जीवन में संतुलन (Part 5)

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(भाग 4 का बाकि)

अचेतन आदतें

दुनिया में जितने भी महापुरुष हुए हैं वे सभी किसी न किसी रूप में हमारे सामने आदर्श रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उनमें वे सभी आदर्श चारित्रिक विशेषता उन न्यूनतम मापदंडो तक तो अवश्य ही हो, जिसका निर्धारण समाज सामाजिक जीवन में सामान्य प्रतिष्ठा के साथ जीने के लिए करता है, परन्तु ऊँचे ध्येय को प्राप्त करने में इन चारित्रिक मूल्यों का अपना अलग ही स्थान है।

जब इन निर्धारित मापदंड को तोड़कर कोई जीने लगता है तो उसके अन्दर आत्म-ग्लानि, निराशा और हीनता की भावना घर कर लेती है। दुर्गुण और त्रुटिपूर्ण चरित्र, जिसके अन्दर व्यसन, अपराधिक प्रवृत्ति और मर्यादाहीन आचरण इत्यादि आदतों के रूप में विकसित होने लगता है।

आज का युवा और दूसरे अन्य ऐसा सोचना प्रारम्भ कर देते हैं कि हम अब इन बुराईयों से मुक्त नहीं हो सकते हैं। ये आदतें हमारे साथ ही कब्र में दफन होंगी। इस तरह हीन और हतोत्साहित हो निराशा की गहरी खाई में गिर जाते हैं।

क्या है आदत?

वही पुनरावर्तन, चाहे वृत्तियों या भावों का हो, चाहे कर्मेन्द्रियों के साथ बेहोशी में किया गया तादात्क्रम हो, जिसके कारण जीवन में बहुत सारी व्यर्थताओं के संस्कारगत कारणों ने अपनी जड़ें जमा ली हैं और बहुत बार व्यक्ति व्यर्थ की चक्रीय  शृंखला में कसे बेबस, जीवन को यूँ ही व्यर्थ गवाँते रहते हैं। बेहोशी या अलबेलेपन की इस आदत को तोड़ने के लिए व्यक्ति को दृढ़ संकल्पवान होना निहायत ज़रूरी है।

यांत्रिक जीवन का अर्थ हुआ संस्कारगत या आदतन, नहीं चाहते हुए भी उन संकल्पों और कर्मों को बार-बार करना अर्थात् गुलामी की ज़िन्दगी जीना। जैसे किन्हीं खास क्षणों में, किसी खास बातों के कारण क्रोध में उबल पड़ना। अब यह आवेग तो मन में आते है, लेकिन इसकी अभिव्यक्ति इन्द्रियों के माध्यम से होती है।

जब किसी क्रिया का अभ्यास उद्देश्य से किया जाता है तो उस क्रिया में अपने आप दक्षता हासिल हो जाती है। यह क्रिया मनुष्य के अचेतन में चली जाती है। उसे अब इस कार्य के लिए सचेतन प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है। स्वाभाविक रूप से वह कार्य अपने आप सम्पादित होने लगता है। इसी स्वाभाविक क्रिया को आदत कहते हैं। यह आदत अच्छी बुरी दोनों ही हो सकती हैं। बुरी आदतो के परिणाम जीवन के लिए घातक व चिन्ताजनक होते हैं। अच्छी आदतों के परिणाम सकारात्मक और सुखद होते हैं।

आदत यांत्रिक है

आज मनुष्य का जीवन करीब-करीब यांत्रिक हो गया है। उसके प्रत्येक कर्म में यांत्रिकता झलकती है। जैसे यंत्र बाह्य प्रेरणा अर्थात् बटन से चलता है उसी तरह जीवन में 90 प्रतिशत कार्य अंतप्रेरणा अर्थात् आदत के वशीभूत ही होता है। जैसे एक कुशल मोटर चालक अभ्यास के कारण आंतरिक ध्यान की शक्ति खर्च किये बिना ही मोटर को कुशलता से चला सकता है। कुशलता अर्थात् पक्की आदत। इस तरह की आदत व्यवहारिक जीवन के लिए बहुत ही अच्छी है।

इसके सबसे बड़े फायदे हैं –– अतिरिक्त शक्ति की बचत, परन्तु जब हम क्रोध के वश आदतन व्यवहार करते हैं तब यह आदत नुकसान पहुँचाती है। आज मनुष्य का जीवन नकारात्मक यांत्रिकता से बहुत अधिक प्रभावित है। जैसे कर्मों की तुलना खेती से की गई है, उसी प्रकार आदत भी खेती जैसी ही है। जैसी आदतों का निर्माण होगा वैसा ही चरित्र बनना प्रारम्भ हो जाता है। जैसे एक बुराई अनेक बुराईयों को जन्म देती है, उसी प्रकार एक आदत भी अपने अनुसार अनेक आदतों को पैदा कर देती है। अभ्यास द्वारा जिन आदतों का निर्माण होता है, वही आदत कठिन परिस्थितियों में व्यवहार की कसौटी बनती है।

