का उपयोग वाहन की तरह कर सकती है। जिसमें
सुझाव की शक्ति, विचार सम्प्रेषण की शक्ति और भी बहुत तरह की
उपयोगिता मन की हो सकती हैं। आत्मा राजा बनकर मन के द्वारा कार्य कराने वाली स्वराज्य-अधिकारी बन जाती है।
तन और मन दोनों नौकर हैं, वाहन है और मनुष्य आत्मा मालिक जो इसके पीछे छिपा है। लेकिन इस बात को भूलकर हमने अपने को वाहन समझ रखा है। इसी वाहन और मालिक के तादात्म्य को तोड़ने की विधि है ध्यान, मौन और साक्षी का अभ्यास। कोई भी आत्मा सम्पूर्ण अवस्था को प्राप्त करने के बाद शरीर में उपस्थित रहकर सेवा कर सकती है। मन समाप्त नहीं हो जाता, परन्तु साक्षी की साधना मन और शरीर के तादात्म्य् को तोड़ देती है।
अब आत्मा जानने लगती है –– यह मैं हूँ और यह मन है। बीच का पुल टूट जाता है। मन तो जैसे पंखे की तरह है। इसका उपयोग करना चाहे तो इसे चला दें, अन्यथा गैर क्रियात्मक अवस्था में वह वहाँ ही है उसे उपयोग किया जा सकता है। जैसे एक यंत्र के उपयोग के समय कोई व्यक्ति सभी यंत्रों पर लगातार होश रखते हुए आँखें घुमाता रहता है, लेकिन वह चालक यंत्र नहीं बन जाता है ठीक इसी प्रकार शरीर और मन के कई कार्य आत्मा के चारों ओर रचना तत्र की तरह फैले हुए हैं। हम इसके बीच दो ढंग से जीवन जी सकते हैं। एक तो हम अपने को रचना तत्र ही समझ लें।
उदाहरण –– अनेक नाम, उपाधि, जैसे स्त्री, पुरुष, सुन्दरता, आर्टिस्ट, डॉक्टर, इन्जीनियर इत्यादि नामों से अपने को समझ लें, जिसे देह-अभियान या मुखौटा कहते हैं। यह हुआ रचना तंत्र। या तो हम अपने को रचना समझ लें। जिसका परिणाम दुःख और अशान्तपूर्ण जीवन है। यही बन्धन का संसार है।
क्रियाशीलता का दूसरा तरीका है जागरुक होकर या अपने
आत्मिक-स्वरूप में स्थित होकर अपने को इस रचना तत्र से पृथक होकर
इसका उपयोग करना है और तब यदि यत्र की बनावट में कोई खराबी भी आ जाये तो उसे ठीक किया
जा सकता है। लेकिन इसमें घबराने या दुःखी होने की ज़रूरत नहीं रह जाती। यदि यत्र पूर्ण
खराब हो भी गया तो मृत्यु के बाद नया जीवन अर्थात् दूसरा यत्र मिल जायेगा। इसलिए साक्षी
अर्थात् जागरुकतापूर्वक, अटेन्शन या ध्यानपूर्वक जीवन जीने की
ज़रूरत है। इसके लिये मौन एक विधि है।
सभी रूपान्तरण, सभी परिवर्तन, सभी आलौकिक प्राप्तियाँ इन
थोड़ी साधनाओं से, थोड़ा ध्यानपूर्वक, बिना
तनाव के करने से वे जीवन में फलीभूत हो जायेगी। ऐसा मुझे अनुभव होता है, आप भी प्रयोग करके देखें, शुभस्य शीघ्रम्।