(भाग 6 का बाकि)
संयम अर्थात् आत्म-अनुशासन की शालीनता
एक पतले धागे को चटका देना कितना आसान है? परन्तु उसके द्वारा
बनी रस्सी से विशालकाय हाथी भी बंध जाता है। थोड़ी आग को चुल्लूभर पानी से बुझा देना
सम्भव है, परन्तु वही आग भड़क जाती है तो उसे बड़े-बड़े अग्निशामक दल द्वारा भी काबू में करना मुश्किल पड़ जाता है। अग्निशामक
दल के 340 लोग तब आग की ज्वाला से बली चढ़ गये जब वे अमेरिका
के उस ट्रेड सेन्टर टॉवर की आग को बुझाने की कोशिश कर रहे थे, जब उससे विमान ने टक्कर मार दी थी।
चरित्रवान और प्रभावशाली व्यक्ति के निर्माण के लिए कठोर आत्म-अनुशासन की अति आवश्यकता होती है। जीवन में समय-प्रति-समय उठने वाले आन्तरिक आवेगों, संवेगों पर यदि हमारा
संयम नहीं हो तो जीवन में सफलता मुश्किल है। संयम अर्थात् सम्यक नियंत्रण। नकारात्मक
परिस्थिति में भी व्यक्ति का सकारात्मक चिन्तन प्रभावी होता है। यदि आप जीवन में सफलता
का कोई दर्शन करना चाहता है तो पहली बात है दृढ़ता से, विपरीत
परिस्थिति में टिके रहना तथा दूसरा हैं संयम को बनाये रखना।
सफल जीवन का अर्थ है कर्म-गंगा का दिव्य स्वच्छ और निर्मल
धारा का प्रवाह शाश्वत प्रेम और शास्वत नियम दोनों किनारे की मर्यादाओं के बीच कल-कल, छल-छल के मधुरनादों से गूँजते
निरंतर प्रवाहित होना, लेकिन जीवन में कर्म के विशाल समर में
वही मनुष्य पूर्ण सफल हो पाता है जो जितेन्द्रिय हो, जिसने यथार्थ
विवेक बुद्धि के विकास द्वारा जीवन में अपने संयम का केन्द्र स्थापित कर लिया हो। जिन्हें
जीवन में तेजस्विता की ऊँचाई या महानता के लक्ष्य को पाने में सफल होना है उनके लिए
तो इन्द्रिय संयम को उपलब्ध करना अत्यन्त ही आवश्यक है।
संयम और इश्वरीय नियम मानव जीवन की शोभा है। मन और बुद्धि के संयम से कर्मेन्द्रियों
पर स्वत ही संयम स्थापित हो जाता है। संयम की स्मृति रहने से हर कर्म संयम बन जाता
है। `जो कर्म मैं करूंगा मुझे देख सभी करेंगे, की स्मृति हमें संयम पूर्ण कर्म करने को प्रेरित करती है।
जन्म-जन्म से शिक्षण के जिस परिवेश से हम पले हैं
वह तो इन्द्रियों के आकर्षण या रस के मायावी संस्कारों की परत-दर-परत के आवरणों से ढका है। इन्ही पुरानी आदतों के आवरणों
को यदि हमे तोड़ना हो तो विवेकपूर्ण विचारों के उजाले में तथा अभ्यास की प्रयोगशाला
में बैठ उससे प्राप्त हुए अनुभव द्वारा इसमें सफलता प्राप्त की जा सकती है।
आदतें मनुष्य कर दूसरा स्वभाव बन जाती हैं
एक-छोटी सी घटना से हम प्रारम्भ करते हैं। किसी नाटक कम्पनी में (स्टेज शो में) एक युगल पति-पत्नी एक खेल दिखाया करता थे। वह अपनी पत्नी को घूमते तख्ते के आगे खड़ा कर तीर चलाता था। तीर ऐसे चलाता कि उसकी पत्नी के करीब-करीब शरीर को छूते-छूते वह तख्ते पर जाकर चुभ जाता था। उसे इस प्रकार के निशाने लगाने का अभ्यास इतना गहन हो गया था कि एक भी तीर उसकी पत्नी के शरीर को स्पर्श नहीं करता था। ऐसा खेल वह वर्षों से रंगमंच पर दिखाया करता था।
कुछ समय से उसका आपसी कलह छोटी-मोटी बातों को लेकर प्राय हो जाया करता था और इस कलह के कारण क्रोधवश कभी-कभी उसे ख्याल आता कि इस कलह का अन्त क्यों न इसकी (अपनी पत्नी के) छाती में तीर मारकर ही कर दिया जाये। लेकिन वह ऐसा नहीं करता था। एक दिन तो हद हो गई। सांझ को खेल दिखाने के पूर्व उसका कलह आपस में इस कदर बढ़ गया कि पति ने उस दिन निश्चय किया कि आज मैं निश्चय ही इसके सीने में तीर मारकर रोज-रोज के इस कलह को समाप्त कर दूंगा।
मंच पर तख्ते के पास खड़ी अपनी पत्नी पर
उसने एक नज़र डाली और आँखें बन्द कर तीर मारने का निश्चय कर लिया। क्योंकि आँखें खोलकर
निशाने लगाने का उसका अभ्यास गहन था अपनी पत्नी की छाती में निशाना लगा उस व्यक्ति
ने तीर छोड़ दिया। पूरा हाल ताली की गड़गड़ाहट से गूंज उठा उसने आँखें खोली तो पाया
कि तीर उसके शरीर को छूते-छूते तख्ते में जा लगा था। करीब-करीब 40-50 तीर छोडे उसने, और आश्चर्य!