आपत्तिकाल में यदि धैर्य साहस और आत्म-विश्वास का अभ्यास नहीं हो तो व्यक्ति चिन्ता और भयवश अपना सर्वनाश कर लेता है। शराब का एक प्याला मौज और मस्ती से प्रारम्भ होता है, दूसरा प्याला मौज-मस्ती में बुद्धि की इच्छा को जन्म देता है और इसी क्रम में बढ़ते हुए अगला प्याला आवश्यकता और उसके बाद का प्याला मज़बूरी पैदा कर देता है। कुछ मादक द्रव्य ऐसे होते हैं, जिसके प्रथम प्रयोग मात्र से ही अचेतन आदतों का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है।

हैरोइन उन क्रियों में से एक है जिसका प्रथम प्रयोग ही प्रयोगकर्ता में आदत का निर्माण प्रारम्भ कर देता है। दूसरी बार प्रयोग करने से व्यक्ति इस नशे का गुलाम हो जाता है और तब-तक बहुत देर हो चुकी होती है। आज शराब मनुष्य की एक आदत बन गई है।

माना कि नशे कि एक खुराक आपके आज के दुःख को कम कर देगी, परन्तु कल यह आपके लिए आज से भी ज़्यादा भयानक रूप धारण कर लेगी दुःख को कम करने के इस गलत अन्दाज को बंद कीजिए।

इस तरह इंसान का जीवन यांत्रिक हो जाता है। आदत उसका बटन है। जीवन का संचालन अब उसके खुद के हाथ में नहीं, परन्तु आदत रूपी बटन के हाथ में है। इसलिए आदतें ज्ञान और उपदेश से ज़्यादा प्रभावी साबित होती है। बहुत सी बातों का प्रारम्भ मौज-मस्ती से होता है, परन्तु जल्दी वह स्थाई दुर्गुण में बदल जाती हैं। जैसे ज़्यादा और व्यर्थ बोलना भी एक आदत का निर्माण करता है।

इस आदत के वशीभूत इंसान परचिन्तन और व्यर्थ चिन्तन के द्वारा अपना अमूल्य समय तो नष्ट करता ही है, परन्तु व्यर्थ का कीचड़ दूसरे की बुद्धि पर भी डालता रहता है। जब आप व्यर्थ बोलते हैं, झूठ बोलते हैं, कटु बोलते हैं तो बोलते समय बार-बार उसे आप खुद भी सुनते हैं। जिसका परिणाम यह होता है कि दुबारा वही बातें आपके और गहरे अचेतन में उतर जाती है। वही बातें फिर-फिर आदत का निर्माण करती है और फिर जीवन में एक तरह की कन्डिसनिंग शुरू हो जाती है।

एक बार दो मित्र नदी के किनारे खड़े-खड़े बाढ़ के कारण उफनती नदी का आनन्द ले रहे थे। तेज प्रवाह में उन्होंने देखा कि एक कम्बल मझधार में बहता जा रहा है। दोनों ने आपस में राय किया कि क्यों न बहता हुआ कम्बल हासिल कर लिया जाए। कौतुहलवश एक ने नदी में छलांग लगा दी और तैरता हुआ कम्बल के पास पहुँच गया। किनारे खड़े उसके मित्र ने जब देखा कि वह कम्बल को तट तक लाने के प्रयास में खुद ही कम्बल के साथ बहता जा रहा है तो उसे शंका हुई कि कुछ गड़बड़ है।

क्योंकि कम्बल के साथ वह खुद भी जल प्रवाह में डुबकी खा रहा है। उसने तट से चिल्लाकर आवाज़ दी ``मित्र, कम्बल को छोड़ वापिस आ जाओं''। अपनी जान जोखिम में मत डालो। डूबते-उतराते उस मित्र ने मझधार से ही आवाज़ लगाई, ``मित्र, यह कम्बल नहीं भालू है जो बाढ़ में बहता जा रहा है अब तो इसने मुझे ही पकड़ रखा है, छोड़ता ही नहीं, तुम ही हमारी मदद करो''

लोग कौतुहल वश सिगरेट को मुँह में लगाते हैं और चलो थोड़ी मौज मस्ती क्यों न कर ली जाये। थोड़े समय के बाद सिगरेट उसके मुँह से चिपक जाता है और लोग इस तरह लत के शिकार हो जाते हैं। प्रारम्भ में लगता है कि उन्हें सिगरेट पीने से मजा आ रहा है लेकिन इन नशीली चीज़ों के सम्पर्क में आते ही ज़िन्दगी का सारा मजा किरकिरा हो जाता है। प्रारम्भ में जो कम्बल दिखता था वह समय के अंतराल में जानलेवा भालू साबित हो जाता है।

शेष भाग - 6

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।

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