(भाग 4 का बाकि)
विचार-आकृति के कार्य के तरीके
यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के लिए प्रेम, शान्ति, निस्वार्थ भाव या क्रोध, घृणा इत्यादि के विचार या भाव पैदा करता है तो पहला प्रभाव तो तरंग के रूप में फैलकर पड़ता है। दूसरा प्रभाव विचार आकृति जिस व्यक्ति के लिए किया गया है तक्षण उसके ओरा या आभा मंडल के पास पहुँच जाता है। यदि वह बिना काम के बैठा है या किसी कार्य में व्यस्त नहीं है तो उसी क्षण उसके आभामंडल में प्रेवश कर अपने अनुरूप प्रकम्पन पैदा कर देता है। यदि वह व्यक्ति उसी तरह के भाव या विचार में बैठा है तो इस प्रकम्पन की तीव्रता और ही अधिक बढ़ जायेगी। ठीक उसी के अनुरूप उस व्यक्ति का कर्म तीनों ही रूपों से क्रमश प्रारम्भ हो जाता है (विचार, इच्छा और कार्य के रूप में जिसकी व्याख्या पहले कर दी गई है)।
यदि व्यक्ति किसी कार्य में व्यस्त है तो वह विचार आकृति उसके आस-पास तब तक प्रतिक्षा करती रहेगी, जब तक वह उस कार्य से निवृत्त नहीं हो जाता है। अच्छे विचार रूप फ़रिश्ते के रूप में जाकर उसकी भलाई करता है। ठीक इसके विपरीत बुरे विचार भयंकर हानि पहुँचाते हैं। इस प्रकार एक अच्छे या बुरे भावों वाले विचारों के प्रभाव जिस व्यक्ति के लिए भेजे गये हैं उस व्यक्ति पर तभी पड़ सकते हैं, जब उसके अनुकूल उस व्यक्ति का आभामंडल होता है।
मान लें, यदि कोई अति दुःखदाई विचार प्रबल रूप से किसी ऐसे
व्यक्ति के पास भेजता है जो पवित्र और महान् है, जिसके चारों
तरफ एक निर्मल आभामंडल है। तो परिणाम यह होगा कि कड़े विचार उस आभामंडल में अपने अनुकूल
नहीं होने के कारण उससे टकराकर वापस लौटकर भेजने वाले के अन्दर प्रवेश कर जायेंगे।
जिससे भेजने वाले का उससे भयंकर नुकसान होना सम्भव है।
यदि विचार अपने लिए अपने ही किसी पदार्थ के वश किया गया
है तो रूप आकृति उसके ही आसपास घूमती रहेगी। और जब वह खाली बैठगा तो वह आकृति उसके
अन्दर प्रवेश कर अनुकूल कम्पन पैदा कर देगी और उसके कारण उसका अच्छा या बुरा प्रभाव
दृष्टिगोचर होने लगेगा। यह कहावत इसी तरह चरितार्थ भी होती है कि ––
1. हरेक व्यक्ति
अपना मित्र और अपना शत्रु है।
2. खाली दिमाग,
शैतान का घर।
खाली होते ही उसके पास घूमती उसकी ही आकृति उसमें प्रवेश
कर अपना जलवा दिखाना प्रारम्भ कर देगी।
इस तरह प्रत्येक व्यक्ति अपने ही विचारों और भावों के प्रकम्पन
और आकृति से घरा रहता है। हाँ, एक राजयोगी
जब चाहे अपने इन बुरे तो क्या अच्छे प्रभावों के घेरे से मुक्त, साक्षी और कर्मातीत अवस्था के अपने उच्चतम स्वरूप आत्मा में प्रतिष्ठित हो,
मुक्ति का अनुभव कर सकता है।
संक्षेप में हमने इसकी वैज्ञानिक व्याख्या इसलिये की ताकि
आप अपनी मंज़िल को निर्विघ्न प्राप्त करने में मार्ग के सुख-दुःख में कहीं फंस न जायें। सफलता के साथ सदा
सुखमय जीवन यानि सफल जीवन को प्राप्त कर सके। इस पृष्ठ-भूमि में
अपने सभी चिन्तन, सभी प्रयास सफलता के उच्च आदर्श को ध्यान में
रख पुरुषार्थ करेंगे तो आपमें धीरे-धीरे प्रबल आत्म-विश्वास जागृत होने लगेगा और मंज़िल (लक्ष्य)
की प्राप्ति निर्विघ्न रूप से कर सकेंगे।
इच्छा और इच्छा-शक्ति
स्वभावत मनुष्य अपने जीवन में सुख, शान्ति और समृद्ध की कामना करता है। उसकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण इच्छाओं में से एक है धन और यश की इच्छा और उसे उपलब्ध करने के लिए प्रयत्न भी करता है। साधारणत मनुष्य के प्रत्येक कर्मों के पीछे यही अन्त प्रेरणा होती है। सभी महान् लोगों का भी यही अभिमत है कि सृष्टि लीला इच्छाओं और आकांक्षाओं से प्रेरित है।
इच्छा करना मनुष्य का स्वभाव है, परन्तु इच्छित फल की प्राप्ति
के लिए उसे अमर्यादित और अनैतिक ढंग से कभी भी न तो सोचना चाहिए और ना ही कर्म करना
चाहिए। मनोवांछित फल पाने के लिए हमारी इच्छा इतनी बलवती नहीं होनी चाहिए कि उचित-अनुचित की विवेक बुद्धि ही नष्ट हो जाये और हम उसे येन-केन-प्रकारेण पाने के लिए तत्पर हो उठे। इसे ही लोभ या
लालच कहते हैं। लोभी कभी भी सुखमय जीवन व्यतीत नहीं कर सकता है। सच्चे मनुष्य की अग्नि
परीक्षा, तो प्रलोभन से होती है।
हृदय से लालच निकाल दें तो गले की जंजीर निकल जाये।
–– जाविदान-ए-खिरद
जिससे
होता ही रहे, अन्य जनों को क्षोभ।
है
आनन्दित-कर नहीं, निन्दित है वह लोभ।।
–– अयोध्या सिंह उपाध्याय
इस प्रकार अनैतिक इच्छा के वश मनुष्य क्रोध, काम, ईर्ष्या और अहंकार
का शिकार भी हो जाता है। इच्छा का सर्वथा त्याग तो मुश्किल है, परन्तु वह इतनी अधिक न बढ़ जाये कि हमारे सोचने समझने के सामर्थ्य को समाप्त
कर लोभ वश अनैतिक कर्मों में लिप्त कर दे। मानव की यही स्थिति पशु तुल्य कही जाती है,
ऐसी इच्छा त्याज्य है।
मनुष्य के समस्त विकास और पतन में इच्छा का ही हाथ है। जहाँ
एक ओर श्रेष्ठ और शुभ इच्छा विकास की तरफ यात्रा करती है वहीं विवेक शून्य इच्छा पतन
पराभव की तरफ। किसी प्रकार के अभाव की अनुभूति मनुष्य के अन्दर विफलता का भाव पैदा
करती है और उसके कारण उस वस्तु को पाने की कामना उस मनुष्य में जागती है। यह कामना
ही मनुष्य की इच्छा कहलाती है। अंतहीन समुद्र की लहरों की तरह इच्छाओं पर सवार मनुष्य
जीवन सागर में भटकता रहता है, जो उसकी
आन्तरिक चेतना को छिन्न-भिन्न कर अशान्त बना देता है। इसलिए कहते
हैं –– ``अनियंत्रित इच्छा मनुष्य को अच्छा नहीं बनने देती। सभी
बुराईयों की जड़ यही इच्छा है''।
एक कामना पूर्ण होती है तो अन्य उत्पन्न होकर बाण के समान
छेदने लगती है। भोग की इच्छा कभी भोगों से समाप्त नहीं होती, अपितु ऐसे भड़कती है जैसे घृत डालने से अग्नि,
भोगों की कामना करने वाला मोही पुरुष सुख नहीं पा सकता।
–– महर्षि विश्वामित्र
इच्छा से दुःख आता है, इच्छा से भय आता है, जो इच्छाओं से मुक्त है वह न दुःख
जानता है और न भय।
–– महात्मा बुद्ध
इच्छा शक्ति
जीवन का एक उद्देश्य इच्छा-शक्ति को दृढ़ बनाता है। दृढ़ मानव के लिए सदा
सुअवसर है।
–– एमर्शन
जब मनुष्य की समस्त जीवन ऊर्जा किसी एक लक्ष्य की ओर उन्मुख
हो जाती है- वही संकल्प
या इच्छा-शक्ति कहलाती है। इच्छा-शक्ति
का अर्थ हुआ किसी एक ही दिशा में समस्त ऊर्जा का नियोजन। सिर्फ अकेली इच्छा कोई परिणाम
नहीं ला सकती है उसके लिए सामर्थ्य या सकंल्प शक्ति भी आवश्यक है। एक चीनी कहावत है।
`महान्' आत्मा में इच्छा-शक्ति होती है, दुर्बल आत्मा में केवल इच्छाएँ। कोई भी
इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि मनुष्य अपनी प्रचण्ड इच्छा-शक्ति
के बल से क्या नहीं कर सकता।