एक भी तीर उसकी पत्नी को नहीं लगा। जैसा प्राय पहले प्रत्येक दिन वह
खेल दिखाया करता था, वही आज भी हुआ।
विश्लेषण क्या हुआ? वर्षों का उसका गहन अभ्यास उसके संस्कार में समा गया था। आज चाहकर भी वह चूक गया। क्योंकि कर्मेन्द्रियों का गहन अभ्यास या निशाने लगाने का कर्म उसकी अचेतन आदत बन गई थी और लाख चाहने के बाद भी वह व्यक्ति अपनी पुरानी आदतों के वश अपनी पत्नी की छाती में तीर मारने से चूक गया। ऐसा प्राय हम सभी के जीवन में भी होता रहता है।
उस व्यक्ति का तीर चलाने का अभ्यास तो वर्षों का था, परन्तु हम मनुष्यात्माओं का अभ्यास या कहें संस्कार, वर्षों का नहीं बल्कि जन्मों-जन्मों का है। कर्मेन्द्रियों
का आकर्षण इतना प्रबल हो गया है कि हम चाहकर भी अपने निशाने से चूक जाते हैं। जैसे
वैज्ञानिक प्रकृति को जानने के कारण उस पर विजय प्राप्त कर लेता है, ठीक उसी प्रकार हमें भी अन्तर्मुखी होकर इन्द्रियों की अन्तर प्रकृति को जानना
होगा तब ही यह जानना या ज्ञान हमें इन्द्रिय-संयम या यों कहें
जितेन्द्रिय बना सकता है।
संयम का अर्थ –– दमन नहीं है
इन्द्रिय-संयम का अर्थ दमन नहीं है। संयम का अर्थ है जागरण, होश, स्मृतिस्वरूप होना। दमन तो उबलता हुआ असंयम है। ऐसे, जैसे केतली का ढक्कन बन्द हो और अन्दर पानी उबल रहा हो। जब भाप अति होगी तो विस्फोट निश्चित ही होगा। व्यक्ति क्रोध या तो दबा देता है या तो थोड़ा करता रहता है यही दमित शक्ति एक दिन सभी सेफ्टी वाल्वज़ को तोड़कर निकल जाती है और इस विस्फोट का बहुत बड़ा नुकसान होता है। यही क्रोध की शक्ति रूपान्तरित हो सकती है, रूहानी जोश में या क्षमा में।
काम प्रेम में, ब्रह्मचर्य में रूपान्तरित हो सकता है। लेकिन यही क्रोध, यही घृणा यदि व्यक्ति थोड़ा-थोड़ा करता रहेगा तो फिर यही आन्तरिक शक्तियाँ लीक होती रहेंगी फिर उसके पास क्षमा करने की शक्ति कहाँ रह जायेगी? भोग तो ऐसा है जैसे कि हज़ार छेद वाली बाल्टी। चाहे उस कुएँ में से बाल्टी द्वारा कितना ही पानी निकाले, शुरू में बाल्टी पानी से भर जायेगी परन्तु जैसे-जैसे आप उसे ऊपर खींचेंगे हज़ार छेद से गिरता हुआ पानी शोर-शराबे के साथ ऊपर आते-आते तक खत्म। व्यक्ति के जीवन में इन्द्रियों द्वारा भी क्रोध, काम, लोभ, मोह इत्यादि रूप में आत्मा की शक्ति हज़ार छिद्रों से बहती रहती है और जीवन रूपी बाल्टियों से अन्तत प्राप्तियों का जल खाली हो जाता है।
जीवन में इन्द्रियों के साथ दो तरह के धोखे हैं। पहला है भोग का धोखा जोकि
हज़ार छिद्र वाली बाल्टी बन जाता है। तो दूसरा है दमन का धोखा ऐसे जैसे पानी से भरी
उबलती हुई केतली। इन्द्रिय-संयम या कर्मेन्द्रियजीत होने का मतलब
है –– इन्द्रियों के आकर्षण से परिचित होना। यही परिचय अर्थात्
समझ या ज्ञान हमें विजयी बनाता है। संयम अर्थात् कर्मेन्द्रियजीत और कर्मेन्द्रियों
पर वही विजय प्राप्त कर सकता है जो इन्द्रियों के सभी राजों को, उसकी अन्त प्रकृति को जानता हो।