(भाग 7 का बाकि)
आन्तरिक आवेगों के प्रति जागरुक और साक्षी बनें
जब भी आपके अन्दर क्रोध की ज्वाला उठती है तो अप प्राय उस पर ध्यान नहीं दे पाते हैं। परमात्मा का ध्यान भी करते हैं, कोई ज़रूरी काम हो तो उस पर भी ध्यान देते हैं। यह तो अति आवश्यक भी है। लेकिन इसका दूसरा पहलू है, जब क्रोध उठता है तो हमें क्रोध पर भी ध्यान देना चाहिए। देखा गया है कि हम सोचते या चिन्तन तो बहुत अधिक करते हैं, परन्तु ध्यान कम देते हैं या बिलकुल नहीं देते हैं। जब भी क्रोध की लपट अन्दर में उठती है तो हमारे विचार उस लपट के साथ बह जाते हैं और हम क्रोध के विचार के साथ अपना तादात्म्य बना लेते हैं। फिर ऐसा नहीं होता है कि क्रोध अन्दर उबल रहा हो और आप दूर खड़े होकर उसका निरीक्षण करें। नहीं, आप क्रोधी हो जाते हैं या ऐसा कहें जब एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रयोग करता है या किसी रासायनिक द्रव्य पर खोज करता है तो वह द्रव्य नहीं बन जाता है।
यदि वह समझ ले कि मैं ही वह द्रव्य हूँ तो फिर खोज कैसे होगी? जिस प्रकार विज्ञान का आधार प्रयोग और निरीक्षण है ठीक उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन में जीवन-मूल्यों में परिवर्तन के लिए भी ध्यान अर्थात् निरीक्षण की ज़रूरत है। जिन-जिन इन्द्रियों के साथ आपका एकात्म हो जायेगा, आप उसे नहीं जान पायेंगे। उसे दूर खड़े साक्षी हो देखने की ज़रूरत है। इन्द्रियाँ निरन्तर अपना काम करती है और हम एक झूठा तादात्म्य उसके साथ जोड़ लेते हैं कि हमने किया या हम कर रहे हैं। आपको भूख लगती है तो ज़रा गौर करें कि भूख की संवेदना का केन्द्र कहाँ है भूख पेट को लगी है कि आपको?
ध्यान देने पर आपको पता पड़ता है कि इसकी संवेदना का केन्द्र पेट है। भूख लगना और बात है, पता पड़ना दूसरी बात है। पेट की इन्द्रियाँ उपकरण हैं जो मात्र यह खबर करती है कि इसमें भोजन डालो। नहीं तो यह यत्र खराब हो जायेगा। उदाहरण ö यदि आप कोई दृश्य चश्मे द्वारा देखते हैं तो चश्मे से दिखाई पड़ने पर आप यही कहते हैं कि हमें दिखाई पड़ता है। दरअसल चश्मे से आँख को पता चलता है। आँख द्वारा बाहर के दृश्यों का आपको पता चलता है। ज़रा नम्बर वाला चश्मा हटा लीजिये फिर आपको स्पष्ट दिखना बन्द हो जायेगा। फिर भी आप यही कहेंगे कि मुझे दिखाई नहीं पड़ता है, परन्तु मात्र आपके बीच से चश्मा हट गया है। आप तो वही हैं जिसको पहले दिखाई पड़ता था, अब दिखाई नहीं पड़ता है।
आँखें बन्द कर लेने से वही आँख या चश्मा मात्र यत्र की तरह आपके बीच काम करता है। तथ्य यह है कि इन्द्रियों से दूर आप एक ज्योति बिन्दू आत्मा हैं। इस यत्र का मैं उपयोग करता हूँ। हमें इसका उपभोग नहीं, परन्तु इसका सम्यक उपयोग करना है। इन्द्रियाँ और मैं (आत्मा) के जोड़ को अलग कर देना है। जो इन्द्रियों को हो रहा है वह इन्द्रियों को हो रहा है, आपको नहीं। इस बात का सतत् स्मरण चाहिए। पेट को भूख लगी है अर्थात् भोजन की ज़रूरत है, दर्द है, पैर में काँटा चुभ गया है कि शरीर थक गया है, इन्द्रियों द्वारा हो रहे प्रत्येक कर्म के पीछे, जिस ``मैं'' शब्द का प्रयोग आप करते हैं उसके बदले उससे सम्बन्धित इन्द्रियों का उपयोग करें।
जैसे –– मैं थक गया हूँ, मैं थक गया हूँ नहीं, पैर थक गया है। मैं तो बहुत विराट है। पैर तो शरीर का एक छोटा-सा अंग है। इस चिन्तन का परिणाम आत्मा पर एकदम से भिन्न होगा। इन्द्रियों से
दूर खड़ा होकर देखने मात्र से मैं अलग हूँ और इन्द्रियाँ अलग हैं, इसका बोध हो जाता है। वह बोध आत्मा को शरीर का मालिक या जितेन्द्रिय बना देता
है।
सफलता के लिए आहार संयम भी महत्त्वपूर्ण है,
शुद्ध संकल्प ही हमारे दिव्य-बुद्धि का भोजन है
जिन्हें भी परम शान्ति, आनन्द को प्राप्त करना है उन्हें आहार-संयम पर ध्यान अवश्य ही देना होगा। आहार-संयम का अर्थ मात्र भोजन ही नहीं है, भोजन सिर्फ एक आहार है। आहार का मतलब है बाहर से चीज़ों को अन्दर डालना। आँख, कान, स्पर्श सभी इन्द्रियों के द्वारा हम जिन चीज़ों को अन्दर ले जाते हैं, वे सभी आहार है। इसलिए आहार संयम पर ध्यान देना ज़रूरी है। वे आहार, जो आत्मा को शान्ति के मार्ग में सहयोगी हो, जो उद्वेलित, अशान्त और उत्तेजित नहीं करता हो, जो परमात्मा की याद में या किसी भी अपेक्षित कार्य में मन की एकाग्रता को बढ़ाता हो, जो जीवन में श्रेष्ठ, शुभ और परम मंगलमय नूतन विचारों का सृजन करता, वही हमें इन्द्रियों द्वारा अन्दर ले जाना चाहिए। दुःख ही आन्दोलित नहीं करता है मन को, अपितु इन्द्रियों का सुख भी उद्वेलन करता है।
विषयों-भोगों की तरफ दौड़ता हुआ मन शान्त कैसे होगा! जब कोई व्यक्ति शराब पीता है तो आप देख सकते हैं कि मन कैसे उत्तेजित होकर बाहर की तरफ उछलता, कूदता और दौड़ता है तो वे आहार जो उत्तेजना पैदा करते हैं, जैसे ö शराब, माँस इत्यादि, उसे ग्रहण नहीं करना है। लेकिन सिर्फ शराब ही नहीं बल्कि जब हम वासनाग्रस्त आँखों से कुछ देखते हैं तो वह भी हमारे संकल्पों को अस्थिर कर देता है। यदि कोई व्यक्ति तीन घण्टा सैक्स, हिंसा इत्यादि से भरपूर फिल्म देखता है तो वह एक तरह का गलत आहार आँखों के द्वारा ले रहा है। तब रात को वही सपने और दिन में वही विचार आयेंगे जो चित्त को चंचल भी करेंगे और उत्तेजित भी।
जब आप रेडियो सुन रहे हैं तो कान के द्वारा दिमाग उन तरंगों को आत्मसात कर रहा होता है। तरंगों को आत्मसात करना यह भी एक आहार है। यदि कोई आपसे पूछे कि आप क्या सुन रहे हैं तो कई बार आपका जवाब होता है ö ऐसे ही खाली बैठे हैं तो कुछ सुन रहे हैं। लेकिन आप खाली नहीं, गलत तरंग कचरे के रूप में खा रहे हैं। रोड पर चलते वक्त पता नहीं आँखें क्या-क्या देखती हैं। कोई विज्ञापन पोस्टर, फिल्म का विज्ञापन, लोग सभी पढ़ डालते हैं। आश्चर्य है लोग क्यों मेहनत कर रहे हैं पढ़ने के लिए, क्या किसी ने पैसा दिया है उन्हें?
अखबार ही पढ़ेंगे तो सम्पादकीय से लेकर के प्रकाशन के आखरी पृष्ठ तक। वे सभी
आहार, जो हम लेते हैं उस पर थोड़ा ध्यान की किरण डालें तो पता
चलेगा। यूँ ही जब पेट में कंकड़-घास नहीं डालते तो दिमाग में
कचरा क्यों डाल रहे हैं।
व्यर्थ संकल्प या विचार भी हमारी आत्मा के लिए कचरा है। इसलिए उससे भी मुक्त होना
ज़रूरी है। यही व्यर्थ संकल्पों का तूफान जीवन में अनेक प्रकार के नुकसान करते हैं।
इसलिए विवेक-बुद्धि से इसको चेक करो तब ही समय और जीवनोपयोगी
शक्तियों की बचत कर सकते हैं।
ध्यान रहे पेट में डाला गया भोजन उतना नुकसान नहीं पहुँचाता है जितना यह व्यर्थ विचार रूपी सूक्ष्म आहार। क्योंकि यदि पेट में कब्ज हो गया है तो उसकी दवा उपलब्ध है। लेकिन यदि मस्तिष्क में कब्ज हो जाये तो फिर विज्ञान के पास कोई दवा नहीं है। हाँ अध्यात्म के पास इसकी औषधि है। संयम का अर्थ है कि व्यक्ति सर्व इन्द्रियों के द्वार पर विवेक का चौकीदार बिठा दे, ताकि वही चीज़ अन्दर जा सके जो मन को स्वस्थ रख सके, शक्तिशाली बना सके। जिससे चित्त चंचल नहीं हो, बल्कि उसे परम शान्ति और आनन्द प्राप्त हो।
अगर कोई व्यक्ति समस्त आहार
के प्रति सम्पूर्ण संयमपूर्ण दृष्टिकोण रखता है, छुए भी वही,
सुने भी वही, देखे भी वही, खाए भी वही, सुध भी वही ले, जो
आत्मा को शान्ति के पथ पर ले जाता हो, तो व्यक्ति जल्दी ही अपने
जीवन को भव्यता की गरिमा में प्रतिष्ठित कर सकेगा। इसलिए संयमी या जितेन्द्रिय व्यक्ति,
जो इन्द्रियों में छिपे प्रगट को समझ इन्द्रियों की प्रयोगशाला में बैठ
साक्षी हो आहार-संयम को ध्यान में रखता है वही इन्द्रिय-संयम को उपलब्ध करने में सफल हो जाता है। इस प्रकार संयमित व्यक्ति सहज ही
अपने ध्येय के राजमार्ग पर अग्रसर हो जाता है